पिछले सोलह वर्षों में पहली बार मानसून ने जल्द दस्तक दी। नौतपा के दौरान ठंडक ने हैरान किया, तो जून-जुलाई और अगस्त में बारिश ने बेहाल भी किया। बाढ़ और बादल फटने से मची तबाही की तस्वीरों के बीच उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में उजड़ते-ढहते गांवों की तस्वीरों ने बेहद परेशान किया। कृषि के साथ समूचे जन-जीवन पर असर पड़ा है। अभी भी बादल फटने या भारी बरसात से तबाही की खबरें आ रही हैं। नुकसान का सही-सही अंदाजा लगाने के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। विडंबना यह है कि कुछ वर्षों से समझ नहीं आ रहा है कि कब कौन-सी ऋतु चल रही है। उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक बीते आठ महीनों में कहीं बाढ़ से हाहाकार, तो कहीं लू ने पसीने छुड़ा दिए।

इस वर्ष जुलाई तक बाढ़, तूफान, भूस्खलन और बिजली गिरने संबंधी आंकड़ों के मुताबिक, 1626 लोगों की जान गई और 1.57 लाख हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि पर लगी फसल बर्बाद हो गई। वास्तविक आंकड़े ज्यादा ही होंगे। उत्तराखंड से केरल या हिमाचल से असम तक मौसम के बिगड़े मिजाज ने कोहराम मचाया। उत्तराखंड में धराली गांव हो, हिमाचल के मंडी की सिराज घाटी या फिर जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ का चशोटी, वहां बादल फटने से भारी जन-धन हानि हुई। अभी नुकसान के सही-सही और पूरे आंकड़े आने में थोड़ा समय लगेगा। इस साल कई जगहों से आई तबाही की तस्वीरों ने कई प्रभावित क्षेत्रों का नक्शा बिगाड़ दिया।

दरअसल, मई का लगभग पूरा महीना बारिश, आंधी, तूफान और प्राकृतिक आपदाओं के साथ बीता, तो जून-जुलाई और अगस्त में अब तक हुई भारी बारिश ने कहर बरपाया। मौसम का बदला मिजाज हैरान करने वाला जरूर है, लेकिन कारण सबको पता है। देश के कई क्षेत्रों में एक मई को पहले जैसी गर्मी नहीं पड़ी, बल्कि बीते दिसंबर में भी कड़ाके की ठंड गायब थी। बार-बार सक्रिय होते पश्चिमी विक्षोभ ऐसी असामान्य स्थितियों की वजह हैं। विशेषज्ञ इसका कारण जलवायु परिवर्तन बताते हैं। ऐसे में जल संरक्षण और कार्बन उत्सर्जन में कटौती अब जरूरी है।

कुल्लू में व्यास नदी का विकराल रूप, प्रचंड जलप्रलय के बगल में हनुमान मंदिर के अंदर अडिग खड़े रहे पुजारी, रोंगटे खड़े कर रहा Viral Video

भारी बारिश से वनस्पति और मिट्टी दोनों ही प्रभावित होती है। मिट्टी में नमी, बारिश से आती है जो लगने में साधारण लेकिन जटिल प्रक्रिया है। कभी एकाएक बाढ़ और बारिश, तो कभी भयंकर सूखे की स्थिति बेहद चिंताजनक है। वर्ष 1980-2020 के दौरान वैश्विक स्तर पर सूखे और बारिश से होने वाली घटनाओं के आंकड़े बताते हैं कि हर साल 0.24 से 1.03 फीसद हुई वृद्धि चिंताजनक है। यह कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन के चलते आया असंतुलन ही है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आइपीसीसी) की जारी एक रपट बेहद चिंताजनक है। इससे विकासशील देश सबसे ज्यादा और बुरी तरह प्रभावित हैं।

चिंताजनक यह है कि जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ कई अन्य दूसरी आपदाएं भी अगले दो दशकों में विश्व को घेरने वाली हैं। इससे स्वास्थ्य पर भी बुरा असर अभी से पड़ रहा है। अफसोस की बात है कि हम अब भी इससे बेखबर हैं। आइपीसीसी की रपट का पहला भाग भौतिक विज्ञान से संबंधित था। इसमें बता दिया गया है कि वर्ष 2040 से पहले ही वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि की संभावना है। यह असहज करने वाली स्थिति है।

