पिछले कुछ दशकों से देश में नदियों और अन्य सहायक नदियों की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। कहीं झरने सूख गए, तो कहीं नदियों का बहाव इतना कम हो गया कि उनकी जीवंतता पर संकट मंडरा रहा है। गंगा और यमुना जैसी बड़ी नदियों से लेकर हमारी क्षेत्रीय नदियां कई स्थानों पर बांध, अतिक्रमण और प्रदूषण के कारण अपना मूल स्वरूप खो चुकी हैं। मध्यप्रदेश जिसे ‘नदियों का मायका’ कहा जाता है, वहां भी आज कई नदियों के उद्गम स्थल विलुप्त होने के कगार पर हैं।

वास्तव में मनुष्यों ने अक्सर अपनी सुविधा और औद्योगिक विकास की प्राथमिकता में नदियों को नजरअंदाज किया है। पिछले बीस वर्षों में नर्मदा और अन्य नदियों के किनारे फैली औद्योगिक इकाइयों ने जल स्रोतों को प्रदूषित किया और गोधूलि जैसी कई छोटी नदियां और जलधाराएं सूखती गईं। आधुनिक प्रौद्योगिकी के दौर में कृत्रिम मेधा (एआइ) इस संकट से नदियों को बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

भारत में नदियां केवल प्राकृतिक संसाधन ही नहीं, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का जीवंत प्रतीक भी हैं। ऋग्वेद में सरस्वती को महती नदी के रूप में वर्णित किया गया है, जबकि गंगा और यमुना को पुराणों तथा महाकाव्यों में देवी एवं जीवनदायिनी का दर्जा दिया गया है। गंगा स्नान को आत्मशुद्धि और मोक्ष का मार्ग बताया गया है। महाकुंभ का आयोजन इस बात का प्रमाण है कि नदियों का महत्त्व केवल जल की आपूर्ति तक सीमित नहीं, बल्कि यह आध्यात्मिक चेतना और सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ा है। इसलिए देश में नदियों का संरक्षण केवल जल संकट की समस्या हल करने के लिए नहीं, बल्कि आर्थिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक स्थिरता के लिए भी आवश्यक है।

उत्तर प्रदेश में गंगा और यमुना बड़े स्तर पर प्रदूषण की मार झेल रही हैं

सिंध, क्षिप्रा, बनास और कूनो जैसी नदियां भले ही प्रदूषित नदियों की श्रेणी में न आती हों, लेकिन किनारे पर पसरी गंदगी, औद्योगिक एवं घरेलू अपशिष्ट के निस्तारण का अभाव, अतिक्रमण और जल स्तर में कमी यह संकेत देती हैं कि यदि संरक्षण के ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वक्त की कल्पना की जा सकती है। इन नदियों का महत्त्व जल आपूर्ति तक सीमित नहीं है। वे कृषि, पारिस्थितिकी, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं का आधार हैं। नदियों पर संकट के कई कारण हैं। कारखानों और घरों से निकलने वाले अपशिष्ट सीधे नदियों में मिलते हैं, जिससे पानी जहरीला हो जाता है। अवैध रेत खनन और अतिक्रमण नदियों के किनारे प्राकृतिक ढांचे को नुकसान पहुंचाते हैं, जिससे पानी की उपलब्धता खत्म होने का खतरा बढ़ जाता है।

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यह कोई छिपी बात नहीं है कि उत्तर प्रदेश में गंगा और यमुना बड़े स्तर पर प्रदूषण की मार झेल रही हैं। दिल्ली से गुजरती यमुना का पानी इतना दूषित है कि उसे सुरक्षित नहीं माना जाता। प्रतिदिन लाखों लीटर गैर-उपचारित अपशिष्ट सीधे इसमें गिरता है। गंगा की सहायक नदियां जैसे गंडक और घाघरा अतिक्रमण तथा रासायनिक प्रदूषण से लगातार प्रभावित हो रही हैं। बिहार में गंगा और उसकी सहायक नदियां कोसी तथा बागमती अब अपने असामान्य बाढ़ चक्र और प्रदूषण के लिए जानी जाती हैं। मानसून में प्रलयंकारी बाढ़ हजारों परिवारों को बेघर कर देती है, जबकि गर्मियों में यही नदियां सिकुड़ जाती हैं। इसी तरह महाराष्ट्र में गोदावरी और ताप्ती नदी की स्थिति चिंताजनक है। नासिक और अन्य शहरी क्षेत्रों से निकलने वाला औद्योगिक अपशिष्ट गोदावरी को प्रदूषित कर रहा है। ताप्ती के कुछ हिस्सों में जल इतना दूषित है कि मछलियां और अन्य जलीय जीव लगभग लुप्त हो चुके हैं। विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र की छोटी नदियां तो सूखे की वजह से केवल कागजों पर ही बची हैं।

