एक तरह से यह कुंठा हमारी सकारात्मक प्रवृत्तियों को भी अपने शिकंजे में ले लेती है। जब सकारात्मक प्रवृत्तियां कुंठा के शिकंजे में आ जाती हैं तो हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। इसलिए अपने मन से कुंठा को बाहर निकालने के लिए सबसे पहले हमें अपने दिल को खुला छोड़ना होगा। इसका अर्थ है कि हम दूसरे के विचारों को भी सम्मान दें। इस तरह हम दूसरे के दिल में अपने लिए जगह बना सकते हैं।
हम जाने-अनजाने लगातार अपने दिल में गंदगी जमा करते रहते हैं। यह गंदगी हमारे बाहर का वातावरण भी खराब करती है। जाहिर है जैसा हमारा अंतर होगा, बाहरी जगत भी वैसा ही होगा। अगर हमारा अन्तर्मन कुंठित और कलुषित है तो बाहरी जगत के साफ-सुथरा होने की कल्पना करना भी व्यर्थ है।
इस दौर में हमें गंभीरता के साथ यह विचार करना होगा कि धार्मिक आयोजनों में हमारी सहभागिता बढ़ने के वावजूद हमारा अंतर्मन कुंठित और कलुषित क्यों होता जा रहा है? दरअसल जब हमारा दिल कुंठित और कलुषित होता है तो हम ऊपरी तौर पर स्वयं को साफ दिखाने का नाटक करते लगते हैं।
ऐसी स्थिति में हमारे अंदर गंदगी बढ़ती जाती है और अंतत: हमारे तथा समाज के लिए अनेक समस्याएं पैदा होती हंै। इसीलिए जब हमारा दिल साफ और प्रसन्न रहता है तो हमारा दिमाग बहुत कुछ अच्छा सोचने लगता है। ऐसी स्थिति में हमारा मन वास्तविकता को समझते हुए यथार्थ के धरातल पर अपना आधार तैयार करता है और हम एक नई ऊंचाई छूने के लिए सफलता के आकाश में उड़ने लगते हैं।
जाहिर है यथार्थ के धरातल पर सतही विश्लेषण नहीं होता है। इसलिए हम कोई ऐसी कोशिश नहीं करते हैं जो खोखले आदर्शवाद को बढ़ावा दे। फलस्वरूप इस प्रक्रिया का सकारात्मक परिणाम मिलता है। आज समाज में नकारात्मक प्रवृत्तियों की जड़ हमारा तंगदिल नजरिया ही है।
इस दौर में हमारे दिल न खुलने के कारण ही अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याएं पैदा हो रही हैं। घर-परिवार के आपसी झगड़े हों या फिर सामाजिक झगड़े, हमारी विकृत मनोस्थिति के कारण ही सामाजिक विघटन की समस्याएं पैदा हो रही हैं। देश के अंदर चाहे आंतकवादियों के क्रियाकलाप हों या फिर नक्सली हिंसा, इंसान की विकृत मनोस्थिति ही इन सब समस्याओं के लिए जिम्मेदार है।
दरअसल जब किसी भी तरह की कोई कुंठा हमारे मन में घर कर लेती है तो हमारी मानसिकता भी संकुचित हो जाती है। कुंठित मन न ही तो कुछ अच्छा सोच पाता है और न ही सकारात्मक विचारों के लिए कोई जमीन तैयार कर पाता है। एक तरह से यह कुंठा हमारी सकारात्मक प्रवृत्तियों को भी अपने शिकंजे में ले लेती है।
जब सकारात्मक प्रवृत्तियां कुंठा के शिकंजे में आ जाती हैं तो हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। इसलिए अपने मन से कुंठा को बाहर निकालने के लिए सबसे पहले हमें अपने दिल को खुला छोड़ना होगा। इसका अर्थ है कि हम दूसरे के विचारों को भी सम्मान दें। इस तरह हम दूसरे के दिल में अपने लिए जगह बना सकते हैं।
अक्सर होता यह है कि हम सिर्फ अपने विचारों को ही प्राथमिकता देते हैं। हम दूसरों के विचारों को या तो नजरअंदाज कर देते हैं या फिर प्राथमिकता नहीं देते हैं। जब हम दूसरे के विचारों को भी प्राथमिकता देते हैं तो इस प्रक्रिया से हमारा दिल भी मजबूत बनता है। जब हमारा दिल मजबूत बनेगा तो ईर्ष्या और द्वेष जैसे अवगुण वहां अपना घर नहीं बसा पाएंगे। तभी हम सच्चे अर्थों में अपने दिल में प्रेम के फूल खिला पाएंगे।
प्रेम की भावना हमें जिंदगी में अनेक समस्याओं से लड़ने का हौसला देती है। प्रेम की राह पर आगे बढ़ने से हमारे अंदर त्याग की भावना स्वत: ही पैदा हो जाती है। एक-दूसरे के प्रति त्याग की भावना दिलों को खोलने का ही नहीं बल्कि दिलों को जोड़ने का कार्य भी करती है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस दौर में दिल जोड़ने की बात नहीं हो रही है। कमजोर लोग दिल नहीं जोड़ सकते। दिल जोड़ने के लिए तीर-तलवार और बंदूक चलाने वाले तथाकथित साहसी लोगों की जरूरत नहीं हैं। ऐसे लोग हमेशा दिल तोड़ते ही हैं।
दिल जोड़ने के लिए प्यार की राह पर चलने वाले साहसी लोगों ही जरूरत होती है। जब दिल जुड़ जाते हैं तो कुंठा अपने आप समाप्त हो जाती है। दरअसल उदार दिल ही अपने अन्दर उदारता पैदा कर सकता है। यह सर्वविदित है कि दिल का संबंध दिमाग से होता है। इस दौर में खुले दिल से ही हम साफ सुथरे समाज का निर्माण कर सकते हैं। तो आइए, प्रेम की राह पर आगे बढ़कर अपने दिल से कुंठा को हमेशा के लिए बाहर का रास्ता दिखा दें।