दिल्ली के भीतर ऐसे-ऐसे उपशहर हैं, जिनके एक ओर झुग्गी-झोंपड़ियां तो दूसरी ओर शापिंग माल, बंगले, और तीसरी ओर अविकसित बस्तियों की कतारें हैं। अनियमित निर्माण का यह रवैया तो 1955 में तभी पता चल गया था, जब सरकार ने घोषणा की थी कि इस महानगर को योजनाबद्ध तरीके से बसाया जाएगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। शहर की विशाल बेडौल बनावट चारों ओर पसर चुकी थी।
दूसरे राज्यों से आकर दिल्ली में बसने वाला मजदूर वर्ग शहर के केवल पांच-दस प्रतिशत हिस्से में ही रहता है, जबकि राजधानी के आर्थिक विकास में इस वर्ग का साठ फीसद से ज्यादा योगदान रहता है। शहरों को बनाने वाले गरीब उसी शहर में अपने लिए दो गज जमीन के भी हकदार नहीं होते हैं। उन्हे किसी भी मास्टर प्लान में तवज्जो नहीं दी जाती है। ऐसे हालात में कई बार तो झुग्गी-झोंपड़ियों से पुनर्वासित निवासी सरकार से मिले घर बेच कर अपने पुराने ठिकानों को लौट जाते हैं।
पिछले सात-आठ दशकों में बनी डेढ़-दो हजार अवैध बस्तियां दिल्ली पर छाई हुई हैं। वे लोगों के लिए अपना ठिकाना हैं, तो राजनीति के लिए सबसे सस्ता वोट बैंक, जो हर चुनाव में वैध होने का मुद्दा बनती आ रही हैं। चुनाव खत्म होते ही सरकारें इन बस्तियों को गिराने की बात करने लगती हैं। सवाल तो यह है कि ऐसी बस्तियों और झुग्गी-झोंपड़ियों को सरकार ने बसने ही क्यों दिया? तब नियम-कायदे क्या गहरी नींद में पड़े थे?
विकसित देशों में बसावटों की प्रक्रिया क्रमिक स्तरीय होती है, यानी जनसंख्या बढ़ने के साथ मूलभूत नागरिक सुविधाओं का भी विस्तार होता जाता है, लेकिन दिल्ली के साथ आज तक यह संभव नहीं हो सका है। बढ़ती जनसंख्या तथा तीव्र शहरीकरण ने इसके बुनियादी ढांचे को छिन्न-भिन्न कर दिया है। यहां के हर क्षेत्र की असमान वृद्धि दर ने मूलभूत सुविधाओं को मसल कर रख दिया है। निकट भविष्य में यहां बुनियादी ढांचे का विकास तथा प्रबंधन और ज्यादा बड़ा संकट बनने वाला है। इसीलिए दिल्ली ही नहीं, पूरे देश के नगरों, महानगरों में अवैध कालोनियों का मसला सुप्रीम कोर्ट की नजर में अब इतनी अहमियत के साथ सामने आया है।
पहली बार 1977 में अवैध कालोनियों को नियमित करने की नीति अमल में आई तो धीरे-धीरे ही सही, 1993 तक 567 कालोनियों को वैधता मिल गई। उसके बाद से फिर वही ढाक के तीन पात और चुनावी शोशेबाजियों का सिलसिला चलता चला आ रहा है। देश में शहरीकरण और अवैध कालोनियों के विस्तार के साथ कई गंभीर मुश्किलों का सिलसिला दशकों से चला आ रहा है। जमीनी सचाई है कि इसकी मुश्किलों के इतना जटिल होते जाने के पीछे इसके व्यवसायीकरण के साथ रीयल एस्टेट के अवैध हस्तक्षेप और कारपोरेट ताकतों की पहुंच और भ्रष्टाचार का भी प्रश्न जुड़ा हुआ है।
लाखों एकड़ उपजाऊ खेतों पर कंक्रीट के जंगल बिछाने वाली ताकतों की प्राथमिकता जनता की सुविधा-असुविधाएं नहीं होती, जिससे बिजली-पानी, आवागमन, नैसर्गिक हरियाली की जरूरतें हाशिये पर होती हैं। रीयल इस्टेट के साथ तरह-तरह के कारोबार जुड़े होते हैं, मसलन, सीमेंट, लोहे के धंधा, सस्ते मजदूर और रोजगार की बुनियादी जरूरतें आदि। बस खेतों को उजाड़ कर बेढब अधपक्के मकान खड़े होते जा रहे हैं, जहां पानी, सड़क, बिजली की सुविधाएं गांवों से भी बदतर होती हैं।
शहरों में तेजी से बढ़ रही गरीबों की संख्या पर जानकार आशंका जताते हैं कि बड़ी आबादी शहरी मलिन बस्तियों में न तब्दील हो जाए। पूरे देश में शहरों, कस्बों से सटे खेतों में अवैध कालोनियां बिछती जा रही हैं। कच्ची-पक्की कामचलाऊ सड़कें बना कर आसपास के खेतों, जंगलों, तालाबों को अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगलों में बदल दिया जाता है।
इन सबके पीछे विकास की नहीं, निर्माण एजेंसियों के सिर्फ मोटे मुनाफे की अवधारणा काम कर रही है, जिसमें गैंग की तरह नगर निकायों, ग्राम पंचायत प्रमुखों, कार्यपालिका के जिम्मेदारों और सियासत के चेहरे शामिल होते हैं। तो कौन लोहा ले, ऐसी ताकतों से और कैसे व्यवस्थित विकास हो शहरों का, और उन गांवों का भी, जिनकी जमीनों पर सीमेंट का जंगल फैलता जा रहा है। अगर विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो अवैध कालोनियों का संजाल फूलने-फलने से कौन रोक सकता है। फिर शहरीकरण की कठिनाइयां तो विकराल होंगी ही।