क्या यह भाषा अधूरी नहीं है, जिसमें स्त्री स्वर के विकट एकांत का संकेत तक दर्ज नहीं हो सका है। किसी अधूरी भाषा में महान साहित्य और महान समाज का स्वप्न भी अधूरा ही बनेगा। समता के कुछ अपवादों को छोड़ दें तो भी यह कहना गलत न होगा कि हमारी भाषा किस कदर स्त्री-विरोधी मानसिकता का विराट प्रदर्शन है।
भाषा अपने आप में यादृच्छिक ध्वनि समूह भर नहीं है, न परस्पर अर्थ संप्रेषण की क्षमता का निर्वहन कर सकने वाला एक माध्यम। भाषा सांस्कृतिक अस्मिताओं और मनुष्य की विकासगामी यात्राओं के इतिहास की अनेक परतें समेटे एक जीवित परिवेश भी है। अस्मिताओं के पहचान की लड़ाई का एक सशक्त हथियार भी है, इसीलिए दुनिया की तमाम लड़ाइयों में भाषाई अस्मिता एक बड़ा प्रश्न रही है। उसके भीतर समय-समय पर हुए सामाजिक बदलावों की सलवटें दबी पड़ी रहती हैं, तो बदल गए समय का वर्तमान यथार्थ भी। समाज की आंतरिक संरचना को उसके भीतर से पढ़ा और समझा जा सकता है। भाषा के दैनिक अभ्यास में प्रयुक्त हो रहे जेंडर भेद के गहरे रंग को उस भाषाई समाज की संरचना के संदर्भ में जाना जा सकता है। जो समाज आज भी प्रकृति के कुछ निकट हैं, उनकी भाषा में जेंडर भेद के हिंसक रूप अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। तमाम जनजातीय समाज, आदिवासी समाजों की भाषा को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। पर सभ्यता के अधिक संपर्क में आई भाषाओं ने अपना यह नैसर्गिक बोध खोया है। सभ्य समाजों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था अधिक मुखर और नियमावली अधिक कठोर रही है, तो भाषा भी प्राय: पितृसत्ता की तरफ झुकी हुई। क्योंकि प्राय: स्त्री को हीनतर स्थितियों में सीमित कर देने वाली मानसिकता सभ्यताकृत और सत्तामूलक है।
इस भाषाई संरचना में, स्त्री को जगह न दिए जाने की मौन सहमति सर्वत्र देखी जा सकती है। एक जाना-पहचाना उदाहरण हो सकता है- ‘पुत्र’। समाज में ‘पुत्र’ की महिमा अवर्णनीय है। जिस स्त्री की सिर्फ पुत्रियां हैं, वह स्वर्ग की कामना तक से वंचित है। उसकी स्थिति ‘बांझ’ से कुछ ही ऊपर है। यही ‘पुत्र’ वंश को आगे बढ़ाने वाला, स्वर्ग की सैर कराने वाला, समाज का निर्माता है, इसलिए ‘भाई’ शब्द बड़ा प्रचलित है और अपने अर्थ में व्यापक भी। इसीलिए ‘भाईचारा’ एक बड़ा शब्द है। ‘बंधु’ है तो ‘बंधुत्व’ एक बड़ी भावना है। लेकिन इस ‘बंधुत्व’ में, इस ‘भाईचारे’ में, स्त्रीत्व की कोई गूंज नहीं! यह सीधे-सीधे उस समाज को संबोधित है, जिसमें स्त्री के लिए किसी सामाजिकता की व्यवस्था नहीं है। इसलिए ‘बंधुत्व’ में भगिनीत्व नहीं है। तो ‘बहन’ का क्या होगा? वह तो मानो इस समाज में रहती ही नहीं है! उसके लिए कोई शब्द नहीं! समाज से उसके सरोकार अदृश्य! भगिनीवाद आया भी तो धुर प्रतिरोध की शक्ल अख्तियार करता और तत्काल ही उसे जहां से आया था, उसी नारीवादी आंगन में ढकेल दिया गया और हिंदुस्तान में तो नारीवाद कभी सम्मानजनक शब्द रहा नहीं। आज भी हमारे बुजुर्ग गाली की तरह इसका इस्तेमाल करते हैं। इसलिए भगिनीवाद की भी वह जगह नहीं बन सकी, जिसकी उसे दरकार थी।
हालांकि भाषा संरचना मनुष्य की आवश्यकताओं का परिणाम है, फिर भी समाज का मानसिक झुकाव जिधर होता है, भाषा के स्वरूप पर वह प्रभाव परिलक्षित होता रहता है। यहां एकबारगी डेल स्पेंडर के ‘मैन मेड लैंग्वेज’ की तरह यह देखना बड़ी परेशानी में डालने वाला है कि भाषा गढ़न में स्त्री कितनी शामिल है? यह सवाल पुराना जरूर है, पर उतना ही नजरअंदाज न किए जा सकने वाला सच भी। पाणिनी से लेकर आधुनिक काल तक सारे वैयाकरण पुरुष थे। शिव के डमरू से सब पहले ही तय हो गया था। उसी की व्याख्याएं होती रहीं, बड़े-बड़े भाषाविद, भाषा के सवाल पर जेंडर भेद को सार्वभौम सत्य