किसी भी देश के लोकतंत्र की स्थिति का मूल्यांकन वहां की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से किया जा सकता है। चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की कवायद शुरू की, जिस पर कई सवाल उठे। बंगाल, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश में यह मामला बूथ स्तर अधिकारियों के प्रदर्शन से लेकर मौतों तक पहुंच गया। खास कर शिक्षकों व आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का आरोप है कि कम समय-सीमा के कारण उन पर बहुत ज्यादा बोझ बढ़ गया। व्यापक स्तर पर किसी भी कार्य के कुछ चरणों में परेशानी होती है। लेकिन जब मामला तनाव के कारण मौत तक पहुंच जाए तो सत्ता की जिम्मेदारी बनती है कि वह मुद्दे पर संवाद करे। बीएलओ की मुख्य नियोक्ता सरकार ही है, चुनाव आयोग का काम उन्हें अधिभार के रूप में मिलता है। इसके पहले भी आरोप लगते रहे हैं कि ज्यादातर समय चुनाव व अन्य कार्यों में लगे रहने के कारण सरकारी स्कूलों में शिक्षण-कार्य प्रभावित होता है। मतदाता सूची का गहन पुनरीक्षण जब तीव्र विरोध से लेकर बीएलओ की मौतों तक पहुंच चुका है तो सत्ता की चुप्पी पर सवाल उठाता बेबाक बोल

कहते हैं कि हौसला बहुत संक्रामक होता है। हजार हताश लोगों में से कोई एक संघर्ष का नारा लगा देता है, तो उसके साथ पूरा कारवां चल पड़ता है। इसके विपरीत परिस्थिति में असंतोष भी उतना ही संक्रामक होता है। मनोविज्ञान, आत्महत्या के कुछ मामलोंमें भी ऐसी ही संक्रामक प्रवृत्ति को चिन्हित कर चुका है। कुछ समय पहले विदेश में एक स्कूली बच्चे ने खुदकुशी की तो उसके बाद ऐसे कई मामले सामने आए।

सामान्य स्थिति में कोई प्रक्रिया कुछ लोगों को सहनीय लग सकती है तो वही स्थिति कुछ लोगों के लिए असहनीय हो जाती है। संवेदनशील सत्ता व संस्थाओं को उन असामान्य कारणों की पहचान करनी होती है, जिनके कारण हालात असहनीय बने। जब पीड़ितों के खिलाफ ही ‘कारण बताओ नोटिस’ जैसे माहौल को संवैधानिक एजंसियां बढ़ावा दें तो यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हम इस पर बात करें।
भारत का लोकतंत्र एक अभूतपूर्व स्थिति से गुजर रहा है। सत्ता व संस्था बनाम जिम्मेदारी का कांटा 2014 पर आकर रुक गया है।

बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश तक बूथ स्तर अधिकारियों की समस्या पर पूरी दुनिया की नजर गई है। इनकी समस्या सुनने के बजाय पहले की बातों को सुनाया जा रहा है। संसद में सत्ता पक्ष ने कहा कि जब बलराम जाखड़ लोकसभा अध्यक्ष थे तो उन्होंने कहा था कि सदन में चुनाव आयोग पर चर्चा नहीं हो सकती। हालांकि, अब सत्ता पक्ष चुनाव सुधारों पर चर्चा को लेकर सहमत है। मुद्दा यह है कि बलराम जाखड़ से लेकर आज तक का समय बहुत बदल गया है। जब मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के नियम ही बदल दिए गए तो फिर पुराने उदाहरण की बात ही क्यों करनी? उस सरकार से जुड़े लोगों की बात ही क्यों करनी जिसे कोसे बिना पिछले पंद्रह वर्षों से आपकी सत्ता का पत्ता तक नहीं हिलता। डर है कि ऐसा पहले भी होता रहा है-का तर्क इस अति तक न पहुंच जाए कि कल को चोरी करने के बाद कोई कहे कि द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने भी तो माखन चोरी की थी, अब मेरी चोरी पर सवाल क्यों उठ रहे हैं।

नोटबंदी के दौरान हुई मौत हो, कोरोना-काल में हुई मौत हो या फिर बूथ स्तर अधिकारियों की सिलसिलेवार मौत हो, आप हर जगह आंकड़े व बहस से बचते हैं। जहां तक बूथ स्तर अधिकारियों की बात है तो वे मूल रूप से चुनाव आयोग के कर्मचारी नहीं हैं। उनकी मूल नियोक्ता सरकार है। वे सरकार के द्वारा नियुक्तशिक्षक हैं, या अन्य सेवाओं के कार्यकर्ता। चुनाव से जुड़े काम उन पर अतिरिक्त भार हैं। जिन वजहों से भी ये बड़ी संख्या में परेशान हैं, जिन वजहों से भी इनसे जुड़े लोगों की मौतें हो रही हैं वह बुनियादी रूप से सरकार के संवाद और चिंता का प्रश्न है। ये कोई विपक्ष के कार्यकर्ता नहीं हैं, और न ही सिर्फ विपक्ष की जिम्मेदारी है कि वह इस समस्या पर बात करे। जहां भी सत्ता से सवाल और सत्ता की जिम्मेदारी आती है, आप नागरिकों के साथ विपक्ष की तरह का व्यवहार करने लगते हैं।

