यह एक विचित्र विडंबना है कि पिछले कई दशकों से लगातार स्त्री-पुरुष अनुपात में बढ़ती खाई को लेकर चिंता जताई जाती रही है। इसे रोकने के लिए तमाम जागरूकता अभियानों से लेकर सरकारी कार्यक्रम भी चलाए गए। मगर आज भी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की कम या घटती संख्या के प्रति चिंता का स्तर एक ही जगह थम गया लगता है। हालत यह है कि इसके एक मुख्य कारण के रूप में भ्रूण हत्या पर चर्चा तो होती है, उसे रोकने के लिए नियम-कायदे भी बनाए जाते हैं, लेकिन अब भी इसका सहारा लेकर बेटियों को दुनिया में आने से पहले ही रोक देते हैं।
भारत में भ्रूण हत्या मानो आम बात हो चली है। जन्म के बाद लड़कियों को लावारिस छोड़ने अथवा झाड़ियों में फेंकने की भी घटनाएं आए दिन सामने आती रहती हैं। तमाम प्रयासों के बाद भी भ्रूण हत्या और नवजातों की मौत को रोका नहीं जा सका है। जबकि देश में भ्रूण हत्या से लिंगानुपात लगातार बिगड़ रहा है, जिससे आने वाले समय में सामाजिक असंतुलन बढ़ता ही जाएगा। भ्रूण हत्या ऐसी बुराई है, जिसके आंकड़े न केवल डरावने हैं, बल्कि किसी भी संवेदनशील व्यक्ति और समाज को झकझोरते भी हैं।
भारत में कम से कम हुईं 90 लाख भ्रूण हत्या
सरकार के आंकड़ों के आधार पर ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ की एक रपट कहती है कि वर्ष 2000 से 2019 तक भारत में कम से कम 90 लाख भ्रूण हत्या हुईं। इनमें से 86.7 फीसद हिंदुओं (80 फीसद आबादी), 4.9 प्रतिशत सिखों (1.7 फीसद आबादी) और 6.6 फीसद मुसलिमों (14 फीसद आबादी) में दर्ज की गईं। हालांकि बेटे को वरीयता देने में अब कमी आई है, फिर भी देश में गर्भपात जारी हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, 0-6 वर्ष आयु वर्ग में प्रति एक हजार लड़कों पर 914 लड़कियां थीं। जबकि वर्ष 1991 में यह अनुपात 945 था। भारत में लिंग अनुपात की कोई अच्छी स्थिति नहीं है। स्पष्ट है कि यह भ्रूण हत्या की ओर ही इशारा करती है। लांसेट की रपट कहती है कि हर वर्ष 2.39 लाख अतिरिक्त बालिका मृत्यु (5 वर्ष से कम) दर्ज की जाती हैं, जो मुख्य रूप से उपेक्षा और कुपोषण के कारण होती हैं।
वहीं राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा बताता है कि देश में वर्ष 2022 में शिशु हत्या के 63 मामले दर्ज किए गए, जिनमें महाराष्ट्र में सबसे अधिक 25 मामले थे। कन्या शिशु हत्या के विशिष्ट आंकड़े अलग से नहीं दिए गए। यह संख्या वास्तविकता से बहुत कम हो सकती है, क्योंकि कई मामले उपेक्षा के कारण भुखमरी बता कर दर्ज नहीं होते। असल में कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़े अनुमान पर आधारित हैं, क्योंकि गर्भपात के सभी मामले प्राय: दर्ज नहीं होते। दूसरी ओर नवजात की मौत के मामले भी कम दर्ज होते हैं, क्योंकि इन्हें अक्सर मृत जन्म या प्राकृतिक मृत्यु के रूप में दिखाया जाता है। हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों में लिंग अनुपात में भारी असंतुलन है। यह स्थिति गंभीर है। उत्तराखंड में 2019 के दौरान 132 गांवों में तीन महीने तक एक भी कन्या का जन्म नहीं हुआ।
लड़कियों को जन्म से पहले मारने की प्रथा अब भी प्रचलित
सरकार बाकायदा कानून पारित कर भ्रूण परीक्षण पर प्रतिबंध लगा चुकी है। इसके बावजूद हालात नहीं बदले। देश में हजारों क्लीनिक ऐसे हैं, जहां आज भी भ्रूण परीक्षण चोरी-छिपे चल रहा है। राज्य सरकारों के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि सभी क्लीनिकों पर नजर रखी जा सके। इसके लिए आम नागरिकों को जागरूक होना होगा और सरकार की मदद करनी होगी। उधर, लड़कियों को जन्म से पहले मारने की प्रथा अब वहां भी प्रचलित हो रही है, जो अब तक इससे बचे हुए थे। जैसी खबरें आ रही हैं, अब जम्मू-कश्मीर में भी स्थिति चिंताजनक है। वहां का श्रीनगर शहर पंजाब, हरियाणा और उत्तराखंड की राह पर है। ऐसी ही स्थिति और भी कई शहरों की बन रही है।
