रोहित कुमर

हर वस्तु का अपना स्वभाव और प्रभाव होता है। वह हमारी भावना, हमारे व्यवहार और हमारे स्वभाव के अनुरूप ही अपना प्रभाव छोड़ती है। विज्ञान भी यह बात साबित कर चुका है कि जिन वस्तुओं को हम निर्जीव मानते आए हैं, उनमें भी हमारी भावनाओं को समझ लेने की शक्ति होती है। मगर सब संवेदना की गहनता का खेल है।

हम जब वस्तुओं के स्वभाव, उनकी जरूरतों को समझते हैं, तभी वे भी हमारे साथ संगत व्यवहार करती हैं। नहीं तो, उनका व्यवहार भी हमारे साथ असंगत ही रहता है। मगर हमारी संवेदना इस कदर कुंद होती गई है कि जीवित प्राणियों के प्रति ही संगति नहीं बना पाते, तो निर्जीव समझी जाने वाली वस्तुओं के प्रति भला कैसे लगाव पैदा कर पाएंगे। जिसके साथ दिन-रात रहते हैं, उन्हीं के साथ ठीक से संगति नहीं बन पाती।

बाजार में संवेदना

दरअसल, हमारी संवेदना को कुंद करने में सबसे बड़ा योगदान बाजार का है। संवेदना का अर्थ होता है, दूसरे की वेदना से संगति बिठा लेना, दूसरे की वेदना को समझ पाना और ठीक उसी तरह विचलित हो उठना जैसे दूसरा वेदना से विचलित है। यह संभव है। निर्जीव समझी जाने वाली वस्तु की भी वेदना हो सकती है। होती ही है। इसीलिए तो पुराने लोग आज भी अगर कोई वस्तु गलती से जमीन पर गिर गई, तो उसे उठा कर माथे से लगा लेते हैं। उससे अपनी गलती के लिए क्षमा याचना करते हैं।

खासकर भोजन के प्रति तो पुराने लोग विशेष रूप से संवेदनशील देखे जाते हैं। हमारे यहां अन्न को ब्रह्म कहा गया। केवल इसलिए नहीं कि अन्न उगाने में मेहनत अधिक लगती है, बल्कि इसलिए कि अन्न हमारी सृष्टि का एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। हमारे शरीर को जिन पांच कोषों में बांटा गया, उनमें एक महत्त्वपूर्ण कोष अन्नमय कोष भी है। अन्न के बिना शरीर को पोषण कैसे मिलेगा। पोषण ही नहीं मिलेगा, तो शरीर के बाकी कोष कैसे काम करेंगे। शरीर ही पुष्ट और चैतन्य न होगा, तो दृष्टि के सारे कामकाज रुक जाएंगे, सारा चक्र उलट-पुलट हो जाएगा। इसीलिए कृषि को स्वतंत्र और संपूर्ण संस्कृति का दर्जा दिया गया।

इस्तेमाल करो और फेंक दो

मगर बाजार ने सबसे अधिक अगर किसी चीज की बेकद्री की है, तो वह है अन्न। बाजार ने हर वस्तु को ‘कमोडिटी’ यानी उपभोग की वस्तु और हर आदमी को ‘कंज्यूमर’ यानी उपभोक्ता में बदल दिया है। ‘यूज एंड थ्रो’ यानी इस्तेमाल करो और फेंक दो की संस्कृति पैदा कर दी है। इस संस्कृति ने न सिर्फ बेपनाह कचरा और पर्यावरण के लिए भयावह खतरा पैदा किया है, बल्कि वस्तुओं के प्रति हमारा लगाव भी समाप्त कर दिया है। युवा पीढ़ी तो समझ ही नहीं पाती कि वस्तुओं का सम्मान कैसे करना चाहिए।