एक सदी तक जीवाश्म ईंधन से अंधाधुंध ऊर्जा व भूमि के विषम उपयोग से तापमान में पहले ही, पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि चिंताजनक है। भीषण सूखा, अत्यधिक गर्मीं और बाढ़ से लाखों लोग खाद्य असुरक्षा और आजीविका के खतरे से जूझ रहे हैं। वर्ष 2008 से विनाशकारी बाढ़ और तूफान के कारण हर साल दो करोड़ से ज्यादा लोग घरों से पलायन को मजबूर हुए। परेशान करने वाली बात यह कि जलवायु परिवर्तन के कारण अफ्रीका में फसल उत्पादकता एक तिहाई घट गई है। वहीं दुनिया की आधी आबादी हर वर्ष कम से कम एक-दो महीने पानी की कमी झेलती है।

ऐसे संक्रामक रोग जो विषाणुओं और कीट-पतंगों से होते हैं, तेजी से फैल रहे हैं। मलेरिया, हैजा, डेंगू, जापानी इंसेफिलाइटिस, चिकनगुनिया का ये कारण बन रहे हैं। इससे हर साल औसतन सात लाख से अधिक लोगों की मौत होती है। पारिस्थितिकी तंत्र अलग नुकसान उठा रहा है। कई प्रजातियां या तो लुप्त हो चुकी हैं या हजारों जीव-जंतु अत्यधिक ऊंचाइयों पर चले गए हैं। बड़ा सवाल यह कि प्रकृति के साथ ज्यादतियों पर कब और कैसे रोक लगेगी।

धराली के बाद थराली में फटा बादल, एसडीएम आवास तक पहुंचा मलबा; अब तक एक की मौत

कुछ नए शोध बताते हैं कि उत्तर भारत में मानसून पूर्व के महीनों यानी मार्च से मई तक हवा की रफ्तार घटने से ठंडी हवाएं गर्म क्षेत्रों तक नहीं पहुंच पा रही हैं। वहीं दक्षिण भारत में तेज हवाएं नमी को बेहतर ढंग से फैला रही हैं। इससे हवा में बड़े पैमाने पर हो रहे बदलाव का पता तो चलता है, साथ ही यह भी कि मानसून की चाल कैसे प्रभावित हो रही है। वहीं इससे दो तरह के बदलाव साफ समझ आ रहे हैं। शहरी क्षेत्र ज्यादा तपते हैं, जबकि ग्रामीण उतने नहीं। शहरों में बढ़ी गर्मीं के पीछे कारण है। जनसंख्या घनत्व के अलावा कंक्रीट, उसमें ढले लोहे का सरिया, डामर और इमारतों की ठोस सतह धरती को न केवल ढक लेती है, बल्कि गर्मी को अवशोषित कर काफी समय तक सहेजे रखती है, जिससे देर रात तक औसत तापमान बढ़ा रहता है।

यह अंतर तापमान, आर्द्रता, हवा और वर्षा जैसे कारकों से हो सकता है। वहीं ग्रामीण इलाकों के तापमान और पर्यावरण में तुलनात्मक रूप से काफी अंतर साफ समझ आता है। ऐसा इसलिए भी कि शहरों की तुलना में गांव अधिक ठंडे महसूस होते हैं। वहां की हरियाली, खुलापन और कम जनसंख्या घनत्व ऐसे कारक हैं जो वायुमंडलीय तापमान को ज्यादा प्रभावित नहीं करते। वहीं गांवों में पेड़-पौधे, खेत और खुले स्थान अधिक होते हैं, जो तापमान को कम करने में सहयोगी होते हैं। यही कारक बारिश को भी प्रभावित करते हैं।

अब हम सभी देखते हैं कि एक ही शहर या इलाके में एक से दस किलोमीटर के क्षेत्रफल में वर्षा की तीव्रता और मात्रा में भिन्नता होती है। वास्तव में यही स्थानीय कारक बनते हैं जिसे पारंपरिक मौसम प्रणालियों से पता लगाना चुनौती भरा होता है। पता ही नहीं चलता कि कब कहां कितनी बारिश होगी। हाल के बरसों के ऐसे अनेक उदाहरण सामने आए, जिनमें एक तरफ 50 से 100 मिमी तक मूसलाधार बारिश होती है, तो दूसरी तरफ मौसम सूखा रहता है। मौसम विज्ञान की भाषा में यह दायरा एक से दस किलोमीटर तक होता है, जबकि स्थानीय स्तर पर वृहद होता है। यह दस से 100 किलोमीटर के क्षेत्र में वर्षा की भिन्नता दर्शाता है। यही कारण है कि पारंपरिक मौसम प्रणाली सही अनुमान नहीं लगा पाती।

अब समय आ गया है कि मनुष्य प्रकृति के साथ ज्यादती रोके। कार्बन उत्सर्जन कम करे। अपने सुख-चैन के लिए जल, जंगल और जमीन के साथ न्याय करें वरना प्रकृति सीधे अपना फैसला सुनाती है। उत्तराखंड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर और अन्य कई जगहों से मिली कुछ शुरुआती चेतावनी हमारे सामने है।