Uttarakhand Tunnel Operation: उत्तरकाशी के निर्माणाधीन टनल में फंसे सभी 41 मजदूरों को 17 दिन बाद मंगलवार को बाहर निकाल लिया गया। इनमें कई मजदूरों की कहानी ऐसी है, जिसे सुनकर आपकी आंखे नम हो जाएंगी। उन्हीं में से एक हैं रांची जिला के चुटुपालु पंचायत के खीराबेड़ा के रहने वाले राजेंद्र बेदिया। राजेंद्र बेदिया जब अपने घर से निकले तो उनके पास एक छोटा बैग था। जिसमें उनके तीन जोड़ी कपड़े, आधार कार्ड और 400 रुपये रखे थे और जूता पहने थे। नवंबर के पहले सप्ताह में जब वो चले तो उसे यही पता था कि देखो कब वो अपने घर वापस आएगा।
अपने 22 साल के जीवन में राजेंद्र बेदिया ने कक्षा 9 के बाद पढ़ाई छोड़ दी। उसके बाद उसने पटना और हैदराबाद में निर्माण स्थलों पर काम किया, लेकिन यह उत्तराखंड था, यहां का काम कितना अलग हो सकता है? शायद उसे अंदाजा नहीं था, लेकिन उसके शरीर की हर दर्द से कराह उठी मांसपेशी को पता है कि काम को बोझ कैसा होता है।
उसे इतना पता है कि वो काम करेगा। उसके बदले पैसे मिलेंगे। उन पैसों से वो अपने घर की जरूरतों को पूरा करेगा। जैसे- उसकी मां को घर चलाने के लिए पैसे, उसके पिता के मेडिकल बिल, छोटी बहन की शादी और कुछ दिन के लिए खुद का खर्चा।
यही सोचकर वो काम करने के लिए घर से निकल लिए। उन्होंने उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में 4.5 किलोमीटर लंबी सिल्कयारा-डंडलगांव सुरंग पर काम करना शुरू किया, जिसमें उन्होंने 400 घंटे से अधिक समय बिताया, क्योंकि पहाड़ के कुछ हिस्से 12 नवंबर को ढह गए थे। जब वह मलबे के 60 मीटर के टीले के पीछे खड़े थे। सुरंग का मुहाना बंद हो गया था। इस दौरान वो बेहद घबराहट के क्षणों से घिर गया था। वो सोच रहा था कि क्या वह अपने बूढ़े और व्हीलचेयर पर बैठे पिता को फिर कभी देख पाएगा? उसने अपनी मां को अलविदा नहीं कहा था। जब वह गया तो वह घर पर नहीं थी। क्या वह उसे फिर कभी देख पाएगा? क्या वो अपनी बहन की शादी कर पाएगा?
घर से बाहर निकला-
राजेंद्र बेदिया और गांव के आठ अन्य लोगों ने पड़ोसी जिले रामगढ़ के बरकाकाना रेलवे स्टेशन के लिए एक टेंपो ट्रैवलर किराए पर किया। 65 रुपये में चार घंटे की ट्रेन यात्रा उन्हें कोडरमा रेलवे स्टेशन ले गई, जहां उन्होंने रात बिताई।
राजेंद्र बेदिया ने एम्स ऋषिकेश में द इंडियन एक्सप्रेस से बात की। उन्होंने बताया, ‘हम बोल के आए थे कि काम करने जा रहे हैं, लेकिन हमको खुद ही नहीं पता था कि काम क्या होगा। ट्रेन पर बैठे तो पता चला कि मैं एक सुरंग में काम करने जा रहा हूं।’
बेदिया ने बात करते हुए कहा कि ठेकेदार, जिसने गांव के अन्य लोगों के माध्यम से उनसे संपर्क किया था, जो पहले से ही सुरंग स्थल पर काम कर रहे था। उन्होंने ट्रेन का टिकट दिया था। इसलिए अगली सुबह, 3 बजे, बेदिया और अन्य लोग ऋषिकेश के लिए ट्रेन में चढ़ गए। यह 31 घंटे की यात्रा थी, जिसे उन्होंने सोते हुए, दूसरों के साथ बातें करते हुए और अपने पसंदीदा अभिनेता, तेलुगु स्टार अल्लू अर्जुन की अपने फोन पर डाउनलोड की गई फिल्में देखने के लिए अपनी बर्थ पर जाकर बिताया।’
ऋषिकेश से बेदिया और अन्य लोगों को उनके कार्य स्थल पर ले जाया गया। उत्तरकाशी जिले के एक गांव सिल्क्यारा तक, जो 150 किलोमीटर की यात्रा थी। जहां उन्हें 889 किलोमीटर लंबे चार धाम राष्ट्रीय मार्ग का हिस्सा, सिल्क्यारा-दंदालगांव सुरंग पर काम करना था।
बेदिया बताते हैं कि उनको उत्तराखंड की पहाड़ियों में मज़ा आया। ताजी हवा में सांस लेना। सुरंग से 10 मिनट की पैदल दूरी पर रहने वाले क्वार्टर में जब उन्हें बिस्तर और कंबल और गर्म कपड़े दिए गए तो उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ। खाना भी अच्छा था। सप्ताह में दो बार चिकन करी, सप्ताह में एक बार अंडा करी, और बाकी दिनों में छोले और सब्जियां खाने में मिलती थीं।
सुरंग ढहना: ‘भूकंप जैसा महसूस हुआ’