अपने क्षेत्र की बड़ी आबादी के जीवन को सींचती हैं नदियां

केंद्र सरकार ने वर्ष 2018-19 में देश में जल निकायों की गणना कराई थी। इसमें लगभग 24.24 लाख तालाब, झीलें, जलाशय जैसी संरचनाओं और कृत्रिम जल स्रोतों को चिह्नित कर उनकी स्थिति का पता लगाया गया। इस पहल से यह स्पष्ट हुआ कि किस राज्य में कितने जल स्रोत हैं और उनमें से कितने उपयोगी हैं तथा कितने अतिक्रमण या सूखने के कगार पर पहुंच चुके हैं। केंद्रीय जल आयोग की समय-समय पर रपट यह बताती रही है कि देश की अधिकांश प्रमुख नदियों विशेषकर गंगा, यमुना, साबरमती और गोमती का जल स्वच्छता मानकों से काफी नीचे है। पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों से स्पष्ट है कि दिल्ली में यमुना की हालत बेहद खराब है। इसमें प्रदूषण की वजह से जल की गुणवत्ता का स्तर बहुत नीचे गिर गया है। मार्च 2025 में यमुना में फास्फेट और औद्योगिक अपशिष्ट की मात्रा पिछले वर्षों की तुलना में कई गुना अधिक पाई गई।

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दूसरी ओर छोटी नदियों का अपना महत्त्व है। ये बड़ी नदियों का आधार हैं और अपने क्षेत्र की बड़ी आबादी के जीवन को सींचती हैं। इनके संरक्षण के लिए जितना जरूरी सरकारी प्रयास हैं, उतना ही समाज की सक्रिय भागीदारी भी है। इसमें दोराय नहीं कि आज के तकनीकी दौर में कृत्रिम मेधा नदियों के संरक्षण में अहम भूमिका निभा सकती है। उपग्रह से प्राप्त तस्वीरों, ड्रोन से निगरानी और ‘रीयल-टाइम डेटा एआइ माडल’ के जरिए नदियों के जल स्तर, बहाव और प्रदूषण की स्टीक जानकारी मिल पाती है। इसका व्यापक स्तर पर इस्तेमाल किए जाने से समय रहते उचित कदम उठाए जा सकते हैं। ‘गूगल अर्थ’ और अन्य एआइ उपकरण नदियों के बदलते स्वरूप और प्रवाह का रेकार्ड रखने में मदद करते हैं। ‘वाटरसिम’ और ‘रिवरवेयर’ जैसे कृत्रिम मेधा माडल बाढ़ और सूखे की समय रहते चेतावनी देने में सक्षम हैं।

नदियां केवल पानी की धारा नहीं, बल्कि जीवन और संस्कृति का आधार

कृत्रिम मेधा आधारित मोबाइल एप और अन्य मंच नागरिकों को अपनी नदियों की स्थिति का पता लगाने का अवसर देते हैं। इनकी मदद से लोग नदी किनारे प्रदूषण, जल स्तर में बदलाव या अतिक्रमण की जानकारी तुरंत साझा कर सकते हैं। स्मार्ट सेंसर और अन्य कृत्रिम मेधा उपकरण जल गुणवत्ता, रासायनिक प्रदूषण और जैव विविधता की निगरानी करते हैं। इसके अलावा कृत्रिम मेधा आधारित शिक्षा और जन-जागरूकता मंच भी बनाए जा सकते हैं। बच्चों और युवाओं में यह संदेश फैलाया जा सकता है कि नदियां केवल पानी की धारा नहीं, बल्कि जीवन और संस्कृति का आधार हैं। जब समाज के हर वर्ग को इसका महत्त्व समझ आएगा, तभी नदियों का संरक्षण स्थायी रूप से संभव हो पाएगा।

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कई देशों में कृत्रिम मेधा का नदियों और अन्य जल स्रोतों को बचाने के लिए पहले से ही उपयोग हो रहा है। ब्रिटेन में यूनिवर्सिटी आफ शेफील्ड और सीमेंस की साझेदारी में क्लाउड-आधारित एक कृत्रिम मेधा की प्रणाली विकसित की गई है, जो सीवेज पाइप में अवरोध का पता लगाने में मदद करती है। इससे नदियों में अपशिष्ट के अनियंत्रित प्रवाह और प्रदूषण को रोकने में मदद मिल रही है। हालांकि देश में इस काम के लिए तकनीक का होना ही पर्याप्त नहीं है। नीति निर्धारकों और प्रशासन को कृत्रिम मेधा उपकरणों से मिलने वाली जानकारी का सही इस्तेमाल करना होगा। नदियों के संरक्षण के लिए कानूनी, प्रशासनिक और सामुदायिक सहयोग की आवश्यकता होगी। तकनीक के साथ आम नागरिकों की जागरूकता और सरकार की नीतियां मिल कर नदियों को नया जीवन दे सकती हैं। यह न केवल जल संरक्षण, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी एक अमूल्य धरोहर होगी।