अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) को दी जाने वाली आर्थिक मदद रोक दी है और इसके आगे की राह डब्लूएचओ के लिए और जोखिम भरी ही साबित होने वाली है। यह मुद्दा संवेदनशील हो चुका है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जबसे कोरोना विषाणु को ‘चीनी वायरस’ कहा और डब्लूएचओ पर चीन के पक्षधर होने के आरोप लगाए, तबसे ही इस वैश्विक संगठन और अमेरिका के बीच तनाव बना हुआ है। ट्रंप का आरोप है कि डब्लूएचओ धन अमेरिका से लेता है, लेकिन काम चीन के लिए करता है।

शुरुआत कैसे हुई
जनवरी के आखिर में डब्लूएचओ के प्रमुख टेड्रोस एडहैनॉम ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात की और वैश्विक महामारी से निपटने के लिए चीन की खूब तारीफ की। डब्लूएचओ ने उस समय भी चीन की यात्रा और सीमाओं के साथ संपर्क बनाए रखने की वकालत तक की। जानकारों का मानना है कि डब्लूएचओ को शायद डर था कि अगर वह चीन को किसी भी रूप में चुनौती देता है, तो चीन की प्रतिक्रिया संकट को और बढ़ा सकती है।

बर्लिन स्थित मेर्केटर इंस्टीट्यूट फॉर चाइना स्टडीज (मेरिक्स) के थोमास देस गैरेट्स गेडेस अपनी रिपोर्ट में कहते हैं, ‘ऐसा हो सकता था कि फिर चीन अंतरराष्ट्रीय समुदाय से जरूरी जानकारी साझा करना बंद कर देता या फिर डब्लूएचओ के शोधकर्ताओं को देश में ही नहीं आने देता। लेकिन इससे यह बात साफ नहीं होती कि डब्लूएचओ ने चीन की इतनी तारीफ क्यों की। बढ़-चढ़ कर और कई बार तो गलत तरीके से तारीफ करना अनावश्यक था और गलत भी।’ इससे पहले 2014-15 में जब इबोला ने दुनिया में अपना कहर बरपाना शुरू किया था, उस समय डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक मागर्रेट चान थे। इबोला के समय चान को दुनिया में हर तरफ से आलोचना का शिकार होना पड़ा था। चान ने इबोला के फैलने पर देर से प्रतिक्रिया दी थी।

चीन और अमेरिकी फंडिंग के राज
विश्व स्वास्थ्य संगठन के दुनिया भर में 194 सदस्य देश हैं और सभी को एक खास रकम सदस्यता राशि के रूप में हर साल देना होती है, इस फंड को ‘असेस्ड फंड’ कहते हैं और इसके अलावा दान के तहत आने वाली राशि को ‘वॉलेंटरी फंड’ कहा जाता है। वित्तीय वर्ष में डब्लूएचओ का बजट करीब 2.4 अरब डॉलर का है। 2014 के मुकाबले चीन की तरफ से फंडिंग 52 फीसद बढ़कर 8.6 करोड़ डॉलर की हुई है। ‘वॉलेंटरी फंड’ भी बढ़कर 2019 में 1.2 करोड़ डॉलर का हुआ है। हालांकि, यह रकम अमेरिका के मुकाबले बहुत कम है। डब्लूएचओ को दुनिया से जितनी रकम मिलती है, उसका करीब 15 फीसद सिर्फ अमेरिका देता है। 2018-19 में अमेरिका ने डब्लूएचओ को करीब 89.3 करोड़ डॉलर तक की वित्तीय सहायता दी।

महामारी और आकस्मिक फंड
डब्लूएचओ अपने पास आए धन में से दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में इस प्रकार खर्च करता है- अफ्रीकी क्षेत्र के लिए 1.2 बिलियन डॉलर, पूर्वी भूमध्य क्षेत्र के लिए 1.02 बिलियन डॉलर, डब्लूएचओ मुख्यालय के लिए 963.9 मिलियन डॉलर, इसके बाद दक्षिण पूर्व एशिया (198.7 मिलियन डॉलर), यूरोप (200.4 मिलियन डॉलर), पश्चिमी प्रशांत (152.1 मिलियन डॉलर)। इसके अतिरिक्त अमेरिकी क्षेत्र को 39.2 मिलियन को दिया जाता है। भारत दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र का हिस्सा है। डब्लूएचओ का 2018-19 का कुल बजट 6.3 बिलियन डॉलर था। अमेरिका से मिलने वाले फंड का ज्यादातर उपयोग पोलियो, वैक्सीन और दूसरे पोषण व्यवस्था में खर्च होता है। आकस्मिक कामकाज में अमेरिकी रकम महज 2.97 फीसद ही खर्च किया जाता है। जबकि महामारी को रोकने या नियंत्रण करने में केवल 2.33 फीसद ही अमेरिकी रकम खर्च होती है।

परियोजनाएं और कम्युनिस्ट जड़ें
मेरिक्स की रिपोर्ट के मुताबिक, हो सकता है कि डब्लूएचओ की चीन के ‘हेल्थ सिल्क रोड’ परियोजना में भी भागीदारी हो। यह तय है कि डब्लूएचओ और चीन के बीच रिश्ते गहरा रहे हैं। अर्थव्यवस्था और कूटनीति में चीन का प्रभाव दुनिया में बढ़ रहा है। डब्लूएचओ प्रमुख टेड्रोस के राजनीतिक झुकाव की बातें भी सामने आई हैं। वे इथोपिया के टिगरे लिब्रेशन फ्रंट नामक उस पार्टी से जुड़े रहे हैं, जिसे अमेरिका ने 90 के दशक में आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल किया था। वह कम्युनिस्ट विचारधारा की पार्टी थी, जिसने बाद में सत्ता भी संभाली। चीन में कम्युनिस्ट शासन है। इसलिए माना जा रहा है कि टेड्रोस के झुकाव हो सकते हैं।

ताइवान पर खींचतान
दुनिया के 194 देश विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य हैं। ताइवान इसका हिस्सा नहीं है। माना जाता है कि इसके पीछे भी चीन का ही प्रभाव है, क्योंकि चीन हमेशा से ताइवान को अपना ही हिस्सा बताता रहा है, इसलिए ताइवान की स्वतंत्र पहचान को डब्लूएचओ ने अब तक मंजूर नहीं किया है। दरअसल, ताइवान के महामारी कमांड केंद्र ने 31 दिसंबर 19 को ही डब्लूएचओ को चेताया था कि कोरोना विषाणु के कारण मनुष्यों से मनुष्यों में संक्रमण की भारी गुंजाइश नुकसानदायक साबित हो सकती है। लेकिन सदस्य देश नहीं होने के कारण डब्लूएचओ ने ताइवान की इस सूचना को गंभीरता से नहीं लिया। इस सेंटर से जानकारी मिलने पर डब्लूएचओ ने केवल इतनी प्रतिक्रिया दी कि उसे उचित विभाग को सौंप दिया गया।

क्या कहते हैं जानकार

अमेरिका द्वारा फंड रोकने के फैसले के बाद डब्लूएचओ का नए अंतरराष्ट्रीय नेतृत्व और नए सदस्यों के साथ फिर से गठन हो सकता है। लेकिन इससे दुनियाभर में अमेरिका का प्रभाव कम होगा। अमेरिका सदस्य देशों के साथ अपