यह ‘जियो और जीने दो’ का दर्शन, जो मूलत: भगवान महावीर के अहिंसा सिद्धांत का उच्च आदर्श है, आज के विखंडित समाज में विकृत होकर केवल स्वार्थ और अलगाव का एक विचित्र मंत्र बन गया है। यह वह छद्म-आधुनिकता है, जहां भावनात्मक दूरी को ‘आत्मनिर्भरता’ का मुलम्मा चढ़ाकर स्वीकार किया जाता है। स्नेह का पात्र अपनी समस्त उपयोगिता खोकर उपेक्षित हो जाता है। यह हृदय की वही पीड़ा है, जिसमें एकाकीपन की टीस है। उपेक्षित हृदय अपनी संतानों के जीवन को देखकर खुद को समझाता है, पर भीतर ही भीतर वह अपने अस्तित्व के मौन एकांत को गिनता है। रिश्तों की वह गर्माहट, जो एक समय जीवन का आधार थी, अब केवल ‘अनचाही सलाह’ की संज्ञा पाकर उपेक्षा का शिकार हो जाती है।

तकनीकी संजाल में गुम नई उम्र के लोगों ने जिस तरह अपनी एक आभासी दुनिया में ही अपना जीवन झोंक दिया है, उसमें वे तो शायद इस बात का अहसास भी नहीं कर पाते होंगे कि परिवार से लेकर समाज तक में आसपास जीवंत रिश्तों से जीवन को कैसी ऊर्जा मिलती थी। अब तक हालत यह है कि सिर्फ ‘निजी दायरा’ के नाम पर एकाकीपन की दुनिया और उसके दंश को भी जीवनशैली का एक सहज और स्वाभाविक हिस्सा मान लिया जाता है।

व्यक्ति का मूल्य घट जाता है, उसकी बात का नहीं

यह समझने की जरूरत तक महसूस नहीं की जाती कि इससे उपजे खालीपन से आगे की जिंदगी एक चुनौती भी बन सकती है। स्नेह और प्रेम का महत्त्व अब मायने नहीं रखता। मगर यह ध्यान रखने की जरूरत है कि जब स्नेह की उपेक्षा होती है, तो व्यक्ति का मूल्य घट जाता है, उसकी बात का नहीं। इस उपेक्षित हृदय का ‘होना’ ही अब व्यक्ति का दुख बन गया है, जो एकांत में आंसू पोंछता है और अपनी पीड़ा को ‘आजादी’ का नाम देता है।

परमार्थ एक स्थिर आनंद, यह स्वार्थ लोभ और इच्छाओं से परे

वर्षों के इस भावनात्मक सूनेपन पर अचानक ‘राय’ की मांग आना, शुष्क भूमि पर अचानक बरसी पहली बूंद होती है। यह क्षण एक उपेक्षित हृदय के लिए किसी वरदान से कम नहीं, भले ही यह मांग प्रेमवश नहीं, बल्कि स्व-उपयोगिता के लिए की गई हो। उस हृदय की तृप्ति का आधार केवल यह होता है कि उसे ‘योग्य’ समझा गया है। मगर यह एक विडंबना है कि जीवन के बड़े निर्णय और खुशियों में जिसे विस्मृत कर दिया गया, उसे याद केवल तब किया जाता है, जब अंतरात्मा पर कोई पाप-बोध का भारी बोझ आ जाए।

यह कैसा विश्वास है, जहां स्नेह का अधिकार केवल नैतिक शुद्धि और पाप-क्षालन के कर्मकांड तक सीमित रह जाता है! आजकल के लोग कई महीनों तक लोभ और भय के द्वंद्व में जीते हैं, प्राप्त अशुभ धन को छिपाते हैं और आखिरकार उसे नकदी में बदल देते हैं। इस लोभ की शुद्धि के लिए वे उस हृदय के पास आते हैं, जिन्हें वे अखंड ममता की शक्ति मानते हैं। यह जानते हुए भी कि उनकी व्यावहारिक चेतना इस समस्या का सामना नहीं कर सकती, वे उस निष्कपट प्रेम के पास आते हैं, जो उसके अशुभ धन से चिपके अनजान आंसुओं को अपनी पवित्रता से धो सके।

गरीब और कन्याएं यहां सामाजिक हाशिये की भूमिका निभाते हैं

जब उपेक्षित हृदय कहता है कि जिस धन में किसी का दुख जुड़ा हो, वह अपने पास नहीं रखना चाहिए, तो यह केवल धर्म-सम्मत सलाह नहीं होती, बल्कि स्वयं की पीड़ा का मौन प्रक्षेपण होता है। यह एक परोक्ष प्रश्न है कि जाने अनजाने में ही सही, हम सबके जीवन में जो यह उपेक्षा और परित्याग का दुख जुड़ा है, उसका शोधन और निवारण कहां किया जाए! यह सलाह अवसरवादियों के लिए एक नैतिक छूट-पत्र बन जाती है। उन्हें गरीबों को दान या कन्या पूजन का मार्ग दिखाया जाता है।

यह भारतीय संस्कृति के ‘दान’ के सिद्धांत पर आधारित है, जैसा कि यजुर्वेद में कहा गया है- ‘दानेन परिचर्या च’, यानी दान से ही परिचर्या (शुद्धि) होती है। मगर यहां यह दान केवल नैतिक रिश्वत है- अपने लोभ और कायरता के पाप-बोध को एक त्वरित ‘पुण्य’ में बदलकर मुक्ति पाने का सौदा। यों भी ‘और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा… राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’ यहां दुख की बात यह है कि उस हृदय की ‘राहत’ केवल दूसरों के पाप को धोने में सिमट गई है। गरीब और कन्याएं यहां सामाजिक हाशिये की भूमिका निभाते हैं, जहां स्वार्थी लोग अपनी अमानवीय कुंठा निकालते हैं।

हर बीतता पल हमें मृत्यु के एक-एक क्षण ले जाता है करीब, मौन होकर भी सबसे प्रखर है समय की भाषा

इस पूरे प्रसंग में सबसे बड़ा पाखंड वह क्षण है, जब व्यक्ति कहता है कि ‘शुभता वस्तु में नहीं, भावना में होती है।’ अगर यह सत्य होता, तो कर्म में इसकी झलक दिखती। श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं- ‘यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।’ यानी जो कुछ भी आप करते हैं, खाते हैं, हवन करते हैं, दान देते हैं या तप करते हैं, वह सब मुझे अर्पित कर दें। यहां ‘शुभता’ तो तब प्रकट हुई, जब उपेक्षित हृदय ने दान का आसान मार्ग सुझाया। यह भावना नहीं, बल्कि सुविधा थी, जिसने लोभ और कायरता पर पवित्रता का आवरण डाल दिया गया। कवि अदम गोंडवी ने शायद ऐसी ही नैतिकता पर व्यंग्य किया होगा- ‘तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है।’ यह शुभता का दावा भी वैसा ही झूठा है, जिसने नैतिक स्वीकृति को ही अपनी उपलब्धि मान लिया।