रंजना मिश्रा

विश्व बैंक का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक सूखे के चलते 21.6 करोड़ लोगों को पलायन करने पर मजबूर होना पड़ सकता है। यानी भविष्य में सूखे की स्थिति और अधिक गंभीर होने वाली है। दरअसल, सूखा पर्यावरण और समाज के विभिन्न पहलुओं को बुरी तरह प्रभावित करता है। जब वर्षा नहीं होती तो फसलें खराब हो जाती हैं। फसलों के खराब होने से अनाज की समस्या पैदा होती है, जिससे भुखमरी और अकाल की स्थिति उत्पन्न होती है।

जलवायु परिवर्तन, भूक्षरण और पानी के लगातार दोहन की वजह से आज विश्व का एक बड़ा हिस्सा सूखे की भीषण समस्या से जूझ रहा है। हरे-भरे जंगल मरुस्थल में बदलते जा रहे हैं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में, आने वाले समय में, जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की घटनाओं में वृद्धि की संभावना जताई है। इस रिपोर्ट के अनुसार, साल 2000 से 2019 के बीच एक अरब से अधिक लोग सूखे से प्रभावित हुए हैं।

हालांकि कोई भी क्षेत्र सूखे से नहीं बच सका, लेकिन अफ्रीका महाद्वीप इससे सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। भविष्य में अमेरिकी महाद्वीप, भारत और आस्ट्रेलिया की स्थिति भी चिंताजनक हो सकती है। 2000 से 2019 के दौरान अफ्रीका में 134 सूखे की घटनाएं हो चुकी हैं। 70 सूखे की घटनाएं सिर्फ पूर्वी अफ्रीका में देखने को मिलीं।

अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर तापमान इसी तरह बढ़ता रहा तो साल 2031 तक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है और सूखे के कारण दुनिया को और अधिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह आगे चलकर पांच गुना तक बढ़ सकता है। सूखे से प्रभावित होने वाले देशों में सबसे अधिक अल्प विकसित और विकासशील देश शामिल हैं।

किसी भी क्षेत्र में जब लंबे समय तक वर्षा नहीं होती तो वहां जल की कमी हो जाती है। इस स्थिति में वहां सूखा पड़ता है। वैसे यह एक सामान्य घटना है, जो सभी तरह के जलवायु क्षेत्रों में, चाहे वे आद्र हों या शुष्क, देखने को मिलती है। सूखा मुख्यत: तीन प्रकार का होता है। मौसम संबंधी सूखा, कृषि संबंधी सूखा और हाइड्रोलाजिकल सूखा। मौसम संबंधी सूखे में बहुत समय तक अपर्याप्त या बहुत कम वर्षा होती है।

इसके अलावा वर्षा का असमान वितरण भी इस प्रकार के सूखे को बढ़ावा देता है। मौसम संबंधी सूखे को वर्षा की मात्रा और शुष्कता के आधार पर मापा जा सकता है। कृषि संबंधी सूखे का कारण मिट्टी में पर्याप्त नमी की कमी का होना है। क्योंकि मिट्टी में नमी की कमी होने पर फसल नहीं पैदा होगी। इस तरह वर्षा की कमी होने पर कृषि संबंधी सूखा देखने को मिलता है। नदियों और झीलों जैसे जल निकायों में कम वर्षा होने के कारण जल की कमी हो जाती है, जिससे हाइड्रोलाजिकल सूखा पड़ता है।

भारत एक कृषि प्रधान देश है और इसका अधिकांश कृषि क्षेत्र मानसूनी वर्षा पर निर्भर है। जल शक्ति मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश का लगभग 68 प्रतिशत हिस्सा अलग-अलग स्तरों पर सूखे से ग्रसित है। आंकड़े बताते हैं कि भारत के 35 प्रतिशत क्षेत्रों में 750 मिलीमीटर से 1125 मिलीमीटर तक वर्षा होती है, जबकि 33 प्रतिशत क्षेत्रों में 750 मिलीमीटर से भी कम वर्षा होती है, ये क्षेत्र ही सूखे से ज्यादा प्रभावित रहते हैं।

सूखे के दो स्तर होते हैं, एक सामान्य सूखा, दूसरा गंभीर सूखा। जब किसी क्षेत्र में वर्षा की कमी 26 प्रतिशत से 50 प्रतिशत के बीच होती है तो उसे सामान्य सूखा माना जाता है, लेकिन अगर वर्षा की कमी पचास प्रतिशत से अधिक हो जाती है तो इसे गंभीर सूखे की श्रेणी में रखा जाता है। वैसे राज्य सरकारें अपने अलग-अलग पैमानों को आधार बनाकर सूखा प्रभावित क्षेत्रों का निर्धारण करती हैं।

भारत में सूखे से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्यप्रदेश हैं। इसके अलावा गुजरात, उत्तर प्रदेश का कुछ इलाका, झारखंड और ओड़ीशा का आंतरिक क्षेत्र तथा तमिलनाडु का दक्षिणी हिस्सा भी इससे प्रभावित रहता है। भारत में सूखे का मुख्य कारण मानसून के दौरान कम वर्षा का होना है। देखा गया है कि अगर मानसून 10 से 20 दिनों की देरी से आता है तब भी सूखा पड़ता है।

भारत में पड़ने वाले सूखे का एक प्रमुख कारण, यहां होने वाली वर्षा का असमान वितरण भी है। यानी कुछ क्षेत्रों में तो वर्षा काफी ज्यादा हो जाती है, लेकिन कुछ क्षेत्रों में वर्षा काफी कम होती है। इसके अलावा भारत में 80 प्रतिशत वर्षा 100 से कम दिनों में हो जाती है, जबकि शेष दिनों में केवल 20 प्रतिशत वर्षा होती है। इसके अलावा, भारत की कृषि पद्धति भी सूखे के लिए उत्तरदायी है।

कई क्षेत्रों में ऐसी फसलें उगाई जाती हैं, जिनके लिए पानी की मांग काफी ज्यादा होती है, लेकिन वहां पर पानी कम मात्रा में उपलब्ध रहता है। इसके कारण उस क्षेत्र में सूखा देखने को मिलता है। विश्व बैंक का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक सूखे के चलते 21.6 करोड़ लोगों को पलायन करने को मजबूर होना पड़ सकता है। यानी भविष्य में सूखे की स्थिति और अधिक गंभीर होने वाली है।

दरअसल, सूखा पर्यावरण और समाज के विभिन्न पहलुओं को बुरी तरह प्रभावित करता है। जब वर्षा नहीं होती तो फसलें खराब हो जाती हैं। फसलों के खराब होने से अनाज की समस्या पैदा होती है, जिससे भुखमरी और अकाल की स्थिति उत्पन्न होती है। यह स्थिति लोगों की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करती है।

इसके अलावा वर्षा की कमी के कारण विभिन्न क्षेत्रों में जल की भी कमी हो जाती है और जब लोगों के पास पीने के लिए स्वच्छ पानी नहीं होता तो लोग गंदा पानी पीने को मजबूर हो जाते हैं, जिसकी वजह से उनमें अनेक बीमारियां पैदा होती हैं। पानी की कमी होने से जानवरों के चारे और पानी की भी समस्या उत्पन्न होती है। जिससे बड़े स्तर पर जानवरों की मौतें होती हैं।

जो देश के पशुपालन उद्योग पर बुरा असर डालती है। सूखे के कारण वनों का ह्रास होता है। गरीबी बढ़ जाती है। स्वास्थ्य एवं कुपोषण जैसी समस्याओं में बढ़ोत्तरी होती है। जमाखोरी के कारण महंगाई बढ़ जाती है। जीवन स्तर में गिरावट आना और सामाजिक अशांति तथा पलायन जैसी समस्या सूखे की स्थिति से पैदा होती है।

सूखे से बचने के लिए हमें कुछ उपाय अपनाने चाहिए। हमें यह जानने के लिए कि कौन-कौन से क्षेत्र और कौन-कौन से समुदाय सूखे से अधिक प्रभावित हैं, विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों की सुभेद्मता प्रोफाइल बनानी चाहिए, ताकि उन क्षेत्रों को सूखे से बचाने के लिए कुछ नीतियां बनाई जा सकें। सिंचाई में जल की अधिक मात्रा की जरूरत पड़ती है, इसलिए सिंचाई तंत्र में जल का उचित प्रबंधन करके सूखे से बचा जा सकता है।

शुष्क तथा अनावृष्टि वाले क्षेत्रों में जल की आपूर्ति के लिए प्रमुख नदियों को आपस में जोड़कर एक ग्रिड बना देना चाहिए। जल संग्रहण के लिए छोटे बांधों का निर्माण किया जाना चाहिए। जल की बर्बादी को रोकने के लिए सिंचाई के तरीकों में परिवर्तन करना चाहिए और बूंद सिंचाई, स्प्रिंकलर सिंचाई आदि को अपनाना चाहिए। सूखा वाले क्षेत्रों में आर्गेनिक खेती जीवनदायी साबित होती है।

इस संबंध में आइसीटी यानी इनफार्मेशन एंड कम्युनिकेशन टेक्नोलाजी के उपयोग को भी बढ़ावा देना चाहिए और इस संबंध में सरकार को दिशा निर्देश जारी करने चाहिए कि सूखे से निपटने के लिए आइसीटी टेक्नोलाजी का किस प्रकार उपयोग करना है। साथ ही हमें रियल टाइम डेटा संग्रहण पर भी ध्यान देना होगा, ताकि जब सूखे की स्थिति पैदा हो रही हो, तभी उसे प्रारंभिक चरण पर ही रोकने की कार्यवाही की जा सके। सूखे की आपदा से संबंधित जो भी नीतियां निर्धारित की जाएं, उनका जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन करना सुनिश्चित किया जाना चाहिए तभी इससे बचाव का सही प्रबंधन हो सकेगा।