लड़कियों के प्रति इस नकारात्मक सोच के गंभीर सामाजिक परिणाम हो सकते हैं। यह बेहद चिंता का विषय है। बार-बार गर्भपात से स्त्रियों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। यदि लड़कियों की संख्या इसी तरह घटती रही, तो आगे चल कर महिलाओं के खिलाफ हिंसक घटनाएं बढ़ने का अंदेशा है। विवाह के लिए उनका अपहरण किया जाएगा, उनकी इज्जत पर हमले होंगे। ऐसे में यह एक गंभीर स्थिति होगी। कुल मिला कर लड़कियों की कम संख्या उनके सम्मानजनक जीवन जीने के अवसरों को कम कर देगी और उनसे जुड़ी कई कुप्रथाओं को भी बढ़ावा देगी।
वहीं कई सामाजिक अवधारणाओं के कारण कई परिवार आज भी महिलाओं पर लड़के को जन्म देने का दबाव डालते हैं, ताकि वह वंश का नाम आगे बढ़ा सके और घर का कमाऊ पूत बन सके। असल में एक लड़की का संघर्ष उसी दिन शुरू हो जाता है, जब वह मां के गर्भ में आती है। यह संघर्ष उसके जीवन के एक बड़े हिस्से को निगल जाता है, भले ही उसे इस दुनिया में जीने की इजाजत क्यों न हो। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि कन्या भ्रूण हत्या अब किसी दायरे में सिमटी नहीं रह गई है। शहरी क्षेत्रों और महानगरों में रहने वाले अति आधुनिक और शिक्षित लोग भी गर्भ में ही बालिकाओं की पहचान करा कर उसे खत्म करने में पीछे नहीं हैं। यह बेहद ही दुखद स्थिति है।
युवाओं को विवाह के लिए लड़कियां नहीं मिल रही
लड़कियों की संख्या घटने का एक कारण यह भी है कि सरकार के जनसंख्या नियंत्रण अभियानों में कई कमियां रही हैं। आंध्र प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में सरकार ने दो से अधिक बच्चों वाले माता-पिता को कुछ अधिकारों से वंचित कर दिया है। जैसे, तीन बच्चों की मां को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। यदि वह सरकारी कर्मचारी है, तो कई तरह की सुविधाएं नहीं मिलेंगी। इसका सीधा असर महिलाओं के प्रति सामाजिक धारणा और संकीर्ण होने के रूप में सामने आता है। यह दुखद सच है कि लड़कियों के अनुपात में गिरावट के कारण कई राज्यों में युवाओं को विवाह के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं। ऐसी खबरें आम रही हैं, जिनमें कई गरीब इलाकों के निर्धन परिवारों की लड़कियों को खरीद कर शादी करने के बारे में चिंता जताई जाती है। दलालों के जरिए खरीद-फरोख्त का यह सिलसिला दिनों-दिन बढ़ रहा है। यह निराशाजनक है कि इसे रोकने के लिए किसी भी स्तर पर ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा है।
दवाओं के दुरुपयोग की समस्या, महिलाओं के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लेते लोग
एक सामाजिक अपराध के रूप में भ्रूण हत्या न केवल बेटियों के जीवन के लिए खतरा है, बल्कि समाज के संतुलन को भी बिगाड़ रहा है। इसे रोकने के लिए हर परिवार को जागरूक करना होगा, ताकि वे बेटियों को समान अधिकार और सुरक्षा देने की अहमियत को समझ सकें। हमें हर घर तक यह संदेश पहुंचाना होगा कि बेटियां बोझ नहीं, बल्कि देश और समाज की ताकत हैं। हमें उनके जन्म का उत्सव मनाना होगा और उनके शिक्षा और स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखना होगा। कोई दोराय नहीं कि भ्रूण हत्या से लिंगानुपात बिगड़ रहा है, जिससे आने वाले समय में सामाजिक असंतुलन बढ़ जाएगा। इसके लिए जरूरी है कि कन्या शिशु का स्वागत करें और उनका पालन-पोषण तथा शिक्षा सुनिश्चित करें। इस तरह की सोच से ही हम समाज में बदलाव ला सकते हैं। हमें इस दिशा में एकजुट होकर काम करना होगा, ताकि हर बेटी सुरक्षित माहौल में पल कर आगे बढ़ सके।