जब से कांग्रेस पार्टी के असली मुखिया और गांधी परिवार के वारिस ने अपना चुनाव प्रचार शुरू किया है, मुझे ऐसा लगता है कि उनके सलाहकारों में कोई ऐसा व्यक्ति है जो वास्तव में उनके लिए नहीं, नरेंद्र मोदी के लिए काम कर रहा है। पिछले सप्ताह जब सैम पित्रोदा सामने आए, तो मेरे लिए इस रहस्य का पर्दा उठ गया। पित्रोदा साहब अभी तक कहीं छिपे बैठे थे, लेकिन ऐन वक्त पर टीवी पर आकर उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारत के भले के लिए जरूरी है उस पुराने विरासत कर को वापस लाना, जिसके लाने के बाद सरकार का हक होगा भारतीय नागरिकों की आधी संपति पर उनकी मौत के बाद।
पित्रोदा साहब ने कहा कि ऐसा कर अमेरिका में भी है, इसलिए भारत में क्यों न हो! यहां उन्होंने आधा सच बोला, पूरा नहीं। अमेरिका के कुछ राज्यों में ऐसा विरासत कर है, लेकिन अमेरिकी सरकार ऐसा कोई कर नहीं लगाती है। पित्रोदा ने अपने इस साक्षात्कार में स्पष्ट नहीं किया कि यह कर सिर्फ अमीरों के लिए होना चाहिए। तो मोदी ने इसका फायदा उठाकर अपनी अगली आमसभा में कहा कि कांग्रेस की सरकार अगर बनती है इस लोकसभा चुनाव के बाद तो माताओं-बहनों का सोना, उनके मंगलसूत्र को उनसे छीन लिया जाएगा। राहुल गांधी की बहन ने अपने खास अंदाज में दहाड़ते हुए कहा ‘मोदी झूठ बोलते हैं’। आगे याद दिलाया कि उनकी दादी ने अपना मंगलसूत्र देश को दान कर दिया था और उनकी माताजी का मंगलसूत्र देश के लिए बलिदान हो गया था। लेकिन जो नुकसान पित्रोदा के बयान ने किया था, वह ‘हुआ तो हुआ’।
ऊपर से जब अगले दिन ही राहुल गांधी ने हैदराबाद में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि जातिगत जनगणना करवाना उनके लिए राजनीतिक मुद्दा नहीं, उनके जीवन का ‘मिशन’ बन गया है, तो तकरीबन साबित हुआ कि पित्रोदा साहब हवा में नहीं बात कर रहे थे। राहुल गांधी ने अपने कई भाषणों में स्पष्ट किया है कि इस जनगणना के बाद वे संकल्प लेते हैं कि जातियों के आधार पर देश का धन बांट दिया जाएगा। स्पष्ट किया कि मोदी ने जो अपने ‘धनवान दोस्तों’ के कर्जे माफ किए हैं, उसी पैसे से किसानों का कर्ज माफ होगा, गरीबों में बांटने का काम होगा।
राहुल गांधी की समस्या यह है कि वे समझे नहीं कि धन पैदा करनेवाले कौन हैं। सरकार का अपना पैसा तो है नहीं! कुछ हम-आप देते हैं कर चुका कर। मगर अधिकतर पैसा आता है उनसे, जिन्होंने इतना धन कमाया हो कि सरकार की तिजोरियों को भरने के काम आ सके। हमारे-आप में यह क्षमता कहां है! तिजोरियां भरने वाले सिर्फ वे लोग हैं जो बड़े-बड़े उद्योग चलाते हैं। कुछ धन अपने लिए रखते हैं और कुछ सरकार के हवाले करते हैं।
मेरी उम्र के लोगों ने वे दिन देखे हैं, जब भारत सरकार के पास पैसा इतना थोड़ा होता था कि काफी हद तक धनी विकसित देशों की मदद पर निर्भर था भारत। वे दिन थे लाइसेंस राज के दिन, उद्योगपतियों पर सत्तानबे फीसद कर लगने के दिन। कर का बोझ इतना था कारोबारियों पर कि काला धन पैदा होना शुरू हुआ। निजी क्षेत्र का खून चूसने का काम करती थी सरकार। बड़े उद्योगपतियों का हाल यह था कि उधार लेकर कर चुकाते थे। यानी न धन पैदा हो रहा था देश में, न मध्यवर्ग की जगह बनी थी। गरीबी की बेड़ियों में बंधे रहते थे भारत के आधे लोग। अर्थशास्त्रियों ने अनुमान लगाया है कि नेहरू जब प्रधानमंत्री बने थे तो भारत में उतने ही गरीब लोग थे, जितने उनके शासनकाल समाप्त होने के बाद।
गरीबी भारत में तब हटने लगी जब लाइसेंस राज को समाप्त करके उद्योगपतियों को धन कमाने के मौका दिया गया और वह भारत सरकार की तिजोरियां भरने लायक हुए। माना कि कुछ पैसा राजनेताओं को खुश रखने में दिया जाता है आज और काफी पैसा चंदे के तौर पर देते हैं बड़े उद्योगपति, सत्ताधारी राजनीतिक दलों को। मगर राहुल गांधी शायद भूल रहे हैं कि उद्योगपतियों के पैसे से चलती हैं सरकारों की विशाल समाज कल्याण योजनाएं और इनके चलने से गरीबी कम हुई है भारत में। इसलिए जब पित्रोदा जैसे लोग जबरदस्ती पैसा वसूलने की सलाह देते हैं कांग्रेस पार्टी के मुखिया को, तो वे उनका भला नहीं कर रहे हैं। सच पूछिए तो समझना मुश्किल है कि राहुल गांधी इस किस्म के सलाहकार अपने करीबियों में रखते क्यों हैं।
इसी पित्रोदा ने पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता को घोर नुकसान तब पहुंचाया जब उन्होंने 1984 वाले सिखों के जनसंहार के बारे में कहा था ‘हुआ तो हुआ’। याद रखना जरूरी है कि जो 1984 में हिंसा हुई थी, वे दंगे नहीं थे। उस हिंसा में एक भी हिंदू नहीं मारा गया था, सिर्फ सिख मारे गए थे हजारों की तादाद में। उनको मारने वाले थे कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता और उनको इजाजत दी थी राजीव गांधी की सरकार ने। दिल्ली में हिंसा की मैं गवाह हूं। देखा मैंने अपनी आंखों से कि किस तरह तीन दिन तक छूट मिली थी सिखों का खून बहाने के लिए।
उसके बाद ही सरकार ने देश की राजधानी में सेना तैनात की और हिंसा फौरन रुक गई थी। ऐसी हिंसा के बारे में कहना कि ‘हुआ तो हुआ’ दर्शाता है कि पित्रोदा इस देश की राजनीति को बिल्कुल नहीं समझते हैं। गांधी परिवार के करीबियों में एक और बंदा है जिसने 2014 के चुनावों में मोदी की बहुत मदद की थी उनको नकारात्मक तरीके से ‘चायवाला’ कह कर। इसलिए इन दिनों दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में लोग मजाक उड़ाते कह रहे हैं, ‘पित्रोदा सिर्फ झांकी हैं, मणिशंकर अभी बाकी है’।