आज समय तेजी से भाग रहा है। किसी के पास किसी को देखने-सुनने या बात करने की फुरसत नहीं दिखती है। सब भागे जा रहे हैं। भौतिकतावादी जीवन शैली के प्रभाव से शायद कोई नहीं बच पाया है। उच्चवर्ग, मध्यमवर्ग, निम्न मध्यम, निम्न वर्ग आर्थिक दृष्टि से जब भी किसी को अवसर मिलता है, सब भागने लगते हैं। शहर हमेशा जागता रहता है। मुश्किल से एक दो घंटे गाड़ियों की रफ्तार थमती होगी। सब अपनी दुनिया में मस्त हैं। सुबह-सुबह अगर चार बजे भी हम उठ जाते हैं, तो देख सकते हैं कि आटो रिक्शा पर सवारियां और सब्जी बेचने वाले अपनी टोकरियां लादे बैठे दिखाई देंगे दोस्त, मित्र, पड़ोसी- सब अपने आप में मगन हो रहे हैं।

ऐसे दृश्य रोज के हैं। लोग केवल एक बात कहते हैं कि समय ही नहीं है। घर से नौकरी, नौकरी से घर। बचा हुआ समय परिवार के लिए। कुछ लोगों को तो यह पता भी नहीं कि पड़ोस में क्या हो रहा है या उनके घर में क्या दिक्कत है। कितना वक्त यों ही गुजर जाता है बिना किसी से इतना भी बोले कि कितना समय हो गया। हालांकि अच्छी जीवन शैली के लिए अर्थ आवश्यक है, मगर मानसिक स्वास्थ्य के लिए सामाजिकता अत्यंत जरूरी है। मनुष्य हमेशा काम नहीं कर सकता। उसे आराम की भी जरूरत होती है। समय सबके पास एक जैसा है। इसलिए त्योहार, मेले, सांस्कृतिक कार्यक्रम, पारिवारिक कार्यक्रम, यात्राएं, तीर्थयात्राएं- सबकी व्यवस्था है। मगर बात यहां संवाद की है। कई बार एक जैसी दिनचर्या से जीवन में नीरसता आ जाती है। हम सबके पास कहने-सुनने को बहुत कुछ होता है। संवाद करने से जो हम कहना चाहते हैं, बातों-बातों में निकलता जाता है। हम भीतर से हल्के होते जाते हैं।

जीवन में सहजता बहुत जरूरी है

मनुष्य ने अपने आसपास ऐसा वातावरण निर्मित कर लिया है कि किसी की किसी से बात करने की हिम्मत नहीं होती या मन नहीं होता। जबकि जीवन में सहजता बहुत जरूरी है। जीवन में सब जरूरी है- घर, परिवार, नौकरी, पास-पड़ोस, नहीं तो हम मनुष्य होने का धर्म कैसे निर्वहन करेंगे! केवल अच्छा खाना, होटल, रेस्तरां में, सप्ताहांत पर परिवार और परिजनों के साथ जाना। यही तो जीवन नहीं है। यहां यह तात्पर्य नहीं है कि हम किसी का किसी भी समय जाकर दरवाजा खटखटा दें। सुबह से लेकर शाम तक दस-पांच मिनट जो भी परिचित हो, पडोसी हो, बच्चे-बूढ़े, जिससे जैसे बन पड़े, चेहरे पर अच्छी-सी मुस्कान लेकर केवल इतना ही पूछ लिया जा सकता है कि बाबा कैसे हो… बच्चों आजकल क्या चल रहा है… अम्मा जी आप कैसी हैं! बस फिर डूब जाया जा सकता है कि अपनी दिनचर्या में। मगर वह कुछ मिनट का समय हमारे लिए अतिरिक्त ऊर्जा का काम करता है।

