राष्ट्रीय राजनीति में बिहार में सियासी उथल-पुथल की अपनी अहमियत है। लेकिन इस मसले पर होने वाली चर्चा में सबसे ज्यादा केंद्र में रहने वाला मुद्दा जाति होता है। ऐसा नहीं कि दूसरे राज्य इससे अछूते हैं। लेकिन बिहार की राजनीति में जाति या जातिगत समीकरणों को चुनावी दौड़ में एक प्रभावी तत्त्व के तौर पर देखा जाता रहा है। यही वजह है कि चुनावी घोषणा होने के बाद लगभग सभी दलों और गठबंधनों में जातिगत समीकरणों के हिसाब-किताब का पूरा खयाल रखा जा रहा है। लेकिन सवाल है कि क्या सचमुच बिहार में सब कुछ आखिरकार जाति-केंद्रित ही होता है?

लेखक और पत्रकार प्रियदर्शन कहते हैं कि मंडल के उभार को भाजपा ने अपने कमंडल और अपनी सामाजिक इंजीनियरिंग के जरिए कुछ वर्षों तक थाम लिया था। लेकिन यह तय हो गया कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में राजनीतिक नेतृत्व अब पिछड़ों के हाथ से छीनना आसान नहीं होगा। इसी बिंदु से बिहार चुनावों को देखा जा सकता है। सामाजिक न्याय के उद्धत नुमाइंदे के तौर पर लालू यादव को भाजपा ने दस साल पहले नीतीश कुमार की मदद से रोक लिया। लेकिन दरअसल नीतीश लालू के विरोधी नहीं थे, एक ऐतिहासिक प्रक्रिया में उनके पूरक थे। बिहार में अगर लालू नहीं आते तो नीतीश का रास्ता नहीं बनता।

नीतीश नहीं होते तो जीतनराम मांझी जैसे अतिदलित नेता की अहमियत नहीं होती, और नीतीश-लालू नहीं होते तो भाजपा की राजनीति में पासवान, कुशवाहा और मांझी की मौजूदा हैसियत नहीं होती। इस लिहाज से जिसे हम जातिवादी राजनीति कह रहे हैं, वह नहीं होती तो बिहार या देश में वही अगड़ा यथास्थिति बनी रहती जिसमें लोकतंत्र कुछ लोगों के हाथ का खिलौना होता। बेशक, इस सामाजिक राजनीति के कुछ उदास करने वाले पहलू हैं- भ्रष्टाचार और अपराधीकरण से उसका नाता तकलीफदेह है और अंतत: इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के खिलाफ जाता है। लेकिन जातिवाद, अपराधीकरण और पैसे के इस खेल पर थू-थू करने वाले अक्सर अपने चुनावी फायदे के लिए इससे कहीं ज्यादा गर्हित समझौते और खतरनाक सांप्रदायिक राजनीति करते देखे जाते हैं। पिछले 65 वर्षों का इतिहास आश्वस्त करता है कि हमारा लोकतंत्र अंतत: अपनी विषमताओं-विडंबनाओं को पचा लेगा।

इस संबंध में पटना विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष आरएन शर्मा कहते हैं कि राजग और महागठबंधन, दोनों ही इन चुनावों में जातिगत ध्रुवीकरण को मीडिया के केंद्र में ला रहे हैं। लेकिन इन सबकी नजर बिहार की युवा पीढ़ी पर नहीं है। वह युवा पीढ़ी, जो वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट पढ़ रही है और इस बात को लेकर दुखी है कि चंद्रबाबू नायडू ने तो एक टूटे-फूटे राज्य को विकास की दौड़ में दूसरे नंबर पर ला दिया। बिहार का छोटा भाई झारखंड निवेशकर्ताओं को आकर्षित कर तीसरे पायदान पर बैठा है और हमारा बिहार 21वें स्थान पर आंसू बहा रहा है। यह युवा वर्ग जाति के गणित को नकार कर रोजी-रोटी का सवाल उठा रहा है, बीमारू राज्य की तोहमत से बाहर निकलने के लिए छटपटा रहा है। इस वर्ग का जनादेश जाति नहीं, काम पर होगा।

जबकि चुनाव विशेषज्ञ शैवाल गुप्ता कहते हैं कि बिहार में हर चुनाव में जाति की राजनीति होती है। यहां पहले नीतीश कुमार ने जाति के ध्रुवीकरण पर जोर दिया और अब वही रणनीति भाजपा अपना रही है। जाति में भी यहां बैकवर्ड क्लास का समीकरण हावी होता है। इसके ठीक उलट अगर सवर्णों का ध्रुवीकरण हो रहा है तो उसे जातिवाद के तौर पर नहीं देखा जाता है। बिहार में दक्षिण भारत की तरह मल्टीकास्ट सोशल मूवमेंट नहीं हुआ है। यहां सिर्फ जाति और राष्ट्र की ही अस्मिता है। तमिल और मराठी की तरह यहां जल्दी कोई खुद को बिहारी नहीं बोलता है। यहां राजपूत, भूमिहार वगैरह जातिवादी पहचान देखी जाती है।

लेकिन समूचे चुनाव को जातिवाद के चश्मे से देखना एक अतिवादी रवैया भी लगता है। पटना सिविल सोसायटी के सेक्रेटरी अशोक कुमार का कहना है कि जाति भारतीय समाज का कटु यथार्थ है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन बिहार का चुनाव जातीय समूहों का मिलन समारोह नहीं है। चुनावों में बड़े मुद्दे पर बिहारी समाज अपने ढंग से प्रतिक्रिया देगा जो जाति आधारित कतई नहीं होगी। राष्ट्रीय आंदोलन के समय में भी लोग जातीय समूहों में ही, जातीय मंचों के जरिए एक प्लेटफॉर्म पर आए थे। समाज को जो प्लेटफॉर्म मिलेगा, वह उसी के जरिए तो आएगा।

इतिहासकार डॉक्टर अखिलेश कुमार कहते हैं कि जातिवाद को हथियार बनाकर बिहार की जनता को असली मुद्दों से भटकाने में राजनीतिक दलों को महारत मिल चुकी है। बिहार की सबसे बड़ी समस्या यहां के बौद्धिक वर्ग की चुप्पी है, जो जनवादी मुद्दों को लेकर जनता के बीच नहीं जाते। बुद्धिजीवी वर्ग मुख्यधारा की राजनीति से दूर है और जनता के बीच सिर्फ राजनेताओं का संदेश जा रहा है। जरूरत है कि ज्ञानी, विज्ञानी, साधु-संत और स्वयंसेवी संस्थाएं एकजुट हो जातिवाद के खिलाफ जागरूकता फैलाएं।
तो देखना यह है कि कई वजहों से बेहद अहम हो गया बिहार विधानसभा का इस बार का चुनाव अपने आखिरी नतीजे में क्या तस्वीर पेश करता है।

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