की तरह निर्धारित सत्य मानते रहे और उस पर किसी भी तरह के प्रश्नवाचक चिह्न की स्थितियों से सदा इनकार करते रहे। आज भी भाषाविद के रूप में एक भी स्त्री का नाम न होना क्या दर्शाता है? इस तरफ मत आना, यह रास्ता निषिद्ध है! यह कैसी निपट स्थिति! भाषा पर काम करने के रास्ते स्त्री के लिए इतने बंद क्यों? शिक्षा-व्यवस्था के भीतर वे भाषा विज्ञान पर पीएचडी कर सकती हैं, नौकरी भी कर सकती हैं, पर अपना मत नहीं दे सकतीं! इसके लिए वे मानसिक रूप से तैयार ही नहीं हैं! क्या विडंबना है! कुछ कोशिशें दिखती भी हैं, पर भाषा पर पितृसत्ता इस कदर सर्वाच्छादी है कि वे कोशिशें नगण्य साबित होती हैं।
हिंदी के अधिकतर वर्चस्वशाली, शक्तिसूचक शब्द पुल्लिंग हैं। यहां तक कि आत्मा और परमात्मा के संबंध को भी भाषा ने बख्शा नहीं है। ‘आत्मा’ स्त्रीलिंग और ‘परमात्मा’ पुल्लिंग होते ही अधीन और स्वामी की स्थितियां बना देते हैं। ‘आत्मा’ स्त्रीलिंग होते ही पराधीनता का प्रतीक बन जाती है, न कि स्वतंत्ररूपा, मुक्ताचारिणी। जिस समाज ने आत्मा को नहीं बख्शा, वह भला जीती-जागती स्त्री को क्या ही बख्शता! नतीजा ज्यादातर विशेषणों का भी यही हाल है! ‘बुद्धिमान व्यक्ति’ अगर लड़की है तो ‘बुद्धिमान’ से निकल कर बना विशेषण ‘बुद्धिमती’ बना दी जाएगी। मुहावरों और लोकोक्तियों का तो कहना ही क्या! क्षुद्र शब्दों को स्त्रीलिंग बना कर भी स्त्री को भाषा के भीतर उसकी औकात में रखा गया है। जैसे कि ‘डिब्बा’ पुलिंग है और बड़ा या छोटा हो सकता है, पर ‘डिबिया’ स्त्रीलिंग है और अपनी क्षुद्रता से पार नहीं पा सकती।
बेटियों को प्यार-दुलार में ‘बेटा’ कहा जाना भी इसी मानसिकता की घोषणा करता है। पिता अक्सर अपनी बेटियों को उत्साहित करते हुए कहते मिलेंगे कि ‘तू मेरा बेटा है’। मेरे एक रिश्तेदार, जब मिलते, मेरी मां से कहा करते कि ‘अल्पना आपकी बेटी नहीं, बेटा है।’ इसका चाहे जितना विरोध करो, वे अपनी बात से हटते नहीं थे। यानी ‘बेटी’ को महत्त्वपूर्ण बताने के लिए उनके पास एकमात्र वजनी शब्द ‘बेटा’ था। ‘पुत्तर’ या ‘बेटा’ कहना ‘बेटी’ को अपने आप ही हीन साबित कर देना है। मानो बेटी का काम कोई अहमियत न रखता हो। कम से कम बेटे के आगे तो वह कितना भी बड़ा हो, हीन ही रह जाता है। भाषा व्यवहार की इन स्थितियों में स्त्रियों के लिए ‘लंगोटिया यार’ शब्द नहीं गढ़ा गया। उनकी मित्रता के मायने ही क्या थे? ‘सखी’, ‘सहेली’ की छोटी-सी दुनिया, बहुत कम दूरी तक साथ चलने वाली जुगनू की टिमटिमाहट भर थी, उसे क्योंकर इतने गहरे अर्थों में व्यंजित किया जाता!
इसी आलोक में उस प्रचलित नारे को भी क्यों न जांचा जाए, जो बचपन से हमारे दिलो-दिमाग में किसी महान पूंजी की तरह प्रतिष्ठित किया जाता रहा है। वह है- ‘हिंदू मुसलिम, सिख, ईसाई, आपस में हैं भाई भाई…’। क्या यह वाक्य हमारे समाज की मानसिकता की परतें उधेड़ कर नहीं रख देता! क्या आधी आबादी भाषा के इस जाल से बाहर नहीं ठेल दी गई है। ‘भाई भाई’ ‘बंधुत्व’ के उसी विराट भाव की तरफ हमें ले जाता है, जहां स्त्रियां नदारद हैं। भाषा में उनकी अनुपस्थिति से किसी को कोई शिकायत भी नहीं है। पर क्या यही अनुपस्थिति समाज के भीतर उनकी तय कर दी गई जगह की गवाह नहीं बन जाती! और क्या इन्हीं नग्न सत्यों से होकर वह राह नहीं जाती, जो कन्या भ्रूण हत्या को किसी अपराधबोध से जोड़ कर महसूस करने की शक्ति को सोख लेती है! तो क्या यह भाषा अधूरी नहीं है, जिसमें स्त्री स्वर के विकट एकांत का संकेत तक दर्ज नहीं हो सका है। किसी अधूरी भाषा में महान साहित्य और महान समाज का स्वप्न भी अधूरा ही बनेगा। समता के कुछ अपवादों को छोड़ दें तो भी यह कहना गलत न होगा कि हमारी भाषा किस कदर स्त्री-विरोधी मानसिकता का विराट प्रदर्शन है।