उत्तराखंड में उत्तरकाशी के धराली, हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले और जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में बादल फटने से हुई त्रासदी प्रकृति से खिलवाड़ करने को लेकर एक गंभीर चेतावनी है। इन आपदाओं ने एक बार फिर सचेत किया है कि पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। ऐसा नहीं हुआ, तो भविष्य में इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। बाढ़ और भूस्खलन इस बात का प्रमाण है कि अगर मनुष्य समय रहते नहीं संभला, तो प्रकृति को रौद्र रूप धारण करने से कोई नहीं रोक सकता।
इस बीच, विकास की मौजूदा नीतियों और तौर-तरीकों पर एक बार फिर बहस ने तूल पकड़ लिया है। कहा जा रहा है कि भूस्खलन, भूकम्प और सुनामी जैसी आपदाएं प्रकृति से खिलवाड़ का ही नतीजा है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि जिस तेजी से हम विकास की राह पर आगे बढ़ रहे हैं, उससे कहीं न कहीं पर्यावरण को भी नुकसान हो रहा है। मगर विडंबना यह है कि अब भी इसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। एक ओर, निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, दूसरी ओर अवैज्ञानिक तरीके से हो रहे निर्माण कार्यों और बढ़ते प्रदूषण की वजह से पर्यावरण में असंतुलन पैदा हो रहा है।
आपदा से जान-माल के साथ देश की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर
यह सच है कि आपदा जब आती है, तो किसी को बता कर नहीं आती। सहसा आती है और जान-माल का नुकसान करती है। आपदाओं के कारण मानवीय, आर्थिक और पर्यावरणीय क्षति होती है। इससे उबरना आसान नहीं होता। इसलिए सरकार अमले के साथ हम सभी को पहले से पूरी तरह तैयार और मुस्तैद रहना चाहिए। यह सही है कि किसी भी आपदा को रोकना आसान काम नहीं होता है, लेकिन इनका प्रबंधन जरूर किया जा सकता है। क्योंकि, आपदा से जान-माल के साथ देश की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ता है।
दुनिया में प्राकृतिक आपदाओं से नुकसान पर संयुक्त राष्ट्र की एक रपट के अनुसार, कुदरती हादसों की वजह से भारत को हर वर्ष लगभग 9.8 अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ता है।
बीते दो दशक में मौसम चक्र में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है। इससे हिमनद पिघलने लगे हैं और नदियों के जल स्तर में कमी दर्ज की जा रही है। इतना ही नहीं, प्रकृति से खिलवाड़ के कारण पहाड़ों का प्राकृतिक सौंदर्य भी अपनी पहचान खोने लगा है। बिगड़ते पर्यावरण के कारण पहाड़ों की जड़ी-बूटियां लुप्त होने के कगार पर हैं। फसलों और फलों के उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पड़ने लगा है।
विकास की अंधी दौड़ में अंधाधुंध निर्माण किए जा रहे हैं। वनों को लगातार नष्ट किया जा रहा है। ऐसे में यदि किसी एक कारण को रेखांकित करने का प्रयास किया जाए, तो वह है- जलवायु परिवर्तन। गौर करने वाली बात यह है कि पेरिस जलवायु समझौते में जिन बातों पर सहमति बनी थी, उन्हें लागू करने से दुनिया अभी भी बहुत दूर है। बेशक छोटे देशों पर इसके लिए दबाव बढ़ाया जा रहा है और कई विकासशील देश इस दिशा में ठोस कार्य नीति के साथ आगे भी आ रहे हैं, लेकिन बड़े और विकसित देश खुद इसको लेकर गंभीर नहीं है।
