राकेश सिन्हा

चुनाव संपन्न होगा, सरकार बनेगी। लोकतंत्र के इस सार्थक पक्ष का निर्वाह भारत के लोग 1952 से कर रहे हैं। यह प्रक्रिया अबाधित है, जो दुनिया को चौंकाती रही है। पर जो बात कचोटने वाली होकर भी दायित्वबोध नहीं करा पा रही है, वह है सामाजिक-सांस्कृतिक न्यूनताएं, जो 1952 में भी थीं और आज भी चुनावी विमर्श, चुनावी प्रक्रिया और चुनावी परिणाम का अहम हिस्सा हैं।

जाति और संप्रदायवाद, वंशवाद और धनबल का प्रयोग कम होने की जगह सुनामी की तरह हो चुका है। यों कहें कि हर कोई इस सुनामी की चपेट में ही अपना राजनीतिक भविष्य तलाशता है। पचास और साठ के दशक में राजनीतिक विमर्श में जाति, क्षेत्र, संप्रदाय, भाषा का उल्लेख अपराधबोध देता था। आचार्य जेबी कृपलानी सिंधी थे और उन्होंने बिहार के सीतामढ़ी और भागलपुर से चुनाव जीता था। किसी ने नहीं पूछा कि इन लोकसभा क्षेत्रों में सिंधी कितने हैं! कृपलानी की राष्ट्रीय उपयोगिता को तब के कम पढ़े-लिखे मतदाता समझ पाए, पर अब समझने में दुर्बलता दिखाई पड़ रही है।

खानपान, रहन-सहन, जीवन-स्तर बदला है, जिसे हम आधुनिकता कहने की भूल करने के आदी हो चुके हैं। पर यह आधुनिक मनुष्य जब मतदाता बन जाता है तो संकीर्णता से भर जाता है। शिक्षित-अशिक्षित के बीच का अंतर समाप्त हो जाता है। जाहिर है, जीवन स्तर और जीवन दर्शन दोनों में अंतर होता है। मनुष्य जीवन दर्शन से आधुनिक और पुरुषार्थी होता है, न कि विलासिता के आलिंगन से।

तब के दशकों में राजनीतिक कार्यकर्ता जाति-बिरादरी का परिचय पूछने या बताने वाले को अत्यंत हेय दृष्टि से देखते थे। जातीय गणना में नगण्य की तरह होने पर भी कर्पूरी ठाकुर कई दशक तक लोगों के आदर्श बने रहे। लोहिया (राममनोहर), जयप्रकाश, दीनदयाल जातिविहीन समाज के सपने को साकार करने के सारथी की तरह लड़ते रहे। उनकी राजनीति में समाज का प्रबोधन था।

भारतीय राजनीति में राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक प्रभावी वर्ग था जो दो चुनावों के बीच गैरदलीय सक्रियता बनाए रखता था। वे अपनी दृष्टि से काम करते थे। समाज को पढ़ते थे और प्रयोगशाला मानते थे। संसाधनहीन होकर भी सक्रियता में अल्पता नहीं आने देते थे। यह लोकतंत्र का खाद-पानी था। ऐसे लोगों की राजसत्ता से दूरी होती थी।

दलीय राजनीति से मित्रवत होते हुए भी कठोर सत्य बोलने में निर्भयता में कमी नहीं होती थी। यही सार्वजनिक जीवन में वैकल्पिक ताकत की तरह थी। इसका आधार महत्त्वाकांक्षा रहित जन सरोकार से उपजी नैतिकता थी। यह कड़ी प्रकारांतर से टूट गई। परिणामस्वरूप संख्या के खिलाड़ी के लिए निष्कंटक अश्वमेध यज्ञ हो गया। जो इसे नकारता है, वह खेल के मैदान में बारहवें खिलाड़ी की तरह हो जाता है। यह नवोदित आदर्श को भयभीत करता है और वह ‘मुख्यधारा’ में शामिल हो जाता है।

ऐसा नहीं कि जनता दिग्भ्रमित है। हर स्तर पर राजनीतिक कुलीनों का बोलबाला है। वे अंकगणित के पंडित है। वे ही जन-प्रबोधन अपने तरीके से करते हैं। ऐसे समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है, जो मतदाताओं में संवैधानिक गुणात्मकता जोड़ते हैं। यह विडंबना भारतीय समाज की समकालीन हकीकत है। लोकतंत्र की विशेषता अनियोजित घटनाओं और विचारों की उत्पत्ति में निहित है।

ये उत्पन्न तो अनाथ की तरह होते हैं, पर भविष्य के सारथी बन जाते हैं। मगर इसके लिए निरंतर प्रयास की आवश्यकता होती है। अपनी विरासत में ही इसका रास्ता और समाधान विद्यमान है। नारेबाजी कभी गंतव्य तक नहीं ले जाती है। जो सर्वोदय शब्द और अवधारणा भारत में आंदोलन बन गया और एक पूरे कालखंड को प्रभावित किया, उसको महात्मा गांधी ने 1908 में ढूंढ़ा था। रस्किन की पुस्तक ‘अनटू दिस लास्ट’ का अनुवाद गुजराती में किया, जिसका शीर्षक ‘सर्वोदय’ दिया। दुनिया में बदलाव के क्रम में विश्व साहित्य का महत्त्व यहां दिखाई पड़ता है। टालस्टाय की पुस्तक का अनुवाद काका कालेलकर ने किया था। उस पुस्तक का शीर्षक है ‘आगे हम करें क्या’!

यह प्रश्न हमारे सामने भी है। क्या परिस्थितियों को यथावत छोड़ दें? या फिर थोथे आशावादियों की तरह बुराइयों को कछुओं की चाल से समाप्त करने का अनंत काल का उपक्रम बना कर अपनी प्रासंगिकता पर मुहर लगाते रहें? जीवंत समाज ऐसा नहीं करता है। वह उसे अपनी उर्जा से बदलने की क्षमता रखता है।

गांधी, जेपी, विनोबा, लोहिया, दीनदयाल, कृपलानी ये सभी एकाकी युद्ध ही लड़ते रहे। इसीलिए जातीय समीकरण पर प्रहार कर पं दीनदयाल ने जौनपुर के 1963 के उपचुनाव में अपनी हार सुनिश्चित की थी। यह राजनीति के लिए मंहगा सौदा था, पर यह ऐसा बीज है, जो कभी निष्प्रभावी नहीं होगा। सोशलिस्ट पार्टी के बैतुल अधिवेशन में जयप्रकाश को राजनीतिक छुआछूत के खिलाफ खड़े होने पर बेतहाशा वैचारिक आक्रमण का सामना करना पड़ा। वे रोए, पर पिघले नहीं।

एकाकीपन लोकतंत्र के विरोधियों पर 1974 में भारी पड़ा। राजनीति सभी कार्य-संस्कृतियों में अपनी निपुणता और सार्थकता ढूंढ़ लेती है, पर सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियां जब तक नैतिकता आधारित वैकल्पिक राजनीतिक ताकत नहीं बनती हैं, वे परिवर्तन करने में असमर्थ सिद्ध होती हैं। इसी असमर्थता को दूर करना ‘अब हम क्या करें’ का उत्तर है।