वह न तो गए साल की समीक्षा करता है और न नए साल का कोई ठोस एजंडा तय करता है। इस साल तो मुश्किलें और भी बढ़ गई हैं। बीते साल ने शुरुआत में ही इतना डरा दिया कि लगा कि हम अपनी मौलिकता, शालीनता और निर्भीकता की अंतिम जमा पूंजी भी खो देंगे। ‘लॉकडाउन’ ने जहां गरीबों को सड़क पर ला खड़ा किया, वहीं बाकी लोगों को घरों में बंद होने पर मजबूर किया। दफ्तर, दुकानें, कारखानें, सड़कें, यातायात सब ठप। हर तरफ सिर्फ सन्नाटे का पसारा और कुछ नहीं। मजबूत से मजबूत ट्रेड यूनियन को भी ऐसी कामयाबी कभी नहीं मिली, जैसी एक छोटे से विषाणु को मिली। पर देखते-देखते मनुष्य और उसके मन ने अपने लिए झरोखे खोलने भी सीख लिए।

नतीजतन हर तरह की चहल-पहल के अनिश्चितकालीन स्थगन के दौर में भी अगर कुछ जारी या कायम रहा तो वह थी अभिव्यक्ति। वह रूप बदल-बदल कर आती रही। कभी कार्टून की शक्ल में, कभी लतीफे के तौर पर तो कभी गांव-शहर के नए अनुभव के तौर पर। कभी वीडियो-गीत के रूप में तो कभी लघु फिल्में बनकर।

जाहिर है कि आदमी अपने डरे हुए समय में भी ऐसा कुछ ढूंढ लेता है कि भय पर तो परदा पड़े ही, कुछ मनोरंजन भी हो जाए। सौ साल का इतिहास बताने वाले भी आज खुलकर स्वीकार करते हैं कि जितना विश्वयुद्ध ने नहीं डराया था, उससे करोड़ गुणा कोरोना ने डरा दिया। डॉक्टर ने जो कहा, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जो निर्देश जारी किए, सरकार ने जो अपील की उसका तकरीबन सारे लोगों ने कुछ टीका-टिप्पणियों के बावजूद पालन किया। यह टीका-टिप्पणी और कुछ नहीं, असहमति थी।

यह असहमति अभिव्यक्ति की आजादी का सरल पाठ बनकर सामने आई। कह सकते हैं कि सर्वाधिक संकट के दौर में इस आजादी को इतने पंख लग गए कि उसकी उड़ान को रोक पाना मुश्किल हो गया। अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक असहमति और विरोध की गुंजाइश को बचाए रखने के लिए इस दौरान वह सब लिखा-गाया गया, जिसकी कल्पना सामान्य दिनों में भी करनी मुश्किल थी। मशीन में बदलते मनुष्य ने समय और समाज के बीच अपने होने को कोरोनाकाल में फिर से परिभाषित किया। उसने दिखाया कि इंसान अपने सरोकारों के हक में आज भी संघर्ष करने के लिए तैयार है।