बेदिया कहते हैं कि काम कठिन था। उनके काम के पहले दिन में गुफानुमा सुरंग में जाना और पाइपलाइन और चिनाई में सहायता करना शामिल था। वो कहते हैं कि मैंने पहले कभी पहाड़ी इलाकों में काम नहीं किया था, इसलिए सुरंग पहली बार में डरावनी लग रही थी। लेकिन मुझे इसकी आदत हो गई। हर दिन 12 घंटे काम करना पड़ता था। बेदिया को 19 हजार रुपये महीने और महीने में दो दिन की छुट्टी का वादा किया गया था।
12 नवंबर की उस सुबह जिस वक्त घटना घटी। उस वक्त बेदिया रात की पाली में थे। जब सुबह 5 बजे के आसपास, सबसे डरावना विस्फोट हुआ। वो कहते हैं, ‘मैं उस क्षेत्र के पास था जो ढह गया था, और उस राजमिस्त्री की सहायता कर रहा था जो सुरंग के आर्च पर काम कर रहा था। ऐसा लगा मानो भूकंप आ गया हो। सुरंग धुएं और धूल से भरी हुई थी और सांस लेना मुश्किल था। जब मैंने आंखे खोलीं तो उन्होंने अपने साथी श्रमिकों को हताश देखा और हर कोई धूल से सना हुआ था।
कुछ क्षण बाद, कुछ श्रमिक सुरंग के मुहाने पर पहुंचे, जो अब मलबे का एक विशाल टीला बन गया था। कुछ लोगों ने टीले को फावड़े से खोदने की कोशिश की, लेकिन कोशिश नाकाम रही।
बेदिया घटना को याद करते हुए कहते हैं कि प्रारंभिक घबराहट ने निराशा का मार्ग प्रशस्त किया, हर कोई इस बात की भयावहता से स्तब्ध हो गया कि उन पर क्या हुआ है। वो कहते हैं कि मैंने सबसे पहले घर, परिवार के बारे में सोचा… मैं यहां कैसे पहुंच गया? क्या मैं अपने पिता को दोबारा देख पाऊंगा? मेरे परिवार को कौन खिलाएगा, उनकी देखभाल कौन करेगा? क्या उन्हें कभी पता चलेगा कि मेरे साथ क्या हुआ? उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी? वे मदद के लिए कहां जाएंगे?”
गब्बर सिंह नेगी ने मुझे साहस दिया: बेदिया
ऐसी स्थिति में एक नायक की जरूरत होती है। सौभाग्य से बेदिया और अन्य लोगों के पास “नेगी जी” थे। फोरमैन गब्बर सिंह नेगी, दो लगभग 45 वर्ष के हैं। सुरंग में फंसे हुए लोगों में सबसे सीनियर। जिन्होंने उन्हें प्रेरित किया और उन्हें उम्मीद न खोने के लिए कहा। नेगी की कहानियां कि कैसे वह पहले भी इसी तरह की स्थिति में थे। नेगी सिक्किम में भूस्खलन के बाद कई दिनों तक फंसे रहे। उन्होंने बेदिया और अन्य लोगों को आशा दी। बेदिया कहते हैं कि उन्होंने हमें बताया कि सिक्किम में उन्हें खुद को जीवित रखने के लिए केले के छिलके पर जीवित रहना पड़ता था। उनकी कहानियाँ प्रेरणादायक थीं।’
सौभाग्य से उनके लिए मलबे में बिजली आपूर्ति लाइनों और सुरंग से पानी निकालने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली 4 इंच की पानी की पाइप को बरकरार रखा था। जो पहले कुछ दिनों के लिए जीवनरक्षक साबित होगा।
सुरंग में फंसे हुए लोगों में किसी एक ने सुझाव दिया कि वे इस पाइप के माध्यम से रुक-रुक कर पानी बाहर निकालते रहें, बाहरी दुनिया को यह बताने का एक तरीका है कि वे जीवित हैं। यह विचार सफल हुआ और कई एजेंसियों को शामिल करते हुए एक अभूतपूर्व बचाव अभियान शुरू हुआ।
सुरंग में फंसे अंदर किसी को खाना खाए 24 घंटे से ज्यादा हो गए थे। कुछ को झपकी आ गई थी, कुछ बेचैनी से इधर-उधर टहल रहे थे। अचानक, लगभग जादुई तरीके से 13 नवंबर को सुबह 3 बजे के आसपास उन्हें उस पाइप से धीमी आवाजें सुनाई दीं, जिसके माध्यम से उन्होंने पानी भेजा था। दूसरी तरफ से किसी ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे कुछ वक्त बाद बाहर होंगे।
बेदिया कहते हैं, ”यह पहली बार था जब हमने किसी बाहर के व्यक्ति से बात की, हालांकि हम उन्हें ठीक से सुन नहीं सके या उनसे बात नहीं कर सके, लेकिन आखिरकार हमने सुरक्षित महसूस किया। हम जानते थे कि हर कोई हमें बाहर निकालने के लिए काम कर रहा था। यह बहुत आश्वस्त करने वाला था।” बेदिया कहते हैं कि इसके कुछ मिनट बाग पाइप के माध्यम से मुरमुरे भेजे गए। जिसके बाद हम लोगों की आंखें चमक उठीं और सभी लोग पाइप के चारों ओर भीड़ लगाने लगे।