सबसे अहम सवाल है आंकड़ों का। चुनाव आयोग की कार्रवाई शुरू करने के बाद सत्ता पक्ष ने मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण को घुसपैठिया से जोड़ दिया। हालांकि चुनाव आयोग ‘एसआइआर’ के संदर्भ में घुसपैठियों के विमर्शसे बचना चाहता है, लेकिन बिहार से लेकर बंगाल तक सत्ता पक्ष ने इसे सीधे घुसपैठियों से जोड़ा। बिहार, बंगाल में कितने घुसपैठिये पाए गए और निकाले गए, इसके आंकड़े अभी तक दिए क्यों नहीं गए? सत्ता के संदर्भ में सांख्यिकी एक अहम चीज है। महंगाई से लेकर विकास तक का खांका सांख्यिकी से ही खींचा जाता है। फिर सत्ता पक्ष सांख्यिकी से बचना क्यों चाहता है?

भारतीय राजनीति में चुनाव व सरकारी स्कूलों के शिक्षकों, अन्य कर्मचारियों के श्रम का एक नाता सा बन गया है। देश में ज्यादातर जगहों पर अक्सर किसी न किसी तरह की चुनाव की प्रक्रिया चलती रहती है। इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा इस्तेमाल स्कूली शिक्षकों का किया जाता है। अब मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के काम में उनकी अहम भागीदारी है,वह भी कम समय-सीमा के साथ। आज समाज में जिस तरह राजनीतिक विभाजन हो चुका है, उसमें इन अधिकारियों को सीधे सत्ता का प्रतिनिधि मान लिया जाता है। ऐसे माहौल में श्रमसाध्य काम में आधी रात को भी बीएलओ से ‘ओटीपी’ मांगने का आरोप है। जब स्कूली शिक्षक ज्यादातर समय इन्हीं श्रमसाध्य कामों में लगे रहेंगे तो वे पढ़ाने का काम कब करेंगे? हर काम की एक प्रवृत्ति और मर्यादा होती है। जब आप घर-घर घूम कर लोगों के गुस्से का शिकार होकर घर लौटेंगे और लक्ष्य को अपने से दूर देखेंगे तो आपकी मानसिक हालत क्या हो सकती है?

पिछले दिनों चुनाव आयोग पर लापरवाही का ‘हाइड्रोजन बम’ तक फूटा। मतदाता सूची में गड़बड़ियों को पूरे देश ने देखा। हमें नहीं पता इन आरोपों पर चुनाव आयोग के कितने कर्मचारी जांच के दायरे में आए या कितने लोगों पर मुकदमा दर्ज किया गया। लेकिन उत्तर प्रदेश में काम में लापरवाही के आरोप में सिर्फ गौतमबुद्ध नगर में 60 से ज्यादा बीएलओ पर मुकदमा दर्ज किया गया है। अब जब ये अपने स्कूल में पढ़ाने जाएंगे या किसी और तरह का काम करेंगे तो इन पर काम में लापरवाही का आरोप चस्पां रहेगा। इन पर उस काम में लापरवाही के आरोप में मुकदमा हुआ है जो इनका मूल काम नहीं है।

किसी का भी मूल नाम बिगाड़ना अशोभनीय है। दुर्भाग्य है कि देश में एक ऐसे नेता के नाम के आगे मौन लगाया गया, जिनके हिस्से कई पत्रकार-सम्मेलन और सवाल-जवाब हैं। मन को मोहने के लिए जो नाम रखा गया था, उसे जनता को मोहने के लिए विकृत किया गया। अफसोस, उन्हें बदनाम करने के बाद अब हर जगह पसरे मौन पर भी सब मौन हैं। सरकारी पक्ष अगर बोलेगा भी तो उस, बीएलओ के लिए नहीं जिसका वो नियोक्ता है। सत्ता पक्ष उस चुनाव आयोग के पक्ष में बोलेगा जो पूरी तरह से स्वायत्त है, जिसके लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है। लेकिन, उन बीएलओ के पक्ष में कोई आवाज नहीं उठ रही, जिनके लिए सरकार जिम्मेदार है, और जो इस समाज के भविष्य के लिए जिम्मेदार हैं। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की यह स्थिति देख कर उस स्कूल में पढ़ने वाला कोई बच्चा क्या आगे चल कर सरकारी शिक्षक बनना चाहेगा?

भारत की चुनाव प्रक्रिया के लिए चुनाव प्रक्रिया से जुड़े लोग वीडियो बना कर मर रहे हैं। जरा रुकिए, ठहरिए, सुनिए। स्कूल का बच्चा मोबाइल पर वह वीडियो देख रहा है। उसके मन में चुनाव प्रक्रिया को लेकर क्या छवि बनेगी? वह बच्चा नागरिक-शास्त्र की किताब में पढ़ता है कि चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है। यह कैसा उत्सव है, जहां सिर्फ असंतोष है? जहां का सत्ता और समाज अपने शिक्षकों को लेकर निष्ठुर होता है, आने वाला समय उससे बेपरवाह हो जाता है। आप शिक्षकों व अन्य कर्मियों की चिंता मत कीजिए, मरने वालों की चिंता मत कीजिए। लेकिन आने वाले समय की चिंता तो कीजिए कि उसमें आपके इस समय को कैसे दर्ज किया जाएगा? डर है कि आपके समय का उदाहरण देकर आने वाला समय इससे भी ज्यादा निष्ठुरता, संवादहीनता को न्यायोचित ठहराएगा।