बाजार में जगह-जगह बना-बनाया भोजन उपलब्ध है। पैसा दिया और कागज में लिपटा भोजन खरीद लिया। जितना मन हुआ खाया, बाकी फेंक दिया। अब भोजन स्वाद का विषय है। पके हुए अन्न के बजाय जायके पर बल लगातार बढ़ता गया है। इसलिए जिस भोजन का स्वाद पसंद आया, जिसका जायका ठीक लगा उसे खाया नहीं तो फेंक दिया। शहरों की सड़कों के किनारे फेंके हुए भोजन की थैलियां हर कहीं सड़ती मिल जाएंगी।

घरों में भोजन पकाने की परंपरा भी धीरे-धीरे क्षीण हो रही है। जब हम घर में भोजन पकाते हैं, तो उस भोजन से लगाव पैदा होता है। बाजार जाते हैं, चुन-चुन कर साग-भाजी लाते हैं, अनाज लाते हैं। जब सब्जी काटते, आटा गूंथते, रोटी सेंकते, चावल-दाल धोते, उबालते हैं तो धीरे-धीरे उसके प्रति हमारी संवेदना विकसित होती जाती है हम ध्यान रखते हैं, सतर्क रहते हैं कि सब्जी ज्यादा गले नहीं, जले नहीं। जब हम अपने हाथ से भोजन पकाते हैं, तो उससे लगाव पैदा हो जाता है। उसे हम फेंकना नहीं चाहते। या तो उतना ही पकाते हैं, जितने को खाया जा सके या फिर अगर बच भी गया, तो बड़े प्यार और लगाव के साथ उसे ढंक-तोप कर, सहेज कर रख देते हैं कि दूसरे वक्त खा लेंगे।

लगाव से वंचित

पुराने लोग बच्चों को भोजन की संस्कृति सिखाते थे, वस्तुओं की कद्र करना सिखाते थे। अगर थाली में भोजन छूट जाए, तो डांट पड़ती थी। भोजन पूरी तरह समाप्त करना होता था। माना जाता था कि जिस घर में अन्न और भोजन की बेकद्री होती है, उस घर में बरकत कभी नहीं होती। मगर आजकल ‘हाइजीन’ यानी स्वच्छता के प्रति थोथी सतर्कता के चलते छूरी-कांटे का जो चलन विकसित हुआ है, उससे थाली में भोजन छोड़ना और फेंकना फैशन-सा बन गया है।

इसलिए कि भोजन के प्रति, अन्न के प्रति हमारी कोई संवेदना ही नहीं रह गई है। अनाज, फल, सब्जियां उपभोग की वस्तु हो गई हैं। उन्हें पैसे से खरीदा जा सकता है, इसलिए ‘उपभोक्ता’ को फेंकने का सहज अधिकार प्राप्त हो जाता है। अन्न ही क्यों, हर वस्तु के साथ हमारा यही व्यवहार होता है।

पहले के लोग अनुपयोगी वस्तुओं को भी सहेज कर रखा करते थे। इसलिए कि उनके प्रति उनका लगाव होता था। हर घर में एक ‘स्टोर रूम’ या कबाड़ घर होता था, जिसमें पुरानी और अनुपयोगी हो चुकी चीजें रखी जाती थी। अब ऐसा नहीं है। उपयोगी वस्तुओं को भी कबाड़ मान कर कबाड़ी को थमा दिया जाता है। नए चलन की नई वस्तु खरीद ली जाती है। बाजार हमें ऐसा करने को उकसाता रहता है। इस तरह बाजार का तो काम चल रहा है, मगर चीजों के प्रति हमारा लगाव खत्म हो रहा है।

चीजों से लगाव खत्म होने के दुष्परिणाम हम झेल रहे हैं। चीजें हमारे साथ प्रतिकूल प्रतिक्रिया कर रही हैं। भोजन के प्रति लगाव न होने से अनेक बीमारियां घेर रही हैं, भोजन हमारे शरीर को पोषण देने के बजाय रोग दे रहा है। चीजों के प्रति लगाव समाप्त होने की वजह से प्रकृति से हमारा लगाव भी समाप्त हो रहा है। चीजों से लगाव पैदा हो जाए, तो बहुत सारी चीजों का अनावश्यक दोहन रुक जाए। हम जरूरत भर का ही उपभोग कर पाएं।