किसी भी बीमारी के लिए रोग प्रतिरोधक दवाएं (एंटीबायोटिक) बहुत कारगर मानी जाती हैं, यही वजह है कि बाजार में ये दवाएं सबसे ज्यादा बिकती हैं। हालांकि, इनके अंधाधुंध इस्तेमाल से देश में ‘सुपरबग्स’ जैसी खतरनाक स्थिति पैदा हो गई है, जहां दवाएं बेअसर हो जाती हैं और सामान्य बीमारी भी जल्दी ठीक नहीं हो पाती है। चिंता की बात यह है कि मुर्गी पालन और पशुपालन में भी रोग प्रतिरोधी दवाओं का अत्यधिक उपयोग किया जा रहा है। नतीजतन, अगर हम खुद रोग प्रतिरोधी दवाएं कम लें, तो भी यह समस्या दूसरे रूप में हमें घेरे रहेगी। इसलिए सरकार की ओर से इन दवाओं के इस्तेमाल को लेकर विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए गए हैं।

वर्ष 1928 में लंदन के एक चिकित्सा संस्थान में कार्यरत स्काटलैंड के वैज्ञानिक अलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने जीवाणुओं पर शोध करते हुए एंटीबायोटिक पेनिसिलिन की खोज की। दूसरे विश्वयुद्ध में जब लाखों घायल सैनिक संक्रमण से मर रहे थे, तब पेनिसिलिन एक वरदान साबित हुई। इससे अनगिनत सैनिकों की जान बचाई गई। पेनिसिलिन ने चिकित्सा विज्ञान की दिशा बदल दी और इसे आधुनिक एंटीबायोटिक युग की शुरूआत माना जाता है। हालांकि, 1945 के बाद से फ्लेमिंग खुद चेतावनी देते रहे कि रोग प्रतिरोधक दवाओं के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से प्रतिरोध पैदा होगा और यही हुआ।

सामान्य संक्रमण यानी खांसी, बुखार या घाव होने पर भी इलाज मुश्किल

अब यह समस्या और बड़ी बनने लगी है, क्योंकि भारत जैसे देशों में बिना चिकित्सक की सलाह के रोग प्रतिरोधी दवाएं लेना, अधूरा दवा लेना और छोटी-मोटी बीमारी में भी इनका इस्तेमाल करना आम बात हो गई है। इन दवाओं के ज्यादा इस्तेमाल से हमारे शरीर में जीवाणु या विषाणु दवाइयों के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं और यह स्थिति ‘सुपरबग्स’ के रूप में उभरकर सामने आती है। यानी ऐसी स्थिति जिसमें ताकतवर जीवाणु या विषाणु दवाओं से नहीं मरते और उन पर साधारण रोग प्रतिरोधक दवाएं काम नहीं करतीं। ऐसे में न सिर्फ मरीजों पर दवाओं का खर्च बढ़ता जाता है, बल्कि भविष्य में यह स्थिति कई अन्य बीमारियों को न्योता देती है और सामान्य संक्रमण यानी खांसी, बुखार या घाव होने पर भी इलाज मुश्किल हो जाता है।

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पहले जिन बीमारियों का इलाज सामान्य एवं सस्ती दवा से हो जाता था, उनके लिए अब महंगी दवाएं या इंजेक्शन लेने पड़ते हैं, क्योंकि सामान्य बीमारी पर भी दवाएं बेअसर होती हैं तथा इलाज के लिए कई तरह की जांच करानी पड़ती है और नए किस्म की दवाएं देनी पड़ती हैं। बार-बार रोग प्रतिरोधक दवाएं लेने से एलर्जी और त्वचा पर दाने जैसी समस्याएं भी आने लगती हैं और लंबे समय में गुर्दा, लीवर और पेट पर असर पड़ता है।

सबसे बड़ी बात यह है कि ये दवाएं हानिकारक जीवाणुओं के साथ-साथ अच्छे जीवाणुओं को भी मार देती हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद की रपट के अनुसार, देश में हर साल लगभग सात लाख लोग एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध से जुड़ी बीमारियों से प्रभावित होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि अगर इस समस्या पर रोक नहीं लगी, तो वर्ष 2050 तक भारत समेत विश्व में इस स्थिति से करीब एक करोड़ लोगों की मौत प्रति वर्ष हो सकती है।

