भारत अब एक नई उड़ान पर है। यह उड़ान अंतरिक्ष के जरिए देश की सुरक्षा और जनता के सतत विकास के लक्ष्यों को साधने वाली है। इन सपनों को साकार करने में अहम भूमिका भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के ताकतवर राकेटों और उपग्रहों की है, जो सफलता के नए कीर्तिमान रचते हुए अपनी क्षमता और योग्यता साबित कर रहे हैं।
इसमें सबसे ताजा उपलब्धि बीते दो नवंबर की है, जब इसरो ने अपने सबसे ताकतवर राकेट (एलवीएम3-एम5) से देश का अब तक का सबसे वजनी उपग्रह जीसैट-7आर प्रक्षेपित किया। सामरिक और भारतीय नौसेना की संचालन जरूरतों को साधने के लिए विकसित यह उपग्रह आत्मनिर्भरता के साथ-साथ दुनिया के अंतरिक्ष बाजार में भारत की बढ़ती साख की मिसाल है।
अंतरिक्ष क्षेत्र में बढ़त की बात आती है, तो मामला वजनदार उपग्रहों और ताकतवर राकेटों पर आकर टिक जाता है। भविष्य की अंतरिक्षीय होड़ वजनदार उपग्रहों को ले जाने, अंतरिक्ष स्टेशनों के निर्माण तथा चंद्रमा और मंगल पर मिशन भेजने की क्षमता को लेकर है। इस मामले में अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा दिनोंदिन तेज हो रही है। तथ्यों में देखें, तो अमेरिका में सरकारी एजंसी- नासा और निजी एजंसी- स्पेसएक्स, रूस की रासकासमास, चीन की सीएनएसए और यूरोप की ईएसए एजंसियों से भारत का इसरो प्रतिस्पर्धा में हैं।
अमेरिका की स्पेसएक्स दुनिया का अब तक का सबसे ताकतवर राकेट फाल्कन हैवी और स्टारशिप विकसित कर रही है, जो सौ टन से ज्यादा पेलोड (वजन) ले जाने में सक्षम होगा। चीन भी अपने भारी राकेट लांग मार्च5बी और भविष्य के लिए लांग मार्च-9 जैसे सुपर-राकेटों का निर्माण कार्य जारी रखे हुए है। इस किस्म के ताकतवर राकेटों में रूस के प्रोटोन और विकसित किए जा रहे राकेट एंगारा का नाम भी शामिल है।
ऐसे में साढ़े चार टन वजन वाले संचार उपग्रह जीसैट-7आर (सीएमएस-03) के सफल प्रक्षेपण ने भारत और इसरो को वह आत्मबल दिया है, जो देश को सामरिक, वैज्ञानिक और वाणिज्यिक मिशनों में अग्रणी पंक्ति में शामिल कराने के लिए जरूरी है। उल्लेखनीय है कि जीसैट-7आर अब तक का भारत का सबसे भारी संचार उपग्रह है। कई अत्याधुनिक स्वदेशी तकनीकी घटकों वाला यह उपग्रह विशेष रूप से भारतीय नौसेना की संचालन और सामरिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विकसित किया गया है। भारी उपग्रहों को प्रक्षेपित करने में सक्षम होना इस बात का संकेत है कि अंतरिक्ष शक्ति के मामले में भारत अब वह दक्षता हासिल कर चुका है, जिसके लिए कभी रूस या अमेरिका की अंतरिक्ष एजंसियों से बाहर कोई विकल्प मौजूद नहीं था।
जहां तक जीसैट-7आर की क्षमताओं की बात है, तो इसे भारतीय नौसेना का अब तक का सबसे आधुनिक संचार मंच कहा जा सकता है। इससे नौसेना की अंतरिक्ष-आधारित संचार प्रणाली और समुद्री क्षेत्र की निगरानी क्षमता में कई गुना इजाफा होगा। यह उपग्रह हिंद महासागर क्षेत्र में व्यापक और बेहतर दूरसंचार सेवा प्रदान करेगा। इसमें ध्वनि, डेटा और वीडियो लिंक को तेजी से ग्रहण एवं संप्रेषित करने वाले ऐसे आधुनिक उपकरण लगाए गए हैं, जो भारतीय नौसेना के जहाजों, विमानों, पनडुब्बियों और समुद्री संचालन केंद्रों के बीच सुरक्षित, निर्बाध तथा वास्तविक समय में संचार की जरूरतों को पूरा करेंगे। जाहिर है कि यह समुद्र में नौसेना की रणनीतिक क्षमताओं में बढ़ोतरी करने में महत्त्वपूर्ण सहायक साबित होगा।
