उत्तर प्रदेश की राजनीति में इस समय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बनाम डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के बीच में एक सियासी मुकाबला चल रहा है। इस मुकाबले में आक्रामक बैटिंग करते हुए केशव प्रसाद मौर्य ने यूपी से दिल्ली तक की दूरी 24 घंटे के अंदर में तय कर ली। पहले कार्यसमिति की बैठक में बिना नाम लिए सीएम योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली पर सवाल उठाए, उसके बाद दिल्ली जाकर भी अपनी नाराजगी बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के सामने रख दी। अब इतनी आक्रामकता दिखाने का केशव प्रसाद मौर्य को वो फायदा नहीं मिला जिसकी उम्मीद वे लगाए बैठे थे।
केशव प्रसाद मौर्य रह गए खाली हाथ
असल में जेपी नड्डा के साथ मौर्य की 1 घंटे की मुलाकात चली, उस मुलाकात के दौरान यूपी उपचुनाव को लेकर मंथन हुआ, 2027 के विधानसभा चुनाव को लेकर रणनीति पर काम हुआ, लेकिन मौर्य को किसी भी तरह का आश्वासन नहीं मिला, उन्हें भविष्य में कोई बड़ा पद दिया जाएगा, इसकी गारंटी भी दिल्ली से अपने साथ लेकर नहीं आ पाए। इसके ऊपर मौर्य को ही नसीहत दी गई कि उन्हें ऐसे बयान देने से बचना चाहिए जिससे पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचे।
मौर्य को झटका योगी का फायदा
अब यह विफलता ही बताने के लिए काफी है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में और बीजेपी के लिए वर्तमान में योगी आदित्यनाथ से बड़ा कोई दूसरा चेहरा नहीं है। कहने को इस बार लोकसभा चुनाव के दौरान यूपी ने बीजेपी को सबसे बड़ा झटका दिया, लेकिन योगी समर्थकों ने नेरेटिव सेट करने में देरी नहीं लगाई कि योगी के पसंदीदा प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में नहीं उतारा गया।
नड्डा का बड़ा संदेश
इसके ऊपर अभी तक जो खबरें आ रही हैं, उससे साफ संदेश मिलता है कि बीजेपी हाईकमान भी योगी आदित्यनाथ को हटाने को तैयार नहीं है। जब जेपी नड्डा दो टूक कह देते हैं कि केशव प्रसाद मौर्य को सार्वजनिक मंचों से ऐसे बयान नहीं देने चाहिए जिससे पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचे, यह बताने के लिए काफी है कि वे योगी आदित्यनाथ का समर्थन करते हैं, उनके नेतृत्व को स्वीकार करते हैं।
योगी से नाराज कई विधायक, हाईकमान के करीबी
योगी आदित्यनाथ को लेकर कहा जाता है कि वे कहने को कई सालों से देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उनकी जिस प्रकार की कार्यशैली रही है, उस वजह से आज भी बीजेपी के ही कई नेता उन्हें ज्यादा पसंद नहीं करते। 2017 से जरूर वे सीएम की भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन कई मौकों पर यह देखा गया है कि विधायकों का ही एक वर्ग उन्हें ज्यादा पसंद नहीं करता। लेकिन इस सबके बावजूद भी योगी आदित्यनाथ इसलिए टिके हुए हैं क्योंकि बीजेपी हाईकमान और मोदी-शाह की जोड़ी उन्हें पसंद करती है, उन्हें सही मायने में उपयोगी मानती है, फिर चाहे यूपी की सियासत के लिहाज से हो या फिर देश की राजनीति में प्रचार के लिहाज से।
मोदी के बाद सबसे बड़े स्टार प्रचारक
योगी आदित्यनाथ ने अपनी काबिलियत और अपनी महत्वता समय-समय पर दिखा दी है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो इसी बात से समझा जा सकता है कि जब भी स्टार प्रचारक का जिक्र होता है, नरेंद्र मोदी के बाद दूसरा सबसे लोकप्रिय चेहरा योगी आदित्यनाथ का रहता है। अगर आंकड़ों से इस बात को समझने की कोशिश करें तो लोकसभा चुनाव में इस बार अगर नरेंद्र मोदी ने 206 जनसभाएं की थीं, योगी आदित्यनाथ ने अपने दम पर 204 रैलियां की। बड़ी बात यह है कि उनका प्रचार सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रहता है, कई राज्यों में बाकायदा चिट्ठी लिखकर उनके प्रचार की डिमांड की जाती है, कई सीएम सामने से योगी आदित्यनाथ का स्वागत करते हैं। यह बताने के लिए काफी है कि बीजेपी में इस समय योगी आदित्यनाथ की अहमियत और जरूरत काफी ज्यादा बढ़ चुकी है।
