हम लोग इक्कीसवीं सदी में जीते हुए कई बार आदिम समाज से ऊपर उठकर सभ्य और शिष्ट होने का दावा करते हैं। मगर देखा गया है कि सार्वजनिक स्थानों पर, सभाओं में और महफिलों में यहां तक कि फिल्मों में भी गाली-गलौज और अमर्यादित भाषा का व्यवहार धड़ल्ले से किया जा रहा है। यह सब देख सुनकर लगता है कि इस दिशा में चिंतन और मनन की बहुत जरूरत है। शिक्षा और भाषा में हमेशा से अनुसरण की परंपरा रही है। याद किया जा सकता है कि 1990 के आसपास जब ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ धारावाहिक टेलीविजन पर दिखाए जा रहे थे, तब कई बच्चों की जुबान पर सुसंस्कृत और परिष्कृत हिंदी सुनने को मिल जाती थी।
मसलन, पिताश्री, माताश्री, तातश्री, भ्राताश्री जैसे शब्द आम बोलचाल में आने लगे थे। इसे शुरुआत में भले ही थोड़े हास्यबोध के साथ बोला जाता था, लेकिन इसमें सहजता भी दिखने लगी थी। सिनेमा, राजनीति और साहित्य भाषा को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। आज ओटीटी मंच की भाषा को हम देखें तो कई बार वहां जिस तरह की विकृति परोसी जा रही है, वह न केवल निंदनीय है, बल्कि चिंताजनक है। उसका जैसा प्रभाव सामने आ रहा है, उसे देखते हुए उस पर रोक लगनी चाहिए।
उस भाषा को सुनकर-देखकर देश के युवाओं की भाषा में बहुत गिरावट आई है। आजकल हम देख रहे हैं कि राजनीतिक दलों के नेताओं की भाषा में जुमलेबाजी और अमर्यादित शब्द बढ़ते जा रहे हैं। उनके कार्यकर्ता और अनुयायी इन भाषा संस्कारों को सीख कर अपने नेताओं से कहीं आगे बढ़कर भाषा की मर्यादा को तार-तार करते हैं। सवाल है कि इस तरह की संस्कृति के चलन में आने का स्रोत क्या है।
आधुनिक तकनीकी और हर हाथ में स्मार्टफोन के दौर में इंटरनेट के उपयोग को बाधित तो नहीं किया जा सकता, लेकिन सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की भाषा पर थोड़ी बंदिशें जरूर होनी चाहिए। नहीं तो जिसके मन में जो कुछ आएगा, उसी को सोशल मीडिया के मंच पर उलट कर चला जाएगा। आजकल अश्लील सामग्री की बाढ़ आई हुई दिखती है। एक समय हिंदी में कहा जाता था- ‘यथा उच्यते तथा लिख्यते’, लेकिन आजकल एक कहावत कुछ इस तरह भी देखी जा सकती है- ‘यथा दृश्यते तथा उच्यते’। जैसा देखा जा रहा है, वैसा ही बोला जा रहा है।
भाषा के लिए हमने संसदीय भाषा का प्रयोग सुना था, लेकिन आजकल जनप्रतिनिधियों की भाषा भी कई बार मर्यादा को तार-तार करती हुई दिखाई दे जाती है। वहां भी अवांछित शब्दों का उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है। ऐसे अमर्यादित आचरण वाले लोगों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। भाषा की मर्यादा में रहना हम सभी का कर्तव्य हैं। जिसे अपनी वाणी पर नियंत्रण नहीं है, जो अनाप-शनाप शब्दों का प्रयोग करता है, ऐसे व्यक्ति का सामाजिक जीवन में बहिष्कार किया जाना चाहिए।
भाषा हमारा आभूषण है। हम सभी स्वच्छ और सुंदर वस्त्र पहनकर प्रसन्न होते हैं और समाज में अपना स्थान भी बनाते हैं। मगर सुंदर और स्वच्छ वस्त्र पहनकर अगर हम अपशब्द बोलते हैं, अमर्यादित भाषा का प्रयोग करते हैं, तो क्या तब भी समाज में हमारा वही स्थान बना रह सकता है? शायद नहीं। इसलिए हमने वस्त्र कैसे ही पहन रखे हों, आभूषण पहने हो या न पहने हों, लेकिन भाषा की मर्यादा का हमेशा ध्यान रखने की जरूरत है।
सच यह है कि जब हम अपना मुंह खोलते हैं तो हमारे संस्कारों का पता चलता है। हमारी परवरिश का पता चलता है। हमारे माता-पिता और हमारे घर के अन्य लोगों के द्वारा दिए गए संस्कारों का परिचय सामने आता है। भाषा एक दिन का पढ़ाया हुआ पाठ या मानवीय व्यवहार नहीं है। यह युगों-युगों से चली आ रही हमारी संस्कृति का एक सत्य है।
हमारी सभ्यता का आईना है। प्राचीन समय में कहा जाता था कि ‘कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बदले बानी’। भारत में अनगिनत भाषाएं बोली जाती हैं। हर एक भाषा का अपना टोन या स्वर होता है। बच्चा बचपन में भाषा का जो टोन या स्वर ग्रहण कर लेता है, उसी स्वर में वह हमेशा अपने आपको अभिव्यक्त करता है। अपनी बात को कहता है। लेकिन कोई भी स्वर या कोई भी भाषा, हमें अशिष्ट और अमर्यादित भाषा का प्रयोग करने की छूट नहीं देती है।
सभी भाषाएं अच्छी होती हैं। हम कोई भी भाषा-भाषी हों, बोलते समय शब्दों पर नियंत्रण अवश्य होना चाहिए। भूलकर भी हमें ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए जो भाषा की मर्यादा को गिराने वाले हों, जो किसी का अपमान करने वाले हों, जिससे हमारे मानसिक दिवालियापन का पता चले। यह एक आम धारणा रही है कि ‘जब भी अपने मुख को खोलो, सच्चा बोलो, मीठा बोलो… हो सके तो कम ही बोलो’।
जब हम बहुत अधिक बोलते हैं तो मिथ्या संभाषण करते हैं। अपशब्द मुंह से निकलते हैं। यहां तक कि कई बार गाली-गलौज पर भी उतर आते हैं। यह भाषा अक्सर हमें वाद-विवाद की स्थिति में ले जाती है। जिस वक्त हम एक-दूसरे को नीचा दिखाने की सोच रहे होते हैं, तब अपशब्द हमारे मुंह से बराबर निकालते रहते हैं। जीवन में आत्म नियंत्रण, आत्मबोध आवश्यक है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम किस परिवार से आए हैं। हमारे संस्कार कैसे हैं। भाषा हमारा गहना है। जीवन में सफलता के लिए भाषा का अनुशासन जरूरी है।
