सुरेश सेठ

हमें पता ही नहीं चला और देश इतनी तरक्की कर गया। आजकल मंचों से भाषण दागने वाले एक-दूसरे से आगे निकल गए हैं। जनसेवा का अर्थ भाषण सेवा हो गया है। हर भाषणबाज नेता एक-दूसरे के नहले पर दहला मारता है, और फिर घोषणा करता है कि उसके अथक प्रयत्नों से समाज परिवर्तित हो गया। ज्यों-ज्यों उनके भाषणों की धार तीखी होती है, उन्हें लगता है देश बाहुबली हो गया। कितनी तरक्की कर ली इतने दिनों में हमने! करोड़पति अरबपति हो गए, दुनिया में सबसे तेज गति के साथ। उनकी बहुमंजिली इमारतों में एक मंजिल और उठ गई। लोगों को पीने के लिए पानी नहीं मिलता। उन्होंने छत पर तरणताल बना लिए।

शायद उन तरणतालों की बढ़ती गिनती बताती है कि आम लोगों के टैंकरों में पानी क्यों कम रह जाता है। इन सर्दियों में बारिश रूठ गई। पहाड़ सब सूखे पड़े हैं। जल स्तर नाराज होकर धरती के और भी निचले स्तर पर चला गया। सड़कों पर पशु और आदमी प्यास से हांफ रहे हैं। अभी कौन हांफा? आदमी या जानवर? कुछ पता नहीं चलता। सड़क छाप प्राणी सब एक से लगते हैं। एक भूतपूर्व मंत्री जी ने भी फरमाया था कि इनके साथ हवाई जहाज में उड़ने की नौबत आ जाए तो लगता है जैसे मवेशियों के बाड़े में बैठ-उड़ रहे हैं। इससे बेहतर उनका नाजुक पामेरियन है। गोद में उसे लेकर उतरो तो सारा बदन उसके परफ्यूम यानी इत्र से महमहा उठता है।

देश में अमीरों का आंकड़ा बढ़ने के कारण ऐसी बहुत ही बड़ी और आयातित गाड़ियां सड़कों पर दौड़ने लगी हैं। इसके मुकाबले फटीचर साइकलों की बढ़ती संख्या भी दूसरे राज्यों से उखड़ कर आए प्रवासी मजदूरों और काम पर निकली बाइकों की शोभा बनने लगी। शोभा इसलिए कहा, क्योंकि इन पर किसी न किसी सत्तारूढ़ नेता जी की तस्वीर की कृपा बनी रहती है। पर बाई को यह साइकिल केवल कृपा रूप में नहीं मिली।

कोई न कोई सत्ता का दलाल उन्हें अपनी जेब गर्म करने के बाद ही भेंट करता है। साथ ही ले जाता है युग परिवर्तन के लिए उनका वोट और पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे पाने का वादा। अब काम वाली बाई बड़ी श्रद्धा के साथ इन कंडम साइकिलों में पंचर लगवाती है। फिर कतार बांध कर कृपालु नेता जी को वोट डालने जाती है, और फिर बड़े धीरज के साथ अच्छे दिन आने का इंतजार करती है।

मगर कल कभी आता नहीं, जो आता है वह आज ही होता है। फुटपाथ की फटीचर जिंदगी-सा आज, जहां सरकारी खातों में भुखमरी से मरने वाले लोग अपच का शिकार बता कर निपटा दिए जाते हैं। लेकिन फिर भी भुखमरी के विश्व सूचकांक में हमारा देश कुछ पायदान और नीचे सरक गया है। हम ऐसे सूचकांक बनाने वाले देशों को पूंजीपति देशों का पिट्ठू कहते हैं और अपने जैसे पिछड़े देशों का साझा मंच बनाने की घोषणा करते हैं।

तभी व्यापार करने की सुविधा के सूचकांक में हमारा दर्जा ऊपर हो जाने की सूचना मिलती है। जब स्थापना का घी सीधी उंगली से ही निकल रहा तो भला उंगली टेढ़ी करने की क्या जरूरत? हम विकास का घी निकालने में असफल हो गई टेढ़ी उंगलियों को छिपा कर हालत बेहतर हो जाने की घोषणा करते हैं। भाषणबाजों के जुमले हवा में लहराते हैं और मुस्करा कर नेता जी हमें समझाते हैं कि लो इस बार तो हमने तुम्हें किसान केंद्रित और निर्धन पक्षधर बजट दे ही दिया।

लेकिन हमने सड़कों पर किसानों के झुंड धरना-प्रदर्शन करते देखे। भारी कर्ज की गठरी पीठ पर लादे उतरे हुए चेहरे वाले किसानों ने हमें बताया कि उनका धंधा लाभप्रद बनाने की बात केवल शब्दों की बाजीगरी थी। ज्यों-ज्यों वक्त बीत रहा है, चंद अमीर तो और अमीर हो गए, लेकिन गरीबों की तादाद भी बढ़ी और उनका बेकारी और फाकाहाली का दंश भी।कहां है बेरोजगारी? समय के मसीहाओं ने हमारे साथ आंख-मिचौली खेलते हुए पूछा।

हमने तो सभी बेकारों को स्वरोजगार का रास्ता दिखा दिया। वे और कुछ नहीं तो पकौड़े बेचने का धंधा शुरू कर सकते हैं। हम इस समस्या के यों सुलझ जाने से आनंदित हो गए। प्रसन्नता के अतिरेक में हमने कल्पना की कि इस देश में अब कोई बेकार नहीं रहा। सब पकौड़े तल कर अपना पेट पाल रहे हैं। हम घूमते हुए आगे निकले। एक मैदान में डिग्रीधारी पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ लगी थी।

हमने उनके पास जाकर पूछा, आज पकौड़े बेचने नहीं गए? आजकल पूरा देश इसी काम में लगा है। ‘नहीं’ वे अपनी डिग्रियां लहराते हुए बोले, ‘हम सफेद कालर नौकरी करेंगे। चपरासी की भर्ती हो रही है, हम सब पढ़े-लिखे डिग्रीधारी उसे पाने का सपना लेकर यहां आए हैं।’ आपको क्या खबर, आदमी पकौड़े बेचने की जगह चपरासी बन कर कितना संतुष्ट हो जाता है? कम से कम उसे कोई ढंग की नौकरी तो मिली। वह सोचता है।