जातियों से बड़ा हिंदुत्व वाला चेहरा
समझने वाली बात यह भी है कि योगी आदित्यनाथ बीजेपी के लिए कोई बड़ी जाति वाला चेहरा नहीं हैं बल्कि इससे ऊपर उठकर वे हिंदुत्व का वो प्रतीक बन चुके हैं जिनके सहारे एक बड़े वोट बैंक को पार्टी अपने साथ करने की कोशिश करती है। इस बार लोकसभा के चुनाव ने जरूर बीजेपी को झटका दिया है, लेकिन इस एक विफलता को योगी आदित्यनाथ से निजी तौर पर जोड़कर नहीं देखा जा सकता।
योगी की ताकत नहीं की जा सकती नजरअंदाज
इसके ऊपर इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता आज भी काफी ज्यादा है। एक जमाने में हिंदू युवा वाहिनी के जरिए वे अपनी राजनीति किया करते थे, देखा जाता था कि अगर मठ के पसंदीदा प्रत्याशी को चुनावी मैदान में नहीं उतर जाता तो हिंदू युवा वाहिनी उससे ज्यादा तगड़ा उम्मीदवार उतार कर भाजपा के समीकरण बिगाड़ देती थी, इस वजह से तब यह बात कही जाने लगी थी कि गोरखपुर में रहना है तो योगी योगी कहना है।
कहा तो यह भी जाता है कि पूर्वांचल में हिंदुत्व की राजनीति अगर बीजेपी को थोड़ा भी आगे ला पा रही है तो उसमें योगी आदित्यनाथ की सक्रिय भूमिका है। कहने को योगी संघ से नहीं आते हैं, बीजेपी में भी शुरुआत से नहीं रहे हैं, लेकिन कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा ने उन्हें न सिर्फ अलग बनाया बल्कि कहना चाहिए बीजेपी के लिए वर्तमान में सबसे ज्यादा उपयोगी भी बनाया।
आक्रमक शैली, बीजेपी को भी सिखा चुके सबक
योगी आदित्यनाथ की आक्रामकता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि वे कभी भी किसी के सामने झुके नहीं। कौन भूल सकता है 2007 का वो समय जब बीजेपी उम्मीदवारों के खिलाफ ही उत्तर प्रदेश में 70 प्रत्याशी योगी ने अपने खड़े कर दिए थे, यानी कि योगी तभी तक सहज रहते हैं जब तक उनके मन मुताबिक काम होता रहता है। जैसे ही स्थिति कुछ विपरीत होती है या उन्हें लगने लगता है कि खेल बिगड़ रहा है, वे अलग तेवर दिखाने लग जाते हैं।
योगी ने कब दिए बीजेपी को झटके?
बात 2017 की है जब योगी आदित्यनाथ नए-नए मुख्यमंत्री बने थे। मुख्यमंत्री बनने की वजह से उन्हें अपनी संसदीय सीट गोरखपुर छोड़नी पड़ी, फिर वहां पर उपचुनाव हुए और योगी के घर में बीजेपी की हैरान कर देने वाली हार हो गई। अब मुख्यमंत्री के विरोधी ऐसा मानते हैं कि योगी ने खुद ही मन से प्रचार नहीं किया था और इस वजह से बीजेपी को हार झेलनी पड़ी। घोसी का उपचुनाव भी इसी बात का प्रमाण माना जाता है जब दारा सिंह चौहान को हार देखनी पड़ी थी। असल में दारा सिंह चौहान कुछ समय पहले ही बीजेपी में शामिल हुए थे और योगी उनका ज्यादा समर्थन नहीं कर रहे थे। इसी वजह से ऐसा माना गया कि सीएम द्वारा खुलकर उनके पक्ष में प्रचार नहीं किया गया। यह दोनों घटनाएं बताने के लिए काफी हैं कि योगी आदित्यनाथ मन मुताबिक और अपने हिसाब से काम जरूर करते हैं लेकिन चीज अगर उनके विपरीत जाने लगे तो वह जवाब देना भी जानते हैं।
योगी नहीं हटेंगे, मौर्य की रणनीति बैकफायर?
बीजेपी इस बात को अच्छी तरह समझती है और यह भी एक बहुत बड़ा कारण है कि केशव प्रसाद मौर्य की तमाम आपत्तियों के बाद भी अभी तक योगी के खिलाफ खुलकर हाईकमान की तरफ से कुछ क्यों नहीं बोला गया। योगी आदित्यनाथ के खिलाफ कोई एक्शन ना लेने का एक कारण यह भी समझ आता है पिछड़े समाज और ब्राह्मणों को भाजपा किसी भी कीमत पर नाराज नहीं कर सकती है। इसी वजह से योगी आदित्यनाथ को हटाने का सवाल नहीं उठाता, यह जरूर है कि संगठन में कुछ बदलाव कर सभी समाज के वर्गों को हिस्सेदारी दी जा सकती है।