भारत में रोग प्रतिरोधक दवाओं का बाजार बहुत बड़ा है

भारत में रोग प्रतिरोधक दवाओं का बाजार बहुत बड़ा है, क्योंकि यहां संक्रमण संबंधी बीमारियां आम हैं। वर्ष 2023 में देश में यह बाजार करीब 49,000 करोड़ रुपए का था। अनुमान है कि वर्ष 2024-2030 के बीच यह बाजार लगभग 6-7 फीसद चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़कर 83,000 करोड़ रुपए तक पहुंच सकता है। मालूम हो कि भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा रोग प्रतिरोधक दवाओं का उत्पादक देश है। ‘द लांसेट’ की 2022 की एक रपट के अनुसार, भारत में प्रति व्यक्ति रोग प्रतिरोधक दवाओं की खपत दुनिया में सबसे अधिक है।

अनुमान है कि हर साल देश में लगभग 1,300 करोड़ से अधिक की खुराक इन दवाओं की ली जाती है। सरकार ने ‘शेड्यूल एच1’ लागू किया है, जिसके तहत कई रोग प्रतिरोध दवाएं केवल चिकित्सक के परामर्श पर ही मिल सकती हैं। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद और विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से ‘एंटीबायोटिक स्टीवर्डशिप’ कार्यक्रम को लागू किया जा रहा है, ताकि इन दवाओं का दुरुपयोग कम हो, लेकिन समस्या जस की तस है।

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भारत में सर्दी-खांसी, जुकाम, बुखार और अतिसार जैसी बीमारियों से हर साल करीब 30-35 करोड़ से अधिक लोग प्रभावित होते हैं। वर्ष 2024 तक देश में कुल पंजीकृत चिकित्सकों की संख्या लगभग 13 लाख हैं, इनमें से 10.4 लाख एलोपैथिक और 4.5 लाख आयुष चिकित्सक (आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी) हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार, एक हजार की आबादी पर कम से कम एक चिकित्सक होना चाहिए। जबकि भारत में एक हजार की आबादी पर मात्र 0.7 चिकित्सक उपलब्ध हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात और भी कम है, कई राज्यों में तो एक हजार की आबादी पर मात्र 0.2 चिकित्सक हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी, 2023 की रपट की मानें तो देश में 1.55 लाख उप-स्वास्थ्य केंद्र, 25,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 5,600 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। इनमें से लगभग 65-70 फीसद स्वास्थ्य केंद्र ग्रामीण इलाकों में स्थित हैं। भले ही देश में करीब एक लाख से ज्यादा स्वास्थ्य केंद्र ग्रामीण इलाकों में हों, लेकिन अभी भी यहां चिकित्सकों और स्वास्थ्य केंद्रों की भारी कमी है।

रोग प्रतिरोधक दवाओं को तीन श्रेणियों में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किया है वर्गीकृत

गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रोग प्रतिरोधक दवाओं को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया है। पहला, वे दवाएं जो सामान्य संक्रमण के लिए सुरक्षित हैं और इनका शरीर पर कोई ज्यादा नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है। दूसरी श्रेणी में उन दवाओं को रखा गया है, जिनका इस्तेमाल सीमित तौर पर ही किया जाना चाहिए और इनके लिए निगरानी जरूरी है। तीसरी श्रेणी में वे दवाएं हैं, जिन्हें केवल जीवन-रक्षक स्थिति में ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। मगर इन दिशा-निर्देशों पर पूरी तरह अमल नहीं हो पा रहा है। यह समस्या इसलिए भी बड़ी होती जा रही है, क्योंकि इंसानों के साथ ही कृषि और पशुपालन क्षेत्र में भी रोग प्रतिरोधक दवाओं का अंधाधुंध उपयोग होने लगा है, खासतौर से मुर्गीपालन और पशुपालन में।

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खाद्य और कृषि संगठन (संयुक्त राष्ट्र), भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद, भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट के अनुसार, भारत में रोग प्रतिरोधक दवाओं की कुल खपत का पचास फीसद से अधिक हिस्सा पशुपालन में इस्तेमाल होता है। दूध देने वाले मवेशियों में संक्रमण रोकने और दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए इन दवाओं का बार-बार इस्तेमाल किया जाता है। वर्ष 2022 के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 10-12 फीसद दूध के नमूनों में इन दवाओं के अवशेष मौजूद थे। अनुमान है कि देश में हर साल लगभग 70-75 फीसद मुर्गी पालकों द्वारा चारे में रोग प्रतिरोधक दवाओं का प्रयोग किया जाता है। सरकार के नए दिशा-निर्देशों का उद्देश्य रोग प्रतिरोधक दवाओं का विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित करना और भविष्य में गंभीर संक्रमण के इलाज के लिए उनकी प्रभावशीलता बनाए रखना है। यदि मरीज, चिकित्सक, अस्पताल और किसान सभी मिलकर इन नियमों का पालन करें, तो इस समस्या पर कुछ हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।