पुण्य प्रसून वाजपेयी
पहली बार संघ और सरकार के भीतर यह आवाज गूंजने लगी है कि जनवरी 2016 के बाद भाजपा का अध्यक्ष कौन होगा। ये सवाल मौजूदा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की सफलता या असफलता से हटकर प्रधानमंत्री मोदी को ज्यादा मजबूत बनाने की दिशा में उठे हैं। चूंकि शाह को राजनाथ के कार्यकाल के बीच में ही अध्यक्ष बनाया गया था तो जनवरी 2016 में अमित शाह का कार्यकाल पूरा होगा और दिल्ली-नागपुर के बीच अब यह चर्चा शुरू हो गई है कि 2019 तक मोदी के पीछे पूरी ताकत से संघ खड़ा है।
लेकिन पार्टी के भीतर यह सवाल बड़ा होता जा रहा है कि बीते एक बरस से सरकार और दल दोनों ही एक सरीखे हैं। यानी कोई विकेंद्रीकरण नहीं है जबकि गुरु गोलवरकर के दौर से संघ यह मानता आया कि अगर परिवार में सब कुछ एक जैसा होगा तो वह सिमटता जाएगा। इसीलिए सरकार और पार्टी में केंद्रीयकरण नहीं होना चाहिए बल्कि विकेंद्रीकरण यानी अलग-अलग सोच होना चाहिए।
हालांकि संघ यह भी मान रहा है कि नए अध्यक्ष की ताजपोशी उसी हालत में हो जब मोदी के कामकाज पर इसका कोई नकारात्मक प्रभाव ना पड़े। दरअसल इसकी सुगबुगाहट मई के दूसरे हफ्ते मेंतेज हुई, जब मोदी सरकार के एक बरस पूरा होने पर दिल्ली से चार नेताओं को नागपुर से बुलावा आया। जिन चार नेताओं को बुलाया गया उनमें राजनाथ सिंह के अलावा अमित शाह , नितिन गडकरी और मनोहर पर्रीकर थे। मौजूदा भाजपा अध्यक्ष को छोड़कर बाकी तीन चेहरे वही थे, जिनके नाम का जिक्र कभी अध्यक्ष बनाने को लेकर लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। चारों नेताओं की मौजूदगी संघ मुख्यालय में एक साथ नहीं हुई बल्कि अलग-अलग सबसे चर्चा हुई। चूंकि इन चारों में राजनाथ सिंह ही उत्तर प्रदेश-बिहार की राजनीति के सबसे करीब रहे हैं और दोनों ही राज्यों के ज्यादातर सांसदों के बीच राजनाथ की पैठ भी है तो आने वाले वक्त में भाजपा अध्यक्ष हिंदी पट्टी से क्यों होना चाहिए, इस सवाल को उठाने और जवाब देने में भी वही सक्षम थे।
खास बात यह भी है कि राजनाथ संघ मुख्यालय के बाद एक वक्त संघ के ताकतवर स्वयंसेवक रहे एमजी वैद्य के घर भी गए। ये वही वैद्य हैं जो शुरू में नरेंद्र मोदी के भी विरोधी रहे। लेकिन सरसंघचालक मोहन भागवत जिस मजबूती के साथ नरेंद्र मोदी के पीछे खड़े हुए , उससे वैद्य सरीखेस्वयंसेवक हाशिए पर पहुंच गए। बावजूद इसके संघ के भीतर अगर यह सवाल अब शुरू हुआ है कि एक ही विचार से पार्टी और सरकार नहीं चलनी चाहिए तो संकेत साफ है: मोदी सरकार के विरोध के स्वर अगर पार्टी से निकलते है तो उसे संभालना आसान है। अगर सभी एक लाइन पर चलेंगे तो संघ का काम ही कुछ नहीं होगा। इसके अलावा सरकार के विरोध को अगर जनता के बीच जगह किसी दूसरे संगठन या पार्टी से मिलेगी तो फिर आने वाले वक्त में भाजपा के लिए राजनीतिक मुश्किल शुरू हो जाएगी।
संयोग भी ऐसा है कि अक्तूबर में बिहार चुनाव होने हैं और दो महीने बाद भाजपा अध्यक्ष का कार्यकाल खत्म हो रहा है। चुनाव में जीत के बाद अध्यक्ष बदले जाते हैं तो संघ की वह थ्योरी कमजोर पड़ेगी जो उन्होंने अमित शाह को अध्यक्ष बनाते वक्त कही थी कि चुनाव जिताने वाले शख्स को अध्यक्ष बनाना सही निर्णय है। और अगर चुनाव में जीत नहीं मिलती है तो फिर संकेत जाएगा कि भाजपा डांवाडोल है और उसका असर उत्तर प्रदेश चुनाव पर पड़ेगा। इन हालात से बचने के लिए ही नए अध्यक्ष को लेकर पहले से ही व्यापक स्तर पर चर्चा शुरू हुई है। जिन चार नेताओं को नागपुर बुलाया गया उसमें भाजपा संगठन और हिंदी पट्टी के भाजपा नेताओं के अनुभव और प्रभाव का इस्तेमाल हो नहीं पा रहा है, इस पर खासा जोर दिया गया। यानी पार्टी को चलाने का अमित शाह मॉडल चुनावी जीत के लिए जरूरी है। लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल में सिर्फ शाह मॉडल यानी प्रबंधन के जरिए चुनाव जीता नहीं जा सकता है, यह सवाल भी उठा।
वैसे इस सवाल को हवा दिल्ली चुनाव में पार्टी की हार के बाद भी मिली। लेकिन तब यह सवाल इसलिए दब गया कि हार की वजह पता लगाने का काम शुरू हुआ। लेकिन जैसे-जैसे बिहार चुनाव की तारीख और अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा होने का वक्त नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे उत्तर प्रदेश और बिहार के भाजपा नेताओं के सामने भी यह सवाल है कि चुनाव जीतने के लिए उनके पास केंद्र की तर्ज पर कोई नरेंद्र मोदी सरीखा नेता तो है नहीं। फिर मोदी और अमित शाह दोनों के गुजरात से दिल्ली आने की वजह से दोनों के बीच संतुलन इतना ज्यादा है कि जमीनी राजनीति के सवाल सरकार की उपलब्धि गिनाने तले दब जाते हैं।
बहरहाल नया संकेत यही है कि सात महीने बाद भाजपा का अध्यक्ष कौन होगा, इस पर संघ परिवार के भीतर अगर चर्चा हो रही है तो यह साफ है कि गडकरी की तर्ज पर मौजूदा वक्त में अध्यक्ष का कार्यकाल बढ़ाने की संघ सोचेगा नहीं।
(टिप्पणीकार आजतक से संबद्ध हैं।)