कृषि अपशिष्ट भारत के लिए एक बड़ी समस्या बन रहे हैं। ठीक तरह से इनके उचित निपटान के बजाय किसान फसल की कटाई के बाद इन कृषि अपशिष्टों को जला रहे हैं जिससे वायु प्रदूषण बढ़ रहा है और शहरों पर धुंए के गुबार छा रहे हैं। भारतीय वैज्ञानिक जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से इस समस्या का लाभदायक समाधान ढूंढ़ने की पहलकदमी कर रहे हैं।
भारतीय वैज्ञानिक जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से एक नया उपाय लेकर आए हैं। इस उपाय के तहत एक बायो-रिफाइनरी इन अपशिष्टों को संवर्धित अल्कोहल में बदल देती है। इसका इस्तेमाल स्वच्छ जैव ईंधन के रूप में या स्पिरिट बनाने में किया जा सकता है।
नासा ने अपने उपग्रहों के जरिए जैव ईंधन के जलने की तस्वीरें ली हैं। अमेरिकी वैज्ञानिकों का कहना है कि फसलों के अपशिष्टों को जलाने से जो काला कार्बन निकलता है, वह हिमालय के हिमखंडों का क्षय कर रहा है। यदि कृषि अपशिष्ट को स्वच्छ जैव ईंधन में बदल दिया जाए तो अपशिष्टों के जलने से होने वाले नुकसान पर काबू पाया जा सकता है।
इस माह विज्ञान मंत्री हर्ष वर्धन ने काशीपुर स्थित इंडिया ग्लाइकॉल लिमिटेड के परिसर में पहले प्रायोगिक संयंत्र का उद्घाटन किया। यह लगभग हर किस्म के कृषि अपशिष्ट को अल्कोहल में तब्दील कर सकता है। इस संयंत्र की प्रौद्योगिकी का निर्माण मुंबई के इंस्टीट्यूट आॅफ केमिकल टेक्नोलॉजी (आइसीटी) ने 40 करोड़ रुपए की लागत से किया है। इसके बाद इस प्रायोगिक संयंत्र को जैव प्रौद्योगिकी विभाग की मदद से 35 करोड़ रुपए की लागत पर तैयार किया गया।
जैव पदार्थ से अल्कोहल बनाना कोई नई बात नहीं है लेकिन अब तक अधिकतर एथेनॉल गन्ने, मक्के या ऐसे ही किसी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल करके बनाया जाता रहा है। इसे पहली पीढ़ी का एथेनॉल कहते हैं। चूंकि काशीपुर का संयंत्र पूरी तरह कृषि अपशिष्ट का इस्तेमाल करता है, इसलिए इसे दूसरी पीढ़ी का (2जी) एथेनॉल कहते हैं।
जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) के सचिव के. विजयराघवन का कहना है, ‘यह भारत के लिए सबसे अधिक उपयुक्त प्रौद्योगिकी है क्योंकि जैव ईंधन बनाने के लिए जरूरी पदार्थ का टकराव खाद्य पदार्थों से नहीं है।’ डीबीटी के अनुसार, ‘यह काशीपुर संयंत्र एक ऐसे समय पर आया है, जब देश एथेनॉल और डीजल में पांच प्रतिशत नवीकरणीय जैव ईंधन मिलाने की अनिवार्यता को पूरा करने के लिए जूझ रहा है। डीजल में जैव ईंधन का मिश्रण लगभग शून्य है और 1 जी-एथेनॉल के रूप में पेट्रोल में यह मिश्रण लगभग तीन प्रतिशत का है।
वार्षिक तौर पर एथेनॉल के लगभग 50,000 लाख लीटर की जरूरत के चलते तेल कंपनियां इसकी कमी का सामना करेंगी क्योंकि इस समय 1जी-एथेनॉल की कुल उत्पादन क्षमता लगभग 26,500 लाख लीटर की है। ऐसे परिदृश्य में 2017 तक, जब तक दूसरी पीढ़ी का (2 जी) एथेनॉल या 2जी-एथेनॉल उत्पादन प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल नहीं किया जाता, 10 फीसद और 2020 तक 20 फीसद मिश्रण का लक्ष्य असाध्य ही लगता है।
हालांकि 2जी एथेनॉल उत्पादन प्रौद्योगिकियों को आर्थिक एवं तकनीकी आधार पर व्यवहारिक बनने के लिए विश्व भर में संघर्ष करना पड़ा है। यह बात अलग है कि 100 से ज्यादा पाइलट संयंत्र और लगभग 10 प्रायोगिक संयंत्र पिछले दशक में स्थापित हुए हैं और उनका संचालन शुरू हुआ है।
सार्वजनिक-निजी साझेदारी या पीपीपी मॉडल पर आधारित काशीपुर संयंत्र दरअसल कई बड़े जैव संयंत्रों की एक शृंखला है। यह संयंत्र इस समय गेहूं और गन्ने के कृषि अपशिष्ट का इस्तेमाल करता है। इस संयंत्र में सूखे अपशिष्ट को डाला जाता है और फिर रसायनों के इस्तेमाल से इसे एक घोल में बदला जाता है। मुख्य अभिक्रिया सेल्यूलोज एंजाइम के इस्तेमाल से की जाती है। यह जैव अपशिष्ट के प्रमुख कार्बनिक पदार्थ को शर्करा में बदल देता है।