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सबके साथ समय प्रबंधन जरूरी है। हम तरोताजा महसूस अवश्य करेंगे। घर-परिवार की जिम्मेदारियां तो उठानी पड़ेगी, पर कभी-कभी यों ही किसी से बिना मतलब भी बातचीत करके हाल पूछ कर देखा जाए। अच्छा लगेगा उसे भी और हमें भी। दिन भर काम के बोझ तले गांभीर्य ओढ़कर जीवन जीना मन और तन दोनों के लिए उचित नहीं है। आज एक बीमारी या कहें, लत ने भी संवादहीनता को जन्म दिया है। छुट्टी या समय मिलते ही लोग घरों में अपना मोबाइल खोल कर लीन हो जाते हैं। घर में जितने सदस्य, उतने मोबाइल। कोई आपस में बात नहीं करता।

रील या गेम्स में मशगूल होकर या सोशल मीडिया पर अपनी किसी टिप्पणी या जो भी लोगों को पसंद हो, उसमें मगन रहते हैं। पूर्व में चौपाल पर कहानी, किस्से, बात कहना आदि मनोरंजन के साधन तो थे ही, वहां बच्चे, बूढ़े, युवा आदि सब एकत्र होकर सुनते। उनमें जिज्ञासा पैदा होती थी, प्रश्न पूछते थे। उनमें उत्सुकता का भाव प्रमुख होता था। आज बच्चों का बचपन महत्त्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ रहा है। सब भाग रहे हैं। बच्चे कंधे पर बस्ता टांगे सुबह स्कूल चले जाते हैं। अगर माता-पिता, दोनों कामकाजी हों तो सब सुबह निकल पड़ते हैं और शाम को सब थके-टूटे रहते हैं। मन भर कर संवाद नहीं होता। सब एक निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति कर रहे हैं।

संवाद जीवन के लिए बहुत ही जरूरी

मगर छोटे-छोटे गांव के बीच से होकर आज भी गुजरा जाए तो वहां रोज कुछ बुजुर्ग घर के बाहर चबूतरों पर बैठे आपस में बतियाते दिखाई देते हैं। सर्दी में अलाव तापते बुजुर्ग, युवा हंसते-खिलखिलाते सुबह-शाम दिख जाते हैं। रास्ते में पड़ने वाले किसी दुकान या किसी जगह काम करने वाले परिचित से हो जाते हैं। उनमें से कोई कभी अपनापे के साथ यह पूछ ले सकता है या हम खुद ही उससे पूछ बैठते हैं कि कैसे हैं इन दिनों… गरमी खूब पड़ रही है। यह जवाब आ सकता है कि क्या करें… रोज का यही काम है। कुछ पलों की उस बातचीत से चेहरे पर मुस्कान तैर जा सकती है। अगर हम सिर्फ इतना भी कर लें तो सामने वाला व्यक्ति इस अहसास से खुश हो जा सकता है कि कोई है, जिससे संवाद किया जा सकता है, कोई उसकी सुन सकता है।

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सिर्फ इतना भी संवाद के लिए ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है। केवल दो बोल कि ‘कैसे हो’, किसी भी मनुष्य की उदासी, नकारात्मकता, अनमनेपन को दूर कर सकता है। हम जहां प्रतिदिन जाते हैं, कार्य करते हैं, गुजरते हैं तो वहां के परिवेश और लोगों से अवश्य परिचित से हो जाते हैं। सब कुछ पहचाना-सा लगने लगता है। इसलिए हो सके तो घर, परिवार के आसपास मित्रों से, पड़ोस में रिश्तेदारों से परिवार में अन्य लोगों से और कोई बुजुर्ग हैं तो समय निकाल कर उनसे संवाद अवश्य करना चाहिए। सबके पास व्यस्तता है। उन्हीं में से कुछ पल चुराने होते हैं। फिर बिना किसी शक के किसी को भी अच्छा महसूस होगा। थकान और चेहरे की उदासी चंद पलों में गायब हो सकती है।