सवाल यह भी अहम है कि इस दिशा में भारत ने कितना काम किया है। ऐसे में, क्या यह सही समय है कि पेरिस समझौते को लागू करने के लिए वैश्विक दबाव बढ़ाने के साथ ही हम प्रकृति के प्रति अपने व्यवहार की समीक्षा करें। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के स्थान पर उन विकल्पों पर भी विचार करें, जो समूची मानवता को लोभ, स्वार्थ और बड़े होने के दंभ से दूर खुशहाल जीवन का आश्वासन दें। भारत में बरसात आते ही नदियों में बाढ़ आना आम बात है।
इसी के साथ भूकम्प, तेज बारिश, ओलावृष्टि, तूफान, चक्रवात, भूस्खलन, हिमस्खलन, बिजली गिरने और वनों में आग लगने जैसी प्राकृतिक आपदाएं भी बढ़ रही हैं। ये हर साल भारी तबाही मचाती हैं। इनमें बड़ी संख्या में लोगों की मौत हो जाती है। इन आपदाओं से देश की अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ता है। इसलिए जरूरी है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में केवल चिंतन तक ही सीमित न रह कर धरातल पर कार्य किए जाएं।
किश्तवाड़ के बाद कठुआ में तबाही, बादल फटने से मची अफरा-तफरी; अब तक चार की मौत
गौर करने वाली बात यह भी है कि प्राकृतिक आपदाओं की संख्या में दुनिया भर में अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरे नंबर पर है। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से भारत में ऐसी अनेक आपदाएं आईं, जिन्होंने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। वर्ष 2013 में केदारनाथ में मची भारी तबाही के बाद से राज्य में लगातार ऐसी छोटी-बड़ी घटनाएं होती रही हैं।
इसके अलावा वर्ष 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी, वर्ष 2001 में गुजरात के कच्छ में आया भूकम्प और वर्ष 2014 में कश्मीर में आई बाढ़ जैसी आपदाएं ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें बड़ी संख्या में लोगों की जानें गर्इं और अभी तक इन जगहों का आपदा से पहले का स्वरूप बहाल नहीं हो सका है। ऐसा लगता है कि हमने इन तमाम आपदाओं से अब तक कोई सबक नहीं लिया। जबकि ऐसी आपदाएं हमें यह सबक देती हैं कि भले ही हम कुदरत की मार न रोक सकें, लेकिन जन-धन की हानि को कम करने के प्रयास जरूर किए जा सकते हैं।
दुनिया तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रही है। इस क्रम में प्रकृति के साथ कहीं ज्यादा खिलवाड़ हो रहा है। अगर अभी से हम नहीं चेते, तो भविष्य में इसके गंभीर परिणाम सामने आएंगे। क्योंकि, शहरों के विकसित होने के साथ-साथ दुनिया भर में हरियाली का दायरा सिकुड़ रहा है और कंक्रीट के जंगल बढ़ रहे हैं।
इतना ही नहीं, बिगड़ते पर्यावरणीय संतुलन और मौसम चक्र में आते बदलाव के कारण पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के अलावा जीव-जंतुओं की कई प्रजातियों के अस्तित्व पर भी अब संकट के बादल मंडरा रहे हैं। जबकि पर्यावरण का संबंध मानवीय जीवन में महत्त्वपूर्ण है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। ऐसा लगता है कि विकास के आगे पर्यावरण को हमने हाशिये पर धकेल दिया है।
मौजूदा दौर में मानवीय सोच में इतना बदलाव आ गया है कि भविष्य की चिंता सिर्फ कागजों और वक्तव्यों में ही सिमट कर रह गई है। इसमें दोराय नहीं कि अपने कृत्यों के कारण आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है। अगर हम अब भी नहीं संभले और प्रकृति से खिलवाड़ बंद नहीं किया, तो इसके खतरनाक परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।
पर्यावरणीय असंतुलन के बढ़ते खतरों के मद्देनजर हमें सोचना होगा कि हम अपने स्तर पर प्रकृति संरक्षण के लिए क्या योगदान दे सकते हैं। सरकार को भी चाहिए कि नियम-कानूनों को सख्ती से लागू किया जाए और पर्यावरण संरक्षण को लेकर व्यापक स्तर पर जन-चेतना पैदा की जाए।