इसके बाद एंजाइम को मेंबरेन तकनीक से वापस प्राप्त किया जाता है और महंगे आयातित एंजाइम का संयंत्र में पुनर्चक्रण किया जाता है। इसके बाद शर्कराओं को खमीर पर से गुजारा जाता है, जो इसे एथेनॉल में बदल देता है। इंडिया ग्लाइकॉल्स लिमिटेड के अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक यू एस भारतीय ने कहा, ‘इसके जैसे कई संयंत्र बनाए जा सकते हैं और यह भारत के जैव ईंधन की व्यापक समस्या का उपयुक्त हल है।’ भारतीय के अनुसार, ‘आज संयंत्र में डाले जाने वाले हर 1000 किलोग्राम कृषि अपशिष्ट से लगभग 300 लीटर अल्कोहल का निर्माण होता है।’ भारतीय का कहना है कि संयंत्र में इस्तेमाल होने वाले पानी का भी पुनर्चक्रण किया जा सकता है। यह इसे एक बेहद हरित तकनीक का विकल्प बनाता है।
इस प्रायोगिक संयंत्र की क्षमता प्रतिदिन 10 टन जैव ईंधन तैयार करने की है। डीबीटी के अनुसार, यह संयंत्र किसी भी किस्म के जैव ईंधन पदार्थ (जैसे गेहूं के तिनकों, बांस, डंठलों आदि) को 24 घंटे से भी कम समय में अल्कोहल में बदल सकता है। यदि इसका सफलतापूर्वक संचालन किया जाता है और इसका स्तर बढ़ाया जाता है तो यह भारत को नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोतों के क्षेत्र में एक बड़े प्रौद्योगिकी प्रदाता के रूप में स्थापित कर सकता है, कार्बन उत्सर्जन कम कर सकता है और कच्चे तेल के आयात में पर्याप्त बचत कर सकता है।
मुंबई स्थित डीबीटी-आइसीटी केंद्र के प्रमुख अरविंद लाली के अनुसार, वे 250 टन प्रतिदिन और 500 टन प्रतिदिन की क्षमता वाले संयंत्रों को डिजाइन कर चुके हैं और उन्हें यकीन है कि न्यूनतम पूंजी एवं संचालन लागत वाली इस प्रौद्योगिकी के जरिए 2जी अल्कोहल बनाया जा केगा और प्रतिस्पर्धात्मक कीमत पर बेचा जा सकेगा। भारतीय 2जी तकनीक के जरिए एक लीटर एथेनॉल बनाने पर आने वाली लागत 25 रुपए है।
यह भारतीय संयंत्र डूपोंट जैसे ऐसे ही अन्य संयंत्रों की तुलना में पांच गुना ज्यादा दक्ष तरीके से अल्कोहल में तब्दील करता है। विदेश स्थित अन्य संयंत्र जहां अपशिष्ट को जैव ईंधन में तब्दील करने में कई दिन लगाते हैं, वहीं आइजीएल के इंजीनियरों के अनुसार, काशीपुर संयंत्र ऐसा करने में महज एक दिन लगाता है।
हर्षवर्धन ने कहा, ‘कथित कृषि अपशिष्ट से बनने वाला दूसरी पीढ़ी का एथेनॉल किसानों की संपत्ति बन जाता है। यह जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के विवादपूर्ण मुद्दे और कार्बन उत्सर्जन कम करने में मदद करता है।’ यह उत्तर भारत में ठूंठ जलाने से होने वाले वायु प्रदूषण पर काबू पाने का भी उपयुक्त हल है।
कुछ लोगों को इस बात की भी चिंता है कि इतने अधिक पशुधन और मवेशियों वाले देश में यदि व्यापक स्तर पर यह प्रौद्योगिकी इस्तेमाल की जाती है तो इससे पारंपरिक आजीविकाओं पर असर पड़ सकता है। अन्य का कहना है कि इस समय कृषि अपशिष्टों को गैरजरूरी रूप से जलाए जाने पर काबू पाना जरूरी है। यह संयंत्र 2जी एथेनॉल के अलावा लिग्निन का उत्पादन करता है, जिसका इस्तेमाल ईंधन के रूप में किया जाता है लेकिन आइसीटी से जुड़े जाने-माने रसायनविद एम एम शर्मा के अनुसार, इसका इस्तेमाल कार्बन ब्लैक का उत्पादन करने में भी किया जा सकता है। यह कार्बन ब्लैक टायर बनाने में प्रयोग हो सकता है। शर्मा तो यह भी सुझाव देते हैं कि इस संयंत्र को ब्यूटेनॉल उत्पादन के लिए तेजी से अद्यतन किया जाना चाहिए। ब्यूटेनॉल ज्यादा महत्व वाला उत्पाद है और ज्यादा मांग में है।