करीब साढ़े चार टन वजनी उपग्रह को कामयाबी के साथ अंतरिक्ष की कक्षा में भेजने की घटना को भारत के लिए एक अहम पड़ाव के तौर पर देखा जा रहा है। एलवीएम3-एम5 राकेट को उसकी भार उठाने की क्षमता के कारण ‘बाहुबली’ भी कहा जाता है। राकेट विज्ञान के क्षेत्र में इस किस्म के जीएसएलवी प्रक्षेपण वाहन की कामयाबी का स्तर यदि हम नापना चाहें तो इसकी एक कसौटी अमेरिका के शुरुआती चंद्र मिशन होंगे।
करीब 56 साल पहले अमेरिकी अंतरिक्ष एजंसी नासा ने अपने जिस यान अपोलो-11 से नील आर्मस्ट्रांग को चांद पर भेजा था, उसका वजन 4,932 किलोग्राम था। यानी यदि किसी देश का राकेट पांच टन तक का वजन अंतरिक्ष में ले जाने की हैसियत रखता है, तभी उसे चंद्रमा पर इंसान भेजने के सपने के बारे में सोचना चाहिए। जिस तरह से एलवीएम3-एम5 ने नया करिश्मा दिखाया है, उसका अर्थ यह निकलता है कि इस राकेट से जल्द ही पांच टन तक के उपग्रह को अंतरिक्ष में ले जाया जा सकता है। इससे चंद्रमा पर इंसान भेजने की भारत की दावेदारी पुख्ता होती है। चंद्रयान-4 के प्रक्षेपण में इसी राकेट के इस्तेमाल की योजना है।
बहरहाल, इस प्रक्षेपण के जरिए इसरो ने साबित कर दिया है कि अंतरिक्ष अभियान अब सिर्फ हमारी जिज्ञासाओं का मामला भर नहीं रह गया है, बल्कि भारत ने एक के बाद एक जो सफलताएं अर्जित की हैं, उनके जरिए खोजों एवं अनुसंधानों से कई संसाधनों के दोहन के रास्ते खुलते हैं। इसके जरिए कारोबारी हित साधे जा सकते हैं और रक्षा क्षेत्र की जरूरतों को भी पूरा किया जा सकता है। अंतरिक्ष में उपलब्धियों की बात करें, तो अमेरिका और रूस के बाद चीन इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। वह मानव मिशन को अंतरिक्ष में भेज चुका है और इससे आगे चलकर चंद्रमा के खनिजों के दोहन की बात भी उसके जेहन में है। साथ ही वह अपने राकेटों से विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण बाजार में भी सेंध लगाना चाहता है।
अपनी स्थापना के साढ़े पांच दशकों के अंतराल में इसरो ने एक से बढ़कर एक कीर्तिमान स्थापित किए हैं। ताकतवर प्रक्षेपक राकेटों के निर्माण और बहुद्देश्यीय उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित करने से लेकर चंद्रमा और मंगल ग्रह की खोज संबंधी अभियानों ने पहले से ही अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत की धमक कायम कर रखी है। बीते चार-पांच वर्षों में इसरो ने कई नए मोर्चों पर एक साथ कदम आगे बढ़ाए हैं।
वर्ष 2023 में इसरो को कई सफलताएं एक साथ मिलीं, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रयान-3 को सफलतापूर्वक उतारना। तब यह कारनामा करने वाला भारत दुनिया का पहला देश बन गया था। यह कामयाबी इसलिए भी अहम मानी जा सकती है, क्योंकि न तो अमेरिका जैसी महाशक्ति ऐसा कर पाई है और न ही उसका चिर-प्रतिद्वंद्वी रूस वर्ष 2023 में ही आनन-फानन में किए गए ऐसे ही प्रयास में सफलता हासिल कर पाया था।
चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर अरसे से दुनिया की तमाम अंतरिक्ष एजंसियों की नजर थी, लेकिन वैज्ञानिक और तकनीकी धरातल पर यह काम इतना कठिन है कि इसे अंजाम तक पहुंचाना रूस-अमेरिका या चीन के लिए भी एक चुनौती बन गया था। इसे भी ध्यान में रखना होगा कि अंतरिक्ष क्षेत्र में किसी बढ़त का कोई मतलब तभी है, जब उससे कारोबार और अंतरिक्ष अनुसंधान के अलावा कुछ ठोस जमीनी लक्ष्य भी हासिल हों और उनसे देश की जनता की बेहतरी एवं विकास का कोई रास्ता खुले। उम्मीद है कि इसरो की क्षमताओं के बल पर देश जो कुछ हासिल करेगा, उससे ठोस आर्थिक विकास सुनिश्चित होगा और उसका फायदा जनता को मिलेगा।
