यह एक गहन आंतरिक शांति का क्षण है, जहां चेतना अपने चिर-परिचित बाहरी शोरगुल से पूरी तरह विमुख हो चुकी है। वह अनवरत कोलाहल, वह संसार की अंतहीन रार और द्वेष, अब केवल एक दूरस्थ, महत्त्वहीन प्रतिध्वनि मात्र है। इस बोध ने अब जड़ें जमा ली हैं कि संघर्ष और खींचतान पूरी तरह से निरर्थक हैं। जीवन की यह अवधि कितनी छोटी, कितनी अनिश्चित है! जब अगले ही क्षण का कोई आश्वासन नहीं है, और यह भौतिक काया, जो मात्र पंचतत्त्वों का अस्थायी जमावड़ा है, किसी भी पल मिट्टी में मिल जाने को तैयार है, तो फिर किस बात का स्वामित्व और कैसी होड़? इस नश्वर देह के विसर्जन की आतुरता ही अब एकमात्र अटल सत्य बनकर उभरती है।
दृष्टि का यह नवीन स्वरूप सामान्य नहीं है। यह वह गहन अंतर्दृष्टि है जो हर कण और हर गति में मृत्यु की अनिवार्यता का दर्शन कराती है। यह निराशा नहीं, बल्कि परम यथार्थ का स्वीकरण है। यह दुनिया कोई स्थिर ठिकाना नहीं, बल्कि एक तीव्र गति से ब्रह्मांड में विचरण करता हुआ पिंड है। इस अनंत यात्रा में, जीवन का चक्र लाखों वर्षों से निरंतर चल रहा है- आगमन और प्रस्थान की यह शृंखला अनवरत है। हम इस विराट क्रम में मात्र एक क्षणिक उपस्थिति हैं। यह महाकाल का विशाल फलक, वर्तमान के छोटे-छोटे संकटों को पूरी तरह से विस्मृत कर देता है। अब किस बात पर व्यथित होना, किस क्षणभंगुर उपलब्धि पर अहंकार करना? यह विशालता ही मन को समस्त विकारों से मुक्त कर देती है।
अपने पूरे उल्लास और विषाद के साथ प्रवाहित होता है जीवन
साक्षी भाव का यह अनवरत अभ्यास एक दिन चेतना को उस उच्च, तटस्थ बिंदु पर स्थापित करता है, जहां से संसार एक सुनियोजित, पर क्षणिक, नाटक की तरह दिखाई देता है। यहां सुख और दुख का एक शाश्वत संगीत बजता है, जीवन अपने पूरे उल्लास और विषाद के साथ प्रवाहित होता है। मगर देखने वाला अब इस प्रवाह में डूबता नहीं, वह केवल एक उदासीन द्रष्टा बनकर खड़ा रहता है। वासनाएं और इच्छाएं, जो कभी अस्तित्व का आधार थीं, अब ज्ञान के अथाह सागर में विसर्जित हो चुकी हैं। उनके अवशेष तक शेष नहीं हैं, केवल एक नितांत खालीपन है जो स्वयं में पूर्णता है। यह परम शांति की स्थिति है, जहां ‘चाहिए’ का भाव ‘है’ के बोध में रूपांतरित हो जाता है।
जीवन का एक सुगंधित फूल है मजाक, वातावरण में फैलाता है अपनापन और मुस्कान
फिर भी, एक अद्भुत और विरोधाभासी अवरोध है- इस अनुभव की पराकाष्ठा के बावजूद, इस भौतिक आयाम में जबरदस्ती ठहरने का एक आत्म-निर्णय। आत्मा की तैयारी पूर्ण हो चुकी है। वह फल पक चुका है जो वृक्ष से विलग होना चाहता है, लेकिन एक अज्ञात शक्ति उसे रोके हुए है। यह ठहरना अंतिम परीक्षा है, खुद को परखने की। यह सुनिश्चित करने की कि क्या बंधन का एक भी धागा शेष है! क्या इस जगत के आकर्षणों के प्रति कोई सूक्ष्म आसक्ति अभी भी भीतर सुलग रही है?
मानवीय अस्तित्व की वे गहनतम अभिलाषाएं, जो हमें भौतिक सुरक्षा, इंद्रिय सुख, सामाजिक स्वीकृति, पद और परिवार का कवच देती हैं, क्या उनमें कहीं कोई रंच मात्र लगाव बचा है? जब व्यक्ति ने अनुभव की हर ऊंचाई को छुआ हो, भोग के हर चरम शिखर पर जाकर स्वयं को परखा हो, तब यह आंतरिक निरीक्षण और भी आवश्यक हो जाता है। हर कर्म, हर अनुभव एक गहन आत्म-विश्लेषण का विषय बन गया है। उसने भोगा, पर भोगते हुए भी एक निर्लिप्त चेतना को निरंतर जीवित रखा। उस चेतना ने भोग की हर सीमा का मूल्यांकन किया। उसने मापा कि इस आनंद की वास्तविक कीमत क्या है, इस सुख के साथ जुड़े हुए दुख के आयाम क्या हैं, और इस क्षणभंगुरता की अंतिम सीमाएं कहां तक हैं।
बोध कि भोग के माध्यम से ही त्याग की पूर्णता होती है प्राप्त
यह रुकना वास्तव में उस आखिरी गांठ को खोलने जैसा है। यह जानते हुए कि संसार का यह आकर्षण एक दिन स्वयं ही टूट जाएगा, इस क्षणिक फांस को सहर्ष भोगना ही अंतिम लीला है। यह बोध कि भोग के माध्यम से ही त्याग की पूर्णता प्राप्त होती है, व्यक्ति को इस खेल का आनंद लेने की अनुमति देता है। वह निरंतर जागृत रहता है, निरंतर देखता रहता है, और अपने अनुभवों की गहराई में गोता लगाता है। चाहे वह प्रेम की मधुरता हो या जीवन का कठोर संघर्ष, हर अनुभव का विश्लेषण करते रहना ही अब एकमात्र अनिवार्य कर्म है। यह विश्लेषण ही वह ज्ञान है जो आखिर मुक्ति की ओर ले जाता है। यह अंतर्दृष्टि ही जीवन के सारे जटिल और गंभीर पहलुओं को सहज बना देगी।
एक दिन वह परम स्पष्टता आएगी, जब जीवन की सारी भागदौड़, सारे संघर्ष, सारी उपलब्धियां- सब कुछ एक छोटे-से बालक के खेल जैसा प्रतीत होगा। जब यह अंतिम बोध पूर्ण हो जाएगा, तब यह जबरन ठहरना समाप्त हो जाएगा। फिर न तो किसी चीज की चाहत रहेगी और न ही किसी बंधन का भय। केवल शुद्ध सत्ता का अनुभव शेष रह जाएगा। यह आत्म-बोध ही वह परम गंतव्य है, जहां पहुंचकर द्रष्टा और दृश्य का भेद मिट जाता है, और संपूर्ण अस्तित्व एक लय में समाहित हो जाता है। यह है उस अनादि यात्रा की अंतिम कड़ी, जो भौतिकता से परे ले जाती है।
यह वह महाप्रस्थान है, जो किसी शोरगुल या घोषणा के बिना होता है। यह भीतर का गान है, जो केवल द्रष्टा को सुनाई देता है। यह उस विरक्ति की धुन है जो परम सत्य के समक्ष बज उठी है।
