हमने क्या कभी थकान को ध्यान से देखा है? जैसे दिन ढलने के बाद किसी पेड़ की छाया लंबी हो जाती है- धीमी, शांत, बिना किसी शोर के… थकान भी कुछ वैसी ही होती है। न बोलती है, न शिकायत करती है, बस शरीर के जरिए मन की कहानी कहती है। हमारे समय में ‘थकान’ एक नकारात्मक शब्द बन गया है। यह कहा जाता है कि ‘थकना नहीं है’, ‘रुकना नहीं है’, ‘चलते रहना है’, लेकिन कोई नहीं कहता कि ‘ठहरो, सांस लो, महसूस करो।’
दरअसल, हम एक ऐसी सभ्यता के नागरिक हैं, जहां रफ्तार को सफलता और ठहराव को विफलता समझा गया है। इस तेज जीवन में थकान से डरना सिखाया गया है, जैसे वह कोई कमजोरी हो। जबकि सच यह है कि थक जाना सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमने दिन को पूरी नीयत से, पूरी ईमानदारी से जिया। जो नहीं थकता, शायद उसने अभी तक शुरू ही नहीं किया। थकान केवल शरीर की बात नहीं है, यह आत्मा की भाषा है। यह उस श्रम की स्मृति है जो दिन भर हमारे भीतर से होकर गुजरी होती है। हमारी पीठ में, हथेलियों में, आंखों में, सांसों में जमा हर थकान कहती है कि हमने कुछ रचा है, कुछ जोड़ा है, भले वह दुनिया ने न देखा हो, पर हमारे भीतर कुछ बदल गया हो।
बिना कुछ किए थकान महसूस करने वाले व्यक्ति की सुविधाएं उसे थका देती हैं
सड़क किनारे एक रिक्शेवाला अपनी सीट पर झुका बैठा था। उसकी आंखें बंद थीं, लेकिन उसके चेहरे पर एक गहरी शांति थी। वह थका था, पर उस थकान में पराजय नहीं थी। वैसा संतोष था, जो अमीरी नहीं देती, बल्कि वह पूरे दिन की ईमानदार मेहनत से आता है। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को यह समझ में आ सकता था कि थकान भी एक सौंदर्य है, जिसे देखने नहीं, महसूस करने की जरूरत होती है।
आज का समय हमें ‘परिणाम’ से बांधता है, लेकिन थकान ‘प्रयास’ की भाषा है। वह कहती है कि हमने दौड़ में हिस्सा लिया, हमने जीवन के संघर्ष में अपने हिस्से की कोशिश की। चाहे मंजिल मिली या नहीं, थकान खुद में एक उपलब्धि है, क्योंकि जो थकता है, वही जीता भी है। यह समझना मुश्किल नहीं है कि कुछ करते हुए थकने और बिना कुछ किए थकने में एक बड़ा अंतर है। बिना कुछ किए थकान महसूस करने वाले व्यक्ति की सुविधाएं उसे थका देती हैं। सुविधाओं का भोग एक ऐसी आराम की आदत देता है, जो बिना कुछ किए भी व्यक्ति को थका देता है। ऐसे लोगों को मेहनत की थकान का सौंदर्य कितना समझ में आएगा? हमारे समाज में आजकल प्रत्येक व्यक्ति के पास ‘अगला काम’ है, ‘अगली मंजिल’ है। हर कोई किसी लक्ष्य की ओर भाग रहा है, लेकिन बहुत कम लोग यह समझते हैं कि जीवन लक्ष्य नहीं, यात्रा है। कभी-कभी तो बस रुक जाना, अपने भीतर की सांस सुन लेना ही सबसे जरूरी होता है।
थकान केवल परिश्रम की नहीं, प्रेम की भी भाषा है
जब हम सच में थकते हैं, तभी हमें पता चलता है कि हम कहां तक इंसान हैं और कहां मशीन बन गए हैं। मशीनें नहीं थकतीं, इसलिए वे कभी विश्राम का सुख नहीं जान पातीं। हम थकते हैं और यही थकान हमें मनुष्य बनाए रखती है। वह हमें सीमाओं का बोध कराती है और यह सीमा बोध ही जीवन की गरिमा है। थकान में एक मौन होता है, जो बोलता नहीं, पर बहुत कुछ कह जाता है। उस मौन में हम दूसरों की थकान को भी पहचानने लगते हैं। शायद इसी तरह करुणा जन्म लेती है, जब हम खुद के थके होने से दूसरों के लिए नरम हो जाते हैं। जिस दिन हम सच में किसी राहगीर, मजदूर या मां के चेहरे पर थकान देखें, हम पाएंगे कि वह थकान केवल परिश्रम की नहीं, प्रेम की भी भाषा है। वह त्याग की चमक से भरी होती है, जिसे शब्दों में बांधना संभव नहीं।
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थकान का दायरा बहुत बड़ा है, बस देखने और समझने की जरूरत है। एक शिक्षक की भी थकान होती है, जो बच्चों की आंखों में अपने उत्तर खोजता है। एक डाक्टर की थकान होती है, जो रात-दिन किसी और की सांसों के बीच अपनी सांसें भूल जाता है। एक मां की थकान होती है, जो घर को घर बनाए रखती है बिना कभी श्रेय मांगे। प्रत्येक पेशे की, प्रत्येक संबंध की, प्रत्येक ईमानदार कोशिश की अपनी थकान होती है। और वही थकान दुनिया को टिकाए रखती है। कभी-कभी लगता है, थकान वही जगह है जहां हम अपने असली रूप में लौटते हैं।
जहां चेहरों से मुखौटे उतर जाते हैं, जहां उपलब्धियों का शोर शांत हो जाता है। वहीं जाकर हम समझते हैं कि जीवन कोई दौड़ नहीं,बल्कि एक अनुभव है जो हर थकान के पार थोड़ा और खुलता है। थकान में एक विनम्रता होती है, जो हमें याद दिलाती है कि कुछ भी स्थायी नहीं। न परिश्रम, न उपलब्धि, न हम स्वयं। हम बस एक यात्रा के यात्री हैं, जिसमें थकान ही वह पड़ाव है जहां आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। थकान दरअसल जीवन की कविता है, जो हमें सिखाती है कि हर दौड़ के बाद ठहरना जरूरी है, हर उपलब्धि के बाद विश्राम आवश्यक है। जिस दिन हम थकान को एक साथी की तरह स्वीकारना सीख लेंगे, उसी दिन हमें समझ आएगा कि शक्ति शोर में नहीं, उस निस्तब्धता में है, जहां हम खुद से मिलते हैं- थके हुए, पर पूरे।
