केंद्र की घबराहट बढ़ाते हुए उत्तराखंड हाई कोर्ट ने परोक्ष तौर पर चेतावनी देते हुए कहा कि उम्मीद करते हैं कि राज्य में लगाए गए राष्ट्रपति शासन को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला सुनाए जाने तक इसे वापस नहीं लिया जाएगा और अदालत को नहीं भड़काया जाएगा। इससे पहले दोपहर में अदालत ने कहा कि विधानसभा को निलंबित करने के राष्ट्रपति के फैसले की वैधता भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में है, क्योंकि वह भी गलत हो सकते हैं।
केंद्र सरकार के अतिरिक्त महाधिवक्ता ने कहा कि राष्ट्रपति के फैसले की समीक्षा नहीं की जा सकती है। उनके इस तर्क पर सख्त रुख अपनाते हुए नैनीताल हाईकोर्ट ने कहा कि किसी के भी फैसले की समीक्षा की जा सकती है। राष्ट्रपति राजा नहीं हैं। पूर्ण शक्ति किसी को भ्रष्ट कर सकती है। सभी अदालतों के आदेशों के न्यायिक फैसलों की पुनर्समीक्षा का अधिकार भारत के न्यायालयों को है। नैनीताल हाईकोर्ट के खंडपीठ के इस सख्त रवैए से जहां कांग्रेस के खेमों में खुशी है, वहीं भाजपा में निराशा है।
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राजग सरकार के इस तर्क पर कि राष्ट्रपति ने अपने ‘राजनैतिक विवेक’ के तहत संविधान के अनुच्छेद 356 को लागू करने का निर्णय किया, मुख्य न्यायाधीश के एम जोसफ और न्यायमूर्ति वीके बिष्ट के पीठ ने कहा, ‘लोगों से गलती हो सकती है, चाहे वह राष्ट्रपति हों या न्यायाधीश।’ अदालत ने कहा कि ‘राष्ट्रपति के समक्ष रखे गए तथ्यों के आधार पर किए गए उनके निर्णय की न्यायिक समीक्षा हो सकती है।’ केंद्र के यह कहने पर कि राष्ट्रपति के समक्ष रखे गए तथ्यों पर बनी उनकी समझ अदालत से जुदा हो सकती है, अदालत ने यह टिप्पणी की।
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मुख्य न्यायाधीश के एम जोसफ और न्यायमूर्ति वीके बिष्ट के पीठ ने कहा, ‘हम उम्मीद करते हैं कि वे हमें नहीं नाराज करेंगे।’ पीठ ने यह टिप्पणी तब की जब वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इस बात की आशंका जताई कि फैसला सुनाए जाने से पहले राष्ट्रपति शासन वापस लिया जा सकता है।
अतिरिक्त सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता ने इस बात की पुष्टि नहीं की कि क्या राष्ट्रपति शासन हटाने के बारे में केंद्र ने कोई फैसला किया है। सिंघवी ने कहा कि फैसला टाले जाने या सुनाए जाने से पहले राष्ट्रपति शासन नहीं हटाया जाना चाहिए और विपक्ष को सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे याचिका निरर्थक हो जाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि केंद्र अदालत को फैसला तेजी से सुनाने के लिए बाध्य करने के लिए इस तरह के हथकंडों का इस्तेमाल नहीं कर सकता।
बुधवार को नैनीताल हाई कोर्ट में राष्ट्रपति शासन को लेकर केंद्र सरकार और उत्तराखंड के बर्खास्त मुख्यमंत्री हरीश रावत के वकीलों ने अपनी-अपनी दलीलें दी। दोनों पक्षों की दलीलें आज पूरी हो गई। अब अगली सुनवाई गुरुवार को होगी। बुधवार (20 अप्रैल) देर शाम पांच बजे तक हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई हुई।
सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट के दो सदस्यीय खंडपीठ ने राष्ट्रपति शासन पर कड़ा रुख अपनाया। केंद्र सरकार के
अतिरिक्त महाधिवक्ता तुषार मेहता ने अदालत के सामने केंद्र सरकार का पक्ष रखा। वहीं याचिकाकर्ता हरीश रावत की तरफ से वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने अदालत से कहा कि विधानसभा अध्यक्ष के बिल के मंजूर कहने और राज्यपाल के विवादित कहने से राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया जा सकता है। वहीं केंद्र सरकार के अतिरिक्त महाधिवक्ता ने कहा कि गोपनीय कागजों के मुताबिक विपक्ष के नेता अजय भट्ट की ओर से राज्यपाल को लिखे पत्र में कहा गया था कि 27 विधायकों ने फ्लोर टेस्ट की मांग की थी। जबकि नौ बागी कांग्रेसी विधायकों का नाम उसमें नहीं था।
अदालत ने इस बात को भी गंभीरता से लिया कि केंद्र ने आरोप लगाया है कि विधानसभा अध्यक्ष ने भाजपा विधायक भीम लाल आर्य के खिलाफ अयोग्यता की शिकायत को लंबित रखा जबकि हकीकत में उनके खिलाफ शिकायत राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के बाद दाखिल की गई। पीठ ने कहा, ‘राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के बाद पांच अप्रैल को शिकायत क्यों दायर की गई। हम सोच रहे थे कि विधानसभा अध्यक्ष ने क्यों दोहरा मानदंड अपना रखा है कि उन्होंने कांग्रेस के नौ बागी विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया जबकि आर्य के खिलाफ शिकायत को लंबित रखा।’
पीठ ने कहा, ‘यह भयानक है। आप (विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ) इस तरह का भयानक आरोप लगा रहे हैं। इस तरह से भारत सरकार काम करती है। इस बारे में आपको (केंद्र को) क्या कहना है। इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि वह (अयोग्य ठहराने के संबंध में विधानसभा अध्यक्ष का आचरण) भी राष्ट्रपति की संतुष्टि का आधार था। हम इसको गंभीरता से ले रहे हैं।’
मेहता ने कहा कि उन्हें इस पर निर्देश लेने की आवश्यकता होगी और अदालत को कल बताएंगे। इसके बाद अदालत ने इस स्पष्टीकरण के लिए मामले की सुनवाई कल के लिए निर्धारित कर दी। दिन की कार्यवाही के उत्तरार्द्ध में अदालत ने याचिकाकर्ता रावत से भी एक सवाल पूछा कि उनके आचरण को देखते हुए ‘क्यों विशेषाधिकार (अनुच्छेद 356) का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।’ अदालत स्टिंग ऑपरेशन का उल्लेख कर रही थी जिसमें रावत के कथित तौर पर खरीद फरोख्त में शामिल होने का इशारा किया गया है। इस पर रावत के वकील सिंघवी ने कहा कि स्टिंग कथित तौर पर एकमात्र उदाहरण है।