राजस्थान के करौली में हिंसा से दो दिन पहले पीएफआई के प्रदेश अध्यक्ष मोहम्मद आसिफ ने सीएम अशोक गहलोत को चिट्ठी लिख हिंसा की आशंका जाहिर की थी। ये पहली बार था जब केरल के इस संगठन का नाम यहां पहली बार सामने आया। लेकिन सीएए प्रोटेस्ट समेत केरल, महाराष्ट्र व यूपी की कई सांप्रदायिक हिंसाओं में संगठन का नाम सामने आ चुका है। फिलहाल ये राजनीतिक तौर पर एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है। बीजेपी इस पर खासी हमलावर है। सोमवार को गृह मंत्रालय में इसके ऊपर बैन लगाने को लेकर मंथन हुआ।
उधर, कर्नाटक में बीजेपी चीफ जेपी नड्डा के साथ सीएम बसवराज बोम्मई ने ऐलान किया कि कांग्रेस के शासन के दौरान पीएफआई के खिलाफ दर्ज केस वापस लेने के मामले पर वो 2023 विधानसभा का चुनाव लड़ने जा रही है। बीजेपी पहले भी पीएफआई की तरफदारी का आरोप कांग्रेस पर लगा चुकी है। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि वो पीएफआई के खिलाफ सख्त कदम क्यों नहीं उठाती।
2006 में मर्ज हुए तीन संगठन तो बना PFI
पीएफआई का पूरा नाम पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया है। इसे चरमपंथी इस्लामी संगठन माना जाता है। 2007 में नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट के मुख्य संगठन के रूप में पीएफआई का गठन किया गया था। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है लेकिन इसका बेस मुस्लिम बहुल्य सूबों में ही है। इसका जन्म तब हुआ जब 2006 में केरल में 3 मुस्लिम संगठनों को मर्ज किया गया।
फिलहाल पीएफआई ने कई राज्यों में अपनी पैठ बना ली है। संगठन की कई अलग-अलग शाखाएं भी हैं। इसका दावा है कि वो अल्पसंख्यकों के अलावा दलित व दबे कुचले लोगों की आवाज उठाने का काम करता है। हालांकि संगठन ने कभी खुद चुनाव नहीं लड़ा लेकिन राजनीतिक दल मुस्लिम वोटों की खातिर इसके साथ दिखते रहते हैं।
जब कर्नाटक के चुनावों में उतरा SDPI
2009 में इसी संगठन से निकलकर एसडीपीआई (सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया) का जन्म हुआ। इसका ध्येय मुस्लिमों के साथ सभी वर्गों का समान विकास है। कर्नाटक में मुस्लिम समुदाय की आबादी काफी है। इस वजह से चुनावों में इसका अहम रोल रहता है।
2013 तक एसडीपीआई कर्नाटक के लोकल चुनावों में भाग लेता रहा लेकिन उसके बाद के दौर में संगठन असेंबली के साथ संसदीय चुनावों में भी उतरा। नरसिंमराजा सीट पर इसका प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहा था। 2018 में मैसूर लोकसभा क्षेत्र की इस सीट पर संगठन 20 फीसदी वोट लेकर तीसरे नंबर पर रहा। संगठन ने 2014 व 2019 के आम चुनावों में हाथ आजमाए लेकिन दक्षिण कर्नाटक के क्षेत्र में वो 1 और 3 फीसदी वोट ही हासिल कर सका।
कांग्रेस से क्या है कनेक्शन
एसडीपीआई और कांग्रेस का टारगेट मुस्लिम समुदाय के वोटर होते हैं। माना जाता है कि ये संगठन उन इलाकों में बीजेपी की मदद करता है जहां कांग्रेस जीतने की स्थिति में होती है। कर्नाटक के 2018 चुनाव में कांग्रेस ने संगठन से एक डील भी की जिसके तहत कुछ सीटों से एसडीपीआई ने अपने उम्मीदवार हटा लिए।