हम अक्सर शहर-दर-शहर घूमते रहते हैं। कोई शहर हमें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता, तो कोई इतना प्यारा लगता है कि वहां से जाने का मन ही नहीं करता। कोई शहर हमें तुरंत भगा देता है, यानी हम वहां से चले जाना चाहते हैं तो कोई इसी अर्थ में बार-बार रुकने का आग्रह करता है। क्या कभी हमने सोचा है कि आखिर क्या है इन शहरों में जो बार-बार हमारे भीतर उथल-पुथल पैदा करते हैं।

वास्तव में हर शहर की अपनी एक तासीर होती है। जिस शहर से हमारे भीतर की संवदेना के तार जुड़ जाते हैं, वह शहर हमें अच्छा और भला लगने लगता है। संवेदना के तार आखिर क्या बला हैं? ये मन की वे कोमल भावनाएं होती हैं, जो हमारे दिल को दूसरों के दिलों से जोड़ती हैं। कई बार हमारे साथ ऐसा भी होता है कि किसी अजनबी शहर में गए, तो वहां जाते ही हमारे साथ कुछ ऐसा घटित हो गया, जिसे नहीं होना चाहिए था। हमने बहुत उम्मीद और विश्वास के साथ उस शहर में प्रवेश किया था, लेकिन किसी एक घटना ने हमारी आशाओं पर पानी फेर दिया, हमारे विश्वास को तोड़ दिया। हम उस शहर के लोगों पर विश्वास करना छोड़कर उस शहर को ही छोड़ देते हैं।

हमारे दिल में जगह बनाने लगता है रोजी-रोटी वाला शहर

दूसरी ओर, कुछ शहर ऐसे होते हैं, जहां हमें हर जगह अपनापन मिलता है। वहां हर कोई अपना ही लगता है। अजनबी भी हमसे अपनों की तरह बात करते हैं। चारों ओर मुस्कराते चेहरे हमें भले लगते हैं। ऐसे में भला कौन चाहेगा, उस शहर को छोड़ना? पर सभी शहरों के साथ एक ही बात है। वह यही कि एक निश्चित समय बाद हमें उस शहर को छोड़कर जाना ही होता है, क्योंकि हमें भीतर से हमारा शहर पुकारता है। वास्तव में अपना शहर हमारे भीतर कुलांचें मारता है। हमें गोद में लेकर दुलारता है। बरसों से इसी दुलार को पाकर हम बड़े हुए। यह हमें अपनों की याद दिलाता है। एक उम्र के बाद हम दूसरे शहर में जाते हैं, जहां हमारी रोजी-रोटी जुड़ी होती है। पहले तो हमारे अतीत का शहर हमारे भीतर होता है, जिसे हम निकाल नहीं पाते। धीरे-धीरे हमारी रोजी-रोटी वाला शहर हमारे दिल में जगह बनाने लगता है। कुछ बरस बाद हम याद करते हैं कि इस शहर ने हमें क्या-क्या दिया। क्या लेकर आए थे इस शहर में और अब हमारे पास क्या नहीं है! एक संतुष्टि का भाव हमारे भीतर होता है।

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इसके बाद हम तुलना करने लगते हैं अपने बचपन के शहर से। बचपन का शहर हमारे भीतर कहीं छिपा हुआ होता है। वह हमारे रोजी-रोटी वाले शहर से किसी तरह की प्रतिस्पर्धा नहीं करता। वह जानता है कि मैंने जिसे पाला-पोसा, जिसका लालन-पालन किया, उसे इस शहर ने खड़ा होना सिखाया। मैं इसका अतीत हूं, तो यह उसका वर्तमान है। इस तरह व्यक्ति के भीतर कई शहर समाए होते हैं। सब मिलजुल कर ऐसे रहते हैं, मानों एक ही शहर में रह रहे हों। कई शहर मिलकर एक महानगर की शक्ल ले लेते हैं।

अपना शहर छोड़ना एक त्रासद स्थिति है। पर दूसरा शहर चुनौतियों के साथ हमें बुलाता रहता है। अपने शहर में चुनौतियां नहीं होतीं। वहां के सारे काम हमारी जगहों और लोगों की पहचान के कारण आसानी से हो जाते हैं। दूसरा शहर हमें अपनाने से पहले परीक्षा लेता है। हमें अपने अनुकूल बनाता है। इसलिए नौकरी पर दूसरे शहर जाते ही दुश्वारियों का दौर शुरू हो जाता है। कदम-कदम पर परेशानियां हमारा इंतजार करती होती हैं। ये परेशानियां हमारी परीक्षाएं होती हैं, जिन्हें हमें पास करना ही होता है। यह दूसरा शहर हमें चैन से बैठने भी नहीं देता। एक के बाद एक बाधाएं आती ही रहती हैं।

सेवानिवृत्ति के बाद वाला यह शहर काफी सुकून देने वाला होता है

शहरों में कौन-सा शहर प्यारा है, अगर इसकी सूची बनाएं, तो हमारे बचपन के शहर से कहीं ज्यादा हमें चुनौतियां देने वाला शहर प्यारा लगता है। यही शहर है, जिसने जीना सिखाया। यही शहर है, जिसने यह बताया कि भविष्य की अन्य चुनौतियों से भी तुम पार पाओगे। जीवन के तीसरे पड़ाव पर एक शहर और होता है, जहां हम अपने परिवार के साथ रहते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद वाला यह शहर काफी सुकून देने वाला होता है। इस शहर तक पहुंचते-पहुंचते शरीर साथ देना छोड़ देता है। अब वैसी भाग-दौड़ नहीं हो पाती। कई कार्यों के लिए बच्चों का सहारा लेना होता है। यह वृद्धावस्था का शहर होता है। जहां सुकून होता है, अपनों का साथ होता है। हम अपनों के बीच रहते हैं, अपनापन बांटते हैं। इस तरह से जीवन के तीन शहर हुए। पहला दुलारने वाला, दूसरा रोजी-रोटी देने वाला और तीसरा सुकून देने वाला। इंसान की जिंदगी इन तीनों शहरों में सिमट कर रह जाती है।

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चुनौतियां देने वाले शहर सदैव याद रखे जाते हैं। हम याद करें कि कौन-सा शहर हमें याद आता है। वही, जहां हम पग-पग पर मुश्किलें झेलते थे। आखिरी शहर जीवन के आखिरी पड़ाव की तरह होता है, जहां केवल निवृत्ति की बातें होती हैं। तब अपनों का घेरा बहुत बड़ा हो जाता है। पर अपनेपन का घेरा छोटा हो जाता है। पर्यटन वाले शहर क्षणिक याद आते हैं। बचपन का शहर कुलांचे मारता रह जाता है, लेकिन हमें गढ़ने वाला शहर हमारे भीतर ही बस जाता है। यही है शहर और शहरों की तासीर और उसमें गुंथे संवेदना के तार।