यह बात अक्सर कही जाती है कि प्रेम वह अनुभूति है, जिसे पाने के बाद हम ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। जब कोई हमारे जीवन में आता है और उसके साथ होने पर हमारे मन में कृतज्ञता की भावना नहीं उठती, तो यह सोचना चाहिए कि वह प्रेम है भी या नहीं। अगर किसी व्यक्ति के साथ होने पर हमें ऐसा न लगे कि इस क्षण के लिए ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए, तो संभव है कि वह प्रेम न होकर केवल आदत, मोह या कोई क्षणिक आकर्षण हो। प्रेम वह है, जो आत्मा को शांत करता है, दिल को गहराई से छूता है और जीवन के प्रति आभार से भर देता है। कई बार हम जिसे प्रेम समझ बैठते हैं, वह केवल किसी की उपस्थिति का मोह होता है। एक ऐसा मोह जो अक्सर प्रेम से भी अधिक जटिल और खतरनाक होता है, क्योंकि मोह जब जड़ें जमा लेता है, तो उससे छुटकारा पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। मोह में व्यक्ति अपने ही भीतर उलझकर रह जाता है, जबकि प्रेम मन को मुक्त करता है।
प्रेम किसी पर निर्भरता का नाम नहीं है, बल्कि स्वतंत्रता का अनुभव है। प्रेम हमें मजबूत बनाता है, कमजोर नहीं। यह सही और गलत का भेद भूल जाने का नाम नहीं है, बल्कि सही रास्ते पर अडिग रहने की क्षमता का एक नाम है। अगर प्रेम के नाम पर हम अपने सिद्धांतों से समझौता करने लगें, सही और गलत के अंतर को अनदेखा करने लगें, केवल किसी के साथ बने रहने के लिए अपनी आत्मा की आवाज को दबा दें, तो वह प्रेम नहीं, केवल कमजोरी है। सच्चा प्रेम वह नहीं जो हमें अपने मूल्यों से दूर ले जाए, बल्कि वह है जो हमें और अधिक सशक्त करे, अपने सत्य पर टिकाए रखे, चाहे परिस्थितियां कितनी भी कठिन क्यों न हों। जीवन में किसी भी रिश्ते के कारण स्वयं को नहीं खोना चाहिए। अपने सिद्धांतों, अपनी सच्चाई और अपने आत्म-सम्मान पर अडिग रहने का अभ्यास करना चाहिए।
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कभी भी किसी दूसरे के कारण अपनी आत्मा को दुखी करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि आखिर जब हम अपने सिद्धांतों को ताक पर रख देते हैं, तो सबसे अधिक पीड़ा खुद को ही होती है। एक दिन ऐसा आता है, जब व्यक्ति खुद को कठघरे में खड़ा पाता है, यह सोचकर कि दूसरों को खुश करने की चाह में उसने अपने ही अस्तित्व के साथ कितना बड़ा अन्याय किया। प्रेम का वास्तविक अर्थ है- अपने भीतर के सत्य से जुड़े रहना, दूसरों के प्रति करुणा और सच्ची भावना रखना। इसका अर्थ यह नहीं कि हम किसी के गलत कार्यों को भी सही ठहराएं या अपने जीवन के रास्ते से भटक जाएं। प्रेम में होने का अर्थ है कि हम ईमानदार और स्पष्ट बने रहें, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो। यह केवल पाने का नाम नहीं है; यह समझने, स्वीकार करने और कभी-कभी त्याग करने का नाम भी है, लेकिन यह त्याग ऐसा न हो, जिसमें हमारी आत्मा कुचल जाए या सच्चाई खो जाए। अगर किसी के साथ रहने की कीमत अपने मूल्यों से समझौता करने के रूप में चुकानी पड़ रही है, तो रुककर खुद से प्रश्न करना चाहिए कि क्या यह वास्तव में प्रेम है या केवल आदत, मोह या भावनात्मक निर्भरता?
आदतें बदल जाती हैं, मोह टूट जाता है, लेकिन इन्हें प्रेम समझकर व्यक्ति जीवन के निर्णय लेने लगे, तो परिणाम अक्सर गहरी पीड़ा और अकेलेपन में बदल जाता है। प्रेम वह ऊर्जा है जो भीतर जीवन का उजाला भरती है, जबकि मोह, आदत या निर्भरता व्यक्ति को खालीपन की ओर धकेलते हैं। इसलिए, चाहे प्रेम में कितनी भी कठिनाइयां क्यों न हों, अपने सच्चे मार्ग से विचलित न हों। अपनी आत्मा को इतना मजबूत बनाना चाहिए कि परिस्थितियों का बहाव बहाकर न ले जाए।
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अपने सिद्धांतों से समझौता करने का फल आखिरकार पछतावे के रूप में ही मिलता है। प्रेम में डूब कर स्वयं को नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि वही लोग सबसे अधिक दुखी होते हैं जो खुद को खो देते हैं। जब प्रेम समाप्त होता है, तो उनके पास न प्रेम बचता है और न स्वयं की पहचान। किसी भी रिश्ते में अपनी गरिमा, पहचान और अपने आत्म-सम्मान को सुरक्षित रखना उतना ही आवश्यक है, जितना प्रेम का होना। सच्चा प्रेम गिराएगा नहीं, वह उठाएगा, संपूर्ण बनाएगा, भीतर छिपी संभावनाओं को उजागर करेगा। अगर कोई संबंध सत्य से दूर कर रहा है, चरित्र को कमजोर बना रहा है या आत्मा को चोट पहुंचा रहा है, तो उसे प्रेम कहना प्रेम का अपमान होगा।
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अपने जीवन में प्रेम को स्थान देना चाहिए, लेकिन खुद को खोकर नहीं, अपने आप को और अधिक जानकर, अधिक समझकर, क्योंकि जब हम अपने साथ सच्चे होते हैं, तभी दूसरों के साथ भी सच्चे हो पाते हैं। प्रेम का असली स्वरूप वही है, जिसमें दोनों व्यक्ति अपनी-अपनी स्वतंत्रता, गरिमा और सत्य को सम्मान देते हुए एक-दूसरे के साथ चलते हैं। इस भाव का सार यही है कि हम अपने भीतर प्रकाश बनाए रखें। ऐसा प्रकाश, जो हमें भी दिखाए और जिसे दूसरे के साथ बांटा भी जा सके। प्रेम वह यात्रा है, जिसमें दो आत्माएं एक-दूसरे का हाथ पकड़कर आगे बढ़ती हैं, पर अपनी पहचान खोए बिना, अपने सत्य को छोड़े बिना। यही प्रेम की परिपक्वता है, इसका सौंदर्य है।
