दिखावे के दौर में कहीं न्यूनतमवाद भी है, जो एक जीवनशैली है। यह सादगी, संयम और भौतिक वस्तुओं की न्यूनतम आवश्यकता की बात करती है। यह विचारधारा कहती है कि कम चीजों में भी सच्चा सुख है और जब हम अनावश्यक वस्तुओं, लालसाओं और दिखावे से खुद को दूर करते हैं, तभी हम भीतर से पूर्ण हो पाते हैं। मगर आज की युवा पीढ़ी इस विचारधारा को अपनाने से कतरा रही है। उनके लिए न्यूनतमवाद केवल एक दार्शनिक आदर्श बनकर रह गया है, जिसे वे व्यवहार में लाना नहीं चाहते। आखिर ऐसा क्यों है?

वर्तमान समय का युवा एक नई दुनिया में जी रहा है। एक ऐसी दुनिया, जो विकल्पों से भरी हुई है। सोशल मीडिया, ई-वाणिज्य, डिजिटल कारोबार और अनगिनत ब्रांड ने युवाओं को यह विश्वास दिला दिया है कि अधिक पाना ही जीवन की उपलब्धि है। आए दिन नया फोन, नया फैशन, नया चलन- यह सब उसकी मानसिकता का हिस्सा बन चुका है। ऐसे में जब कोई उसे कहता है कि ‘कम में जीना सीखो’, तो यह उसके लिए एक अव्यावहारिक सलाह लगती है।

जिस न्यूनतमवाद को एक समय बुद्धिजीवियों और आत्मिक संतुलन चाहने वालों ने अपनाया था, अब एक पुरानी सोच के रूप में देखा जाने लगा है। आज का युवा घूमना और अनुभव करना चाहता है, प्रयोग करना चाहता है और उन सभी चीजों का हिस्सा बनना चाहता है, जो उसकी उम्र एवं समय के साथ चल रही हैं।

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डिजिटल युग में युवा हर पल एक चमकती हुई दुनिया से जुड़ा है। सोशल मीडिया पर दूसरों की जिंदगी की झलकियां उसे अपनी जिंदगी से असंतुष्ट कर देती हैं। हर किसी के पास कुछ नया, आकर्षक और आधुनिक है। ऐसे में अगर वह खुद को सीमित रखता है, तो उसे डर होता है कि वह इस दौड़ में पीछे न रह जाए। यह डर युवाओं को हर बार कुछ और पाने की दिशा में धकेलता रहता है।

इसके अलावा, आधुनिक समाज में भौतिक वस्तुएं केवल जरूरत नहीं रहीं, बल्कि ‘स्टेटस सिंबल’ या हैसियत के दिखावे का प्रतीक बन चुकी हैं। कौन-सी कार चलाते हैं, किस ब्रांड के कपड़े पहनते हैं, कहां घूमने जाते हैं- इन सब बातों से एक व्यक्ति की कामयाबी तय होती है। ऐसे माहौल में जब एक युवा खुद को सीमित वस्तुओं तक ही बांधने की सोचता है, तो उसे लगता है कि वह अपनी पहचान को ही कमजोर कर रहा है।

उसे यह भय सताता है कि कहीं उसका सरल जीवन उसकी प्रगति में बाधा न बन जाए। न्यूनतमवाद को लेकर एक और समस्या यह भी है कि इसे अक्सर ‘त्याग’ या ‘संकोच’ के रूप में देखा जाता है। जबकि वास्तव में इसका मूल उद्देश्य संतुलन है। मगर आज की भाषा में त्याग का अर्थ अक्सर मजबूरी या गरीबी से जोड़ दिया जाता है। युवाओं को लगता है कि जब दुनिया सारी सुविधाएं दे रही है, तो वे क्यों पीछे रहें। क्यों वे उस विचार को अपनाएं, जो उन्हें कुछ न करने, न खरीदने, न चाहने की सलाह देता है? हालांकि, यह भी उतना ही सच है कि आज की युवा पीढ़ी मानसिक रूप से थकी हुई है।

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तेजी से बदलती दुनिया, करिअर की दौड़, सामाजिक दबाव और लगातार खुद को साबित करने की जरूरत ने उन्हें भीतर से असंतुलित कर दिया है। यही कारण है कि अब कई युवा ‘डिजिटल डिटाक्स’ यानी तकनीक से दूरी, ध्यान और एकाग्रता, ‘सोलो ट्रैवल’ यानी अकेले पर्यटन करना और टिकाऊ जीवनशैली जैसे विकल्पों की ओर मुड़ रहे हैं। वे सादगी की ओर लौटना तो चाहते हैं, लेकिन बिना ‘त्याग’ की भावना के। उन्हें एक ऐसी जीवनशैली चाहिए, जो उन्हें ‘कम में भी ज्यादा’ का अनुभव दे, पर वह मजबूरी न लगे।

न्यूनतमवाद को लेकर यह बदलाव भी ध्यान देने योग्य है कि अब इसका स्वरूप पारंपरिक नहीं रह गया है। आज के युवा ‘न्यूनतम’ का अर्थ केवल वस्तुओं से नहीं, बल्कि समय, ऊर्जा और भावनाओं की दिशा से भी जोड़ने लगे हैं। वे चाहते हैं कि उनके पास कम रिश्ते हों, पर सच्चे हों; कम काम हो, पर सार्थक हो; कम शोर हो, पर भीतर की शांति हो।

मगर ये सब तभी संभव होगा जब न्यूनतमवाद को एक जटिल जीवनशैली के रूप में प्रस्तुत न कर, मुक्त जीवन के रूप में दिखाया जाए। अगर समाज, शिक्षा और मीडिया इसे त्याग या अभाव के रूप में दिखाना बंद करें और इसकी प्रस्तुति को अधिक सकारात्मक, आकर्षक और व्यावहारिक बनाएं, तो शायद युवा भी इसे अपनाने में रुचि लें। जब तक यह विचार एक पुराने युग की सोच के रूप में प्रस्तुत होता रहेगा, तब तक यह युवा पीढ़ी के मन को छू नहीं पाएगा।

युवा किसी भी विचारधारा से डरते नहीं हैं, पर वे उसमें अपने जीवन का अर्थ देखना चाहते हैं। उन्हें समझाना होगा कि न्यूनतमवाद केवल वस्तुओं को त्यागने की बात नहीं करता, बल्कि यह उस मानसिक स्वतंत्रता की बात करता है जहां इंसान अनावश्यक से खुद को मुक्त कर पाता है। जब वे समझेंगे कि कम में भी बहुत कुछ होता है- समय, शांति, रिश्ते, ऊर्जा और आत्म-संतोष, तब वे इस दर्शन को अपनाने के लिए भी तैयार हो सकते हैं।

दरअसल, यह कहना गलत नहीं होगा कि आज के युवा न्यूनतमवाद को पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उन्हें दुनिया से काट देगा। पर सच्चाई यह है कि यह दर्शन उन्हें दुनिया से जुड़ने का एक गहरा, शांत और संतुलित तरीका दे सकता है। जरूरत है इस सोच को सही भाषा, सही माध्यम और सही संदर्भ में प्रस्तुत करने की। तभी युवा इसे अपनाने की ओर आकर्षित होंगे, और शायद उस सच्ची खुशी को पा सकें जो चीजों के ढेर में नहीं, बल्कि सादगी की गहराई में छिपी होती है।