आजादी और मुक्ति का सच्चा अर्थ आज हमारे कहे-लिखे हुए केवल बोलचाल के शब्द ही हैं या वास्तविक स्वरूप में हमारे जन जीवन और अंतर्मन में जीवंत रूप से रचे-बसे सहज आपसी व्यवहार हैं? आजादी का मूल अर्थ भयमुक्त होना ही हो सकता है। जब तक मन निर्भय न हो, स्वाधीनता से सहज साक्षात्कार हो ही नहीं सकता। जो भयभीत होता है, वह स्वाधीनता के दर्शन के बारे कभी भी गहराई से सोच समझ ही नहीं पाता है।

स्वाधीनता और स्वावलंबन एक तरह से आपस में इस तरह घुले मिले हैं कि दोनों को समझे बिना या आत्मसात किए बिना इनकी जीवनी शक्ति को जाना नहीं जा सकता है। इस जगत में मनुष्य के अलावा बाकी सब स्वावलंबी है। इसीलिए मानवेतर सारे जीव-जंतुओं के सामने स्वाधीनता का सवाल कभी आया ही नहीं। मनुष्य ने अन्य मनुष्यों को पराधीन बनाया, परावलंबी और यंत्रवत भी बनाया। साथ ही साथ खुद भी परावलंबी बना और यंत्रवत बनने या यंत्र का आदी बनने की राह पर चल पड़ा है।

जो आत्मविश्वासी हैं, वे आजाद भी है

आधुनिक मनुष्य ने ही अपने मन में बसे लालच, लाचारी या भय के कारण स्वाधीनता की जगह पराधीनता का विस्तार करने वालों की गुलामी को भयभीत और मन से लाचार होकर अपनी स्वाधीनता को अपने ही हाथों खोकर पराधीनता को अपनाया। इस दृष्टि से समझें तो जो मनुष्य आत्मविश्वास से भरा है, वह स्वाधीन है और जो खुद पर भी विश्वास नहीं करता और भयग्रस्त रहता है, वह स्वाधीनता का अर्थ और मर्म नहीं जान सकता है।

स्वाधीनता को समझने से पहले यह समझना आवश्यक है कि मनुष्य पराधीनता को क्यों और कैसे स्वीकार या आत्मसात कर लेता है। इतनी लंबी मानव सभ्यता के इतिहास में स्वाधीनता के लिए तरह-तरह के संघर्ष हुए, कुर्बानियां दी गईं, जो आज भी कई रूप में जारी हैं। मानव मन में परावलंबन और मानसिक गुलामी की जड़ें भी शायद इतनी गहरी रची-बसी हैं कि मानव समाज में कहीं न कहीं किसी न किसी तरह की आजादी के लिए आज भी कहीं कोई मनुष्य या उसका समूह संघर्ष करता रहता है।

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स्वाधीनता इतनी व्यापक और सहज अवधारणा है जो समझ तो जल्दी आ जाती है और अपने लिए हम चाहते भी हैं, पर अन्य के साथ व्यवहार करते समय हम कई किंतु-परंतु लगा लेते हैं। यहां आकर हम सिद्धांत और व्यवहार में उलझ जाते हैं। शायद यह हम सबके आपसी विश्वास और आत्मविश्वास में कमी के कारण या सही आकलन न कर पाने का दोष भी हो सकता है।

दरअसल, स्वाधीनता जीने का एक ढंग है, जिसमें आचरणगत मर्यादा और उत्तरदायित्व अंतर्निहित है। इसकी मौलिक संकल्पना के मूल में हवा और प्रकाश की तरह सहज, सरल स्वाधीनता की उपलब्धता है। पर ऐसा हम आज तक सुनिश्चित कर नहीं पाए और नतीजतन हम सबने स्वाधीनता में कई किंतु-परंतु लगाकर इसे व्यवस्थागत अवधारणा में बदल डाला है।

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अब दुनियाभर की व्यवस्थाओं की अपनी-अपनी स्वाधीनता को लेकर व्याख्याएं हैं, जो स्वाधीनता की लक्ष्मणरेखा खींच कर इसकी मूल अवधारणा को ही बदल देती है। खुला मन, खुली सोच और समझ एक तरह से स्वाधीनता के लिए प्राणवायु की तरह हैं। लोकतांत्रिक समाज और व्यवस्था की आधारभूमि पर स्वाधीनता का स्वरूप निखरता है। यह कोई दिखावटी गहना नहीं है, बल्कि जीवन की जीवनी शक्ति या प्राणवायु है।

भयग्रस्त मन स्वाधीनता की राह नहीं बनाता। मन का भय पराधीनता को ही लाचार भाव से जीवन की नियति बना बैठता है। हम कह सकते हैं कि स्वाधीनता भय के खिलाफ खुला विद्रोह है। मानव इतिहास गवाह है कि गुलामी का प्रतिरोध बहुत धीरे-धीरे होता है। इस धीमी गति का कारण असुरक्षित मन:स्थिति है। हमारा स्वानुशासन स्वाधीनता का विस्तार करता है। स्वाधीनता अपने आप में सीमातीत और बंधनमुक्त अवधारणा है। फिर भी व्यक्ति, समाज और व्यवस्था के आचरण में अनुशासन की मर्यादा का बिंदु आ जाता है। स्वानुशासन स्वयंस्फूर्त होता है, जबकि अनुशासन व्यवस्थागत संकल्पना है।

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स्वाधीनता का अर्थ मनमर्जी और मनमानी से एकदम भिन्न है। स्वाधीनता मूल रूप से स्वाभिमान से जुड़ा विचार है जो व्यक्ति और समाज को निर्भय जीवन और सुरक्षित वातावरण बनाए रखने की आधारभूमि प्रदान करता है। एक सवाल यह भी उठता है कि ऐसा कैसे होता है कि मनुष्य ही मनुष्यों को पराधीन करने की योजना या रणनीति बनाकर मनुष्यों में भय फैलाता है और लोग लाचार या भयग्रस्त हो पराधीन हो जाते हैं।

पराधीनता के खिलाफ अलख जगाने का काम भी मनुष्य समूह ही करते हुए स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने की शुरुआत करते हैं। पराधीनता की अति स्वाधीनता की भूख जगाती है और स्वाधीनता में अनमनापन, उदासी, लापरवाही पराधीनता को जन्म देती है। इस तरह स्वाधीनता यानी सदैव चौकस और संवेदनशील रहते हुए भयमुक्त जीवन है। यह मनुष्य की सभ्यता का मूल है और पराधीनता मानवीय असमर्थता की पराकाष्ठा। स्वाधीनता मानव मन की पूर्णता की प्रखर अभिव्यक्ति है। इससे परिपूर्ण मानव सभ्यता मानव-ऊर्जा का वैसा ही सकारात्मक स्वरूप है, जैसा प्राणवायु और सूर्यप्रकाश का प्राकृत स्वरूप होता है।

निर्भयता मन की स्वाधीन और प्राकृत स्थिति है। निर्भय मन ही निर्भय समाज और सभ्यता को आगे बढ़ाता है। भयभीत मनुष्य या समाज स्वाधीनता की रक्षा नहीं कर सकते, पर स्वाधीनता का विचार मनुष्य मन के सारे भयों को दूर करने का द्वार खोलते हैं। स्वावलंबन हमें न केवल व्यक्ति के रूप में, बल्कि सामूहिक रूप से भी स्वाधीनता और स्वाभिमान के साथ जीते रहने की निरंतर ऊर्जा देता है। स्वाधीनता हमारी मूल प्रवृत्ति है और निर्भयता स्वाधीनता का मूल है।