प्राकृतिक आपदाएं केवल भौतिक रूप से ही विनाश नहीं लातीं, बल्कि वे उन अदृश्य सामाजिक खामियों को भी उजागर कर देती हैं, जो अलग-अलग सामाजिक वर्गों के आधार पर लोगों के जीवन को प्रभावित करती हैं। ये घटनाएं समाज में पहले से मौजूद असमानताओं को और गहरा कर देती हैं। यों प्रभावित इलाकों में सभी पर इनका असर पड़ता है, लेकिन विशेष रूप से महिलाएं और लड़कियां इन आपदाओं के प्रभाव से ज्यादा जोखिम झेलती हैं। उनके स्वास्थ्य, विस्थापन, शिक्षा, आजीविका और सुरक्षा जैसे मूलभूत अधिकार संकट में पड़ जाते हैं।

अध्ययन बताते हैं कि चाहे चक्रवात हो, बाढ़ व सूखा हो या फिर भूकम्प, इन आपदाओं के समय महिलाओं और बच्चों की मृत्यु की संभावना पुरुषों की तुलना में कई गुना अधिक होती है। जलवायु परिवर्तन के कारण जो लोग विस्थापित होते हैं, उनमें से लगभग अस्सी फीसद महिलाएं होती हैं। यह आंकड़ा तब और भयावह हो जाता है, जब हम यह देखते हैं कि मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थाएं महिलाओं को न तो वैकल्पिक आजीविका के पर्याप्त अवसर देती हैं और न ही उन्हें प्रकृति के साथ अपनी पारंपरिक गतिशीलता बनाए रखने की स्वतंत्रता देती हैं। वर्ष 2010 में पाकिस्तान में आई विनाशकारी बाढ़ ने भी इस कठोर सच्चाई को उजागर किया था। सीमित स्वतंत्रता और संसाधनों तक कठिन पहुंच ने वहां की महिलाओं को और अधिक असुरक्षित बना दिया।

भारत के कई भागों में हर वर्ष आने वाली बाढ़ हजारों लोगों को विस्थापित कर देती है, लेकिन महिलाएं इस त्रासदी को और अधिक कठिन रूप में झेलती हैं। विशेष रूप से खुले में शौच जैसी बुनियादी मजबूरी, जो उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और सम्मान को खतरे में डाल देती है। बाढ़ या अन्य आपदाओं के दौरान साफ पानी, साबुन, सैनिटरी पैड, कपड़े और निजी स्थान जैसी आवश्यक सुविधाएं दुर्लभ हो जाती हैं।

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महिलाएं और लड़कियां अक्सर असुरक्षित विकल्पों का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हो जाती हैं, जिससे विभिन्न तरह के संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। इतिहास और आंकड़े भी इसी ओर संकेत करते हैं। वर्ष 1991 में बांग्लादेश में आए चक्रवात में मरने वालों में ज्यादातर महिलाएं थीं। वर्ष 2003 में यूरोप में गर्मी की लहर ने फ्रांस में सबसे अधिक वृद्ध महिलाओं की जान ली। अमेरिका में कैटरीना तूफान के दौरान गरीब तबके की अफ्रीकी-अमेरिकी महिलाएं सबसे अधिक प्रभावित हुईं।

एक और अहम पहलू पोषण का है। विशेषज्ञों के अनुसार, किसी व्यक्ति की पोषण स्थिति यह निर्धारित करती है कि वह आपदा का सामना कितनी क्षमता से कर सकता है। एक रपट बताती है कि दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की 45 से 60 फीसद महिलाओं का वजन सामान्य से कम है और 80 फीसद गर्भवती महिलाएं आयरन की कमी से ग्रस्त हैं। केन्या में महिलाएं प्रतिदिन पानी लाने के लिए अपनी लगभग 85 फीसद ऊर्जा खर्च करती हैं और सूखे के समय यह भार और अधिक बढ़ जाता है।

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दूसरी ओर, वैश्विक विश्लेषण यह दर्शाता है कि जिन देशों में महिलाएं अधिक सशक्त हैं, वहां आपदाओं के समय मृत्यु दर में लैंगिक आधार पर अंतर अपेक्षाकृत कम होता है। आपदा के बाद सबसे पहले महिलाएं अपनी आजीविका के साधनों से वंचित होती हैं- जैसे खेत, मवेशी, दुकानें या घरेलू श्रम। जब आर्थिक स्वतंत्रता छिन जाती है, तो वे घरेलू हिंसा, यौन शोषण, तस्करी और अन्य प्रकार के सामाजिक शोषण का शिकार होने लगती हैं। पुनर्वास योजनाएं अक्सर तटस्थ होती हैं, जो महिलाओं की विशेष आवश्यकताओं और परिस्थितियों को अनदेखा कर देती हैं। इस प्रकार महिलाएं दोहरी मार सहती हैं- एक आपदा की और दूसरी सामाजिक ढांचों की।

शिक्षा का अधिकार भी इस संकट का हिस्सा बन जाता है। जब आपदाओं के कारण विद्यालय लंबे समय तक बंद रहते हैं, तो विशेष रूप से लड़कियां शिक्षा से बाहर हो जाती हैं। कई बार यह स्थिति उन्हें समय से पहले विवाह की ओर धकेल देती है, जिससे उनके अधिकार, सपने और संभावनाएं समय से पहले दम तोड़ देती हैं। एक और रपट बताती है कि वर्ष 2022 में प्राकृतिक आपदाओं के कारण दुनिया भर में 3.28 करोड़ लोग विस्थापित हुए, जिनमें से लगभग आधी महिलाएं और लड़कियां थीं।

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इन महिलाओं ने यौन हिंसा, कुपोषण, स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता और शिक्षा में व्यवधान जैसी गंभीर समस्याओं का सामना किया। इसी तरह, एक आंकड़े के मुताबिक, वर्ष 2004 की सुनामी में अंडमान-निकोबार, श्रीलंका और इंडोनेशिया में पुरुषों की तुलना में दोगुनी संख्या में महिलाएं मारी गईं। राहत शिविरों में यौन उत्पीड़न और असुरक्षित प्रसव की समस्याओं ने व्यवस्था को बेनकाब कर दिया। श्रीलंका में अधिक पुरुष जीवित रह पाए, क्योंकि उन्हें तैरना और पेड़ पर चढ़ना सिखाया गया था। वहीं लड़कियों को ये अवसर आमतौर पर नहीं मिलते। लैंगिक आधार पर यह सामाजिक विभेद आपदाओं के समय प्राणघातक साबित होता है।

भारत में हर वर्ष औसतन छह से आठ बड़े चक्रवात आते हैं और बाढ़ देश के लगभग चार करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र को प्रभावित करती है। वर्ष 2019 में ओड़ीशा का फेनी चक्रवात, 2020 में पश्चिम बंगाल में अम्फान और हर वर्ष बिहार और असम में बाढ़ लाखों लोगों को विस्थापित करती रही है। अम्फान से प्रभावित हुए 1.5 करोड़ लोगों में महिलाओं को राहत शिविरों में स्वच्छता, गोपनीयता और सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं की गंभीर कमी का सामना करना पड़ा।

वर्ष 2023 में आई बाढ़ के दौरान बिहार में कई महिलाओं को प्रसव के समय प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हो सकीं। असम में वर्ष 2022 की बाढ़ के बाद लड़कियों के स्कूल छोड़ने की दर में 18 फीसद की वृद्धि देखी गई। बाल विवाह, मानसिक तनाव और यौन हिंसा की घटनाओं में भी बढ़ोतरी हुई।

आपदाओं के बाद महिलाओं की मानसिक स्थिति बेहतर नहीं रहती। वे न केवल अपने परिजनों की क्षति का ज्यादा शोक मनाती हैं, बल्कि अपने अस्तित्व और भविष्य की सुरक्षा के लिए भी संघर्ष करती हैं। राहत शिविरों की असुरक्षित परिस्थितियां, समाज में गहरी असमानता और निर्णय प्रक्रिया से उनकी अनुपस्थिति उन्हें और अधिक हाशिये पर धकेल देती है। आपदा के दौरान महिलाएं अक्सर अपने बच्चों-बुजुर्गों और परिवार के अन्य सदस्यों की देखभाल में जुट जाती हैं, जिससे स्वयं की सुरक्षा और राहत पाने के अवसर उनसे छूट जाते हैं।

यह स्पष्ट है कि कोई भी प्राकृतिक आपदा स्वयं में अलग-अलग सामाजिक वर्गों के बीच भेद नहीं करतीं, लेकिन उनके प्रभाव सामाजिक व्यवस्था में निहित असमानताओं के कारण असमान रूप से महसूस किए जाते हैं। विशेषकर ग्रामीण, आदिवासी और वंचित समुदायों की महिलाएं इस असमानता का सबसे बड़ा भार उठाती हैं। इसलिए, आपदा प्रबंधन को केवल तकनीकी प्रतिक्रिया के रूप में न देख कर उसे संवेदनशील, न्यायसंगत और सहभागितापूर्ण दृष्टिकोण से समझना और लागू करना अत्यंत आवश्यक है।

महिलाएं केवल राहत प्राप्त करने वाली नहीं, बल्कि नेतृत्वकर्ता और निर्णायक भूमिका वाली बनें। यह बदलाव आपदा प्रबंधन की प्रभावशीलता को भी मजबूत करेगा और समाज को अधिक समावेशी, सशक्त और टिकाऊ बनाएगा। तभी हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ सकेंगे, जो न केवल आपदाओं का सामना कर सके, बल्कि सभी नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं के लिए सुरक्षित और समान अवसर भी सुनिश्चित कर सके।