प्रगति के तमाम दावों के बीच हकीकत यह है कि अंधविश्वास की घटनाएं कम होने का नाम नहीं ले रहीं। जादू-टोना, भूत-प्रेत, काला जादू जैसी चीजें अब भी आम बातें हैं। हर कहीं ओझा-गुनिया, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक के झूठे कारनामे और इसमें जकड़े लोगों को देखना आम है। जानते-समझते हुए भी बहुत-से लोग ऐसे फरेबियों के फेर में बड़े से बड़ा नुकसान करा बैठते हैं। मगर परंपराओं के नाम पर चल रही कुरीतियां हैं कि रुकने का नाम ही नहीं लेतीं। ऐसी ही एक कुरीति है ‘दगना’, जो समय के साथ पल रही है। यह प्रगतिशील समाज के साथ शासन-प्रशासन के लिए भी चिंता का विषय है।

जनजातीय संस्कृति में भी कुछ प्रथाएं गलत और बेहद खौफनाक हैं

यों तो इस तरह की कुछ अन्य प्रथाएं अमूमन सभी समुदायों में पाई जाती हैं, मगर आदिवासी और जनजातीय संस्कृति में भी कुछ प्रथाएं गलत और बेहद खौफनाक होती हैं। ये इतनी गहराई तक पैठ जमाए हैं कि लाख कोशिशों और जन-जागरूकता के बावजूद कोई असर पड़ता नहीं दिखता। प्राय: किसी नवजात को सांस लेने में तकलीफ, पेट संबंधी या फिर दूसरी बीमारियां होते ही कुछ जनजातीय लोग उसे गर्म लोहे से दगवाते हैं।

अनपढ़ ओझा, गुनिया, भोपा और झाड़-फूंक करने वालों करते हैं कमाई

इससे जान तक चली जाती है। कई राज्य अब भी दगना कुप्रथा से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। इसे लेकर कुछ इलाके लंबे समय से सुर्खियों में हैं। ऐसी घटनाओं को कहीं डाम, तो कहीं दगना, कहीं चिड़ी काठी, कहीं चिड़ी दाग तो कहीं चेंका कहा जाता है। इस कुप्रथा के और भी कई नाम हैं। यह शरीर को दागकर इलाज का दावा करने वाले अनपढ़ ओझा, गुनिया, भोपा और झाड़-फूंक करने वालों का कमाई का जरिया भी है।

एमपी, राजस्थान, यूपी, छत्तीसगढ़, बिहार, ओड़ीशा में भी चलता है खेल

निरा आदिवासी-जनजातीय इलाकों सहित कई शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों तक फैली दगना प्रथा तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद नहीं रुक पा रही है। इसके ज्यादातर शिकार कुपोषित और दूसरी बीमारियों से ग्रस्त मासूम बच्चे और कई जगह बड़े भी हो रहे हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, ओड़ीशा, महाराष्ट्र सहित कई राज्य दगना के चंगुल से अब तक मुक्त नहीं हो सके हैं। लोग प्राय: दस-पंद्रह दिन के बच्चे तक को दगवा देते हैं। दुधमुंहे बच्चों से लेकर बड़ों की नाभि के आसपास गर्म लोहे की छड़, तो कहीं सरिया, हंसिया से दागा जाता है।

मध्य प्रदेश का जनजातीय शहडोल संभाग फिलहाल सबसे ज्यादा चर्चा में है। यहां अब भी लगातार ऐसी घटनाएं घट रही हैं। इसके चलते वहां मौतों का आंकड़ा भी बढ़ रहा है। इसे लेकर एक बार जिला प्रशासन और मेडिकल कालेज तक आमने-सामने आ चुके हैं। फरवरी-2023 में एक प्रकरण शहडोल से सटे कठौतिया (सिंहपुर) गांव से आया। तीन माह की मासूम को सांस और पाचन संबंधी दिक्कतें थीं। अंधविश्वासी पिता ने इक्यावन बार गर्म सलाखों से उसके शरीर को जहां-तहां दगवाया। इससे तबियत सुधरने के बजाय बिगड़ती गई। अंतत: बच्ची को मेडिकल कालेज में भर्ती कराया गया, लेकिन बचाई नहीं जा सकी। इसमें कलेक्टर ने मौत का कारण न्यूमोनिया बताया, तो मेडिकल कालेज ने दगना के घाव। असल में बच्ची कुपोषित थी।

सच्चाई यह भी है कि आदिवासी-जनजातीय समाज में गर्भवती माताओं की सही देखभाल न होने से प्राय: कुपोषित बच्चे जन्म लेते हैं। शासन-प्रशासन को इसकी जानकारी रहती है। जगह-जगह आशा कार्यकर्ता, एएनएम और आंगनबाड़ियां हैं। जिलों में कुपोषण पुनर्वास केंद्र भी है, लेकिन लगता है कि सब कागजों में ही व्यवस्थित होता है। धरातल के हालात अलग होते हैं। शहडोल संभाग में दगना कुप्रथा से दो हजार से ज्यादा बच्चों के शिकार होने की सुर्खियों ने सबका ध्यान खींचा। अभी बीते महीने अनूपपुर जिले से ऐसा मामला सामने आया, जिसमें एक वयस्क के पेट को गर्म हंसिये से दागते हुए वीडियो बनाया गया, जो काफी प्रसारित हुआ।

अंधविश्वास का यही खेल राजस्थान में भी जहां-तहां होता है। यहां भोपे मासूमों को डाम दाग का दर्द देते हैं। बीमारी ठीक करने के नाम पर शरीर गर्म सरिये से दागते हैं। ऐसे भी प्रकरण आए, जिसमें इसके बाद तबियत बिगड़ने पर अस्पताल ले जाए गए बच्चों की मौत तक हो गई। कई जगह ऐसी घटनाएं होने के बावजूद डाम को लेकर अंधविश्वास कायम है। प्रशासन के सामने हो रही घटनाओं और भोपों के ठिकानों पर कार्रवाई न होने से उनके हौसले नहीं टूट रहे हैं। कई ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा, अंधविश्वास और गरीबी के चलते, बच्चों को अस्पताल के बजाय भोपे के पास लाया जाता है। प्राय: चिकित्सक भी स्वीकार करते हैं कि ऐसे अंधविश्वास के शिकार कई बच्चे अब दुनिया में नहीं हैं। पर, परंपरा के नाम पर प्रथा जारी है।

ऐसी ही परंपरा झारखंड के गांवों में भी है। वहां का आदिवासी-जनजातीय समाज इसे चिड़ी दाग कहता है। जनवरी में मकर संक्रांति के समय टुसू पर्व पर गांव-गांव, बच्चों को दागने का सिलसिला शुरू हो जाता है। विशेषकर कोल्हान क्षेत्र के पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम और सरायकेला, खरसावां में ज्यादा होता है, जहां बड़े-बड़े जमघट लगते हैं। बच्चों को लाकर, बलपूर्वक खटिया पर लिटाकर, हाथ-पैर जकड़ते हैं फिर ओझा नाभि पर सरसों का तेल लगाकर गर्म सलाखों से दागता है। धारणा है कि ऐसा करने से पेट संबंधी बीमारी नहीं होती।

कमोबेश यही कुप्रथा ओड़ीशा में भी है। यहां इसे चेंका कहते हैं। इसमें जन्म के सात से इक्कीस दिनों के बच्चों को दागते हैं। अंधविश्वास है कि बच्चा बीमार पड़ता है या फिर नीली शिरा दिखती है, तो उसे बुरी आत्मा का प्रभाव मानते हैं। मान्यता है कि पेट दागने से वह भाग जाएगी और बच्चा बुरी नजर से बच जाएगा। मकर संक्रांति के फसल उत्सव के दौरान यहां सब जोर-शोर से होता है। बीमार स्त्री-पुरुष को भी चेंका दागते हैं। यह काम यहां के खास ओझा करते हैं। ये पारंपरिक चिकित्सक कहलाते हैं।

मगर ओड़ीशा में इससे बाहर निकलने का अनूठा प्रयोग सफल हुआ है। राज्य सरकार ने आदिवासियों के सशक्तीकरण के लिए यूनिसेफ की साझेदारी से ‘जीवन संपर्क’ योजना शुरू की। लक्ष्य स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों के साथ चेंका प्रथा रोकना था। दागने का काम करने वाले बिशारी समुदाय को जब बताया गया कि वे दंडनीय कृत्य कर रहे हैं, तो जबरदस्त विरोध हुआ।

मगर जब सबको विश्वास में लेकर समझाया गया कि उन्हें पूजा, पाठ, अनुष्ठान छोड़ने की जरूरत नहीं है, बल्कि बच्चों को देखें और अस्पताल भेजें। कुछ लोग जैसे-तैसे राजी हुए, बच्चे अस्पताल पहुंचने लगे। दूसरे स्तर पर आशा, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और एएनएम के साथ मिलकर काम किया गया। जन सहयोग से चेंका करने वालों को सरकारी योजनाओं की लाभ-हानि के प्रति सजग किया गया। अगर कोई राजी नहीं होता, तो योजनाओं और राशन कार्ड जब्ती का डर पैदा किया जाता है। इससे भी बड़ा बदलाव आने लगा। दगना जैसी कुप्रथाओं को रोकने के लिए ओड़ीशा माडल की पूरे देश में जरूरत है।