ऐसा लगता है कि हमारे समाज में दहेज प्रथा लोगों की सोच में गहरे तक समाई हुई है। तमाम नियम-कानूनों के बावजूद इस कुरीति पर पूरी तरह अंकुश नहीं लग पा रहा है। पिछले दिनों एक विवाहिता की आग में झुलस कर हुई मौत की घटना ने भारतीय समाज के सामने एक बार फिर वही कड़वी सच्चाई सामने रखी कि दहेज जैसी प्रथा आज भी है और यह अब भी महिलाओं की जान ले रही है। दहेज से जुड़ी हत्या या उत्पीड़न की घटनाएं जटिल सामाजिक ढांचे का हिस्सा हैं, जो महिलाओं को पुरुषों के समान दर्जा देने के विरुद्ध एक परंपरा की तरह है। दहेज की समस्या पर गंभीर दृष्टि डालें, तो स्पष्ट होता है कि यह केवल कानून और पुलिस का मसला नहीं, बल्कि पूरे समाज की सोच एवं व्यवस्था से जुड़ा सवाल है।

राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, वर्ष 2022 में दहेज हत्या के छह हजार से अधिक मामले दर्ज हुए। यह संख्या वर्षों से लगभग स्थिर बनी हुई है। वर्ष 2017 से 2022 के बीच हर वर्ष औसतन सात हजार मामले दर्ज हुए हैं। यह उन मामलों की गिनती है जो पुलिस तक पहुंचे। वास्तव में यह संख्या कहीं अधिक हो सकती है, क्योंकि कई घटनाएं सामाजिक दबाव या पारिवारिक समझौतों के कारण दर्ज ही नहीं हो पाती हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की कुल संख्या भी भयावह है। वर्ष 2022 में देश भर में चार लाख से अधिक मामले दर्ज हुए। उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्य दहेज हत्याओं की संख्या में सबसे ऊपर हैं। ये आंकड़े केवल मृत्यु के हैं, उत्पीड़न और मानसिक हिंसा के मामले इनसे कहीं अधिक हैं।

दहेज को अपराध घोषित किए बीत गए छह दशक

भारत में दहेज को अपराध घोषित किए हुए छह दशक से अधिक समय बीत चुका है। दहेज निषेध अधिनियम 1961 के अंतर्गत दहेज देने, लेने या मांगने को प्रतिबंधित किया गया है। हाल ही में लागू नई भारतीय न्याय संहिता में भी इन्हें लगभग उसी रूप में शामिल किया गया है। दहेज हत्या में न्यूनतम सात वर्ष और अधिकतम आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान है। कागज पर व्यवस्था कठोर है, मगर व्यावहारिक स्थिति बेहद कमजोर है। सबसे बड़ी समस्या दोषसिद्धि की दर है। अदालतों में पहुंचने वाले मामलों में शायद ही एक तिहाई में दोष सिद्ध हो पाता है। अनेक अध्ययनों में दोषसिद्धि की दर बीस फीसद से भी नीचे पाई गई है। दिल्ली और बंगलुरु जैसे महानगरों के अध्ययनों में यह दर काफी कम दर्ज हुई है। इसका कारण यह नहीं कि मामले झूठे हैं, बल्कि साक्ष्य जुटाने और गवाही सुनिश्चित करने में पुलिस और अभियोजन विफल रहते हैं।

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दहेज से जुड़ी घटनाएं अधिकतर घरों के भीतर होती हैं और गवाह प्राय: परिवार के ही सदस्य होते हैं। पीड़िता की मृत्यु के बाद गवाही देने वाला अक्सर वही परिवार होता है, जिस पर सामाजिक दबाव और समझौते का बोझ रहता है। गवाह अदालत में पलट जाते हैं, गवाही कमजोर हो जाती है और अभियोजन विफल होता है। विश्व बैंक और अन्य संस्थाओं के अध्ययनों से स्पष्ट है कि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर इक्कीसवीं सदी के आरंभ तक भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 95 फीसद शादियों में दहेज दिया गया। यह परंपरा महिलाओं की स्थिति को गहरे स्तर पर कमजोर करती है, क्योंकि विवाह के अवसर पर परिवार को आर्थिक रूप से झुकना पड़ता है और विवाह के बाद महिला पर उत्पीड़न की तलवार लटकती रहती है।

कई बार पीड़िता के परिवार की न्याय की उम्मीद पड़ जाती है धुंधली

इस प्रथा का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी उतना ही गंभीर है। विवाह से पहले ही लड़की के माता-पिता तनाव में रहते हैं। कई बार उन्हें कर्ज लेना पड़ता है, जमीन-जायदाद बेचनी पड़ती है। वर्षों तक कर्ज चुकाना पड़ता है। विवाह के बाद यदि दहेज की उम्मीद पूरी न हो, तो बहू को अपमान एवं हिंसा झेलनी पड़ती है। कभी-कभी मामला आत्महत्या या हत्या तक पहुंच जाता है। महिलाओं का मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक स्थिति और पारिवारिक संतुलन इस कुप्रथा से प्रभावित होते हैं। ऐसे मामलों में परिवार प्राथमिकी दर्ज करने में ही हिचकिचाता है, क्योंकि पुलिस अक्सर संवेदनशीलता नहीं दिखाती। यदि प्राथमिकी दर्ज हो भी जाए, तो जांच में देरी होती है, घटनास्थल का वैज्ञानिक निरीक्षण नहीं होता, चिकित्सीय साक्ष्य सही समय पर एकत्र नहीं किए जाते। गवाही में देरी होती है, तारीख पर तारीख मिलती है। पीड़ित पक्ष थक कर हार मान जाता है। गवाह पलट जाते हैं, समझौते हो जाते हैं और अंतत: दोषी छूट जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में पीड़िता के परिवार की न्याय की उम्मीद धुंधली पड़ जाती है।

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कुछ राज्यों में दहेज निषेध अधिनियम को संशोधित करने के प्रयास हुए हैं। उदाहरण के लिए हाल ही में केरल सरकार ने यह प्रस्ताव रखा कि दहेज देने को अपराध न माना जाए, बल्कि केवल मांगने और लेने वालों को कठोर दंड दिया जाए। तर्क यह है कि देने वाले प्राय: दबाव में होते हैं और वे भी कानूनी दायरे में आ जाते हैं। यदि देने वाले पर से अपराध का बोझ हटाया जाए, तो वे अधिक साहस के साथ पुलिस तक पहुंच सकते हैं। हालांकि इस प्रस्ताव पर बहस भी है कि कहीं यह उपहार के नाम पर दहेज को वैध ठहराने का रास्ता न बन जाए।

केवल कठोर कानून बनाने से नहीं होगा समाधान

समाधान केवल कठोर कानून बनाने से नहीं होगा। इसके लिए बहुआयामी रणनीति की आवश्यकता है। सबसे पहले जांच प्रक्रिया को वैज्ञानिक और समयबद्ध बनाना होगा। हर दहेज हत्या को विशेष रूप से दर्ज कर समय पर पोस्टमार्टम, साक्ष्य संकलन और गवाही सुनिश्चित करनी होगी। पुलिस और अभियोजन को जवाबदेह बनाने के लिए समय-सीमा तय करनी होगी। विशेष न्यायालयों का गठन किया जाए, जहां ऐसे मामलों की त्वरित सुनवाई हो। विवाह पंजीकरण और उपहारों का लिखित और डिजिटल रेकार्ड बनाया जाए, ताकि बाद में यह साबित किया जा सके कि कौन-से उपहार स्वेच्छा से दिए गए और कौन से दहेज की मांग पर। इससे मुकदमों में साक्ष्य की समस्या कम होगी।

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सबसे गहरी जड़ें तो समाज की मानसिकता में हैं। जब तक यह सोच बनी रहेगी कि बेटा परिवार का सहारा है और बेटी बोझ, तब तक दहेज की मांग बनी रहेगी। इसके लिए शिक्षा व्यवस्था में लैंगिक समानता और महिला अधिकारों को केंद्रीय विषय बनाना होगा। बेटियों को संपत्ति का वास्तविक हिस्सा दिलाना होगा। जब बेटियां संपत्ति और रोजगार में सशक्त होंगी, तभी विवाह बाजार में उनका मूल्य दहेज से नहीं, बल्कि उनकी स्वायत्तता और योग्यता से तय होगा। सामाजिक स्तर पर भी आंदोलन की आवश्यकता है। यदि विवाह को दिखावे और खर्च का मंच न बनाकर सादगी और समानता का उत्सव बनाया जाए, तो दहेज की मांग स्वयं कमजोर होगी। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी कि बेटियां समान अधिकार और सम्मान की हकदार हैं, तब तक दहेज प्रथा का अंत संभव नहीं है। हर परिवार को यह संकल्प लेना होगा कि वे न तो दहेज लेंगे और न देंगे। तभी हम एक ऐसा समाज बना पाएंगे, जहां विवाह प्रेम और सम्मान का बंधन होगा, न कि आर्थिक लेन-देन का सौदा। तभी भविष्य में बेटियां भयमुक्त जीवन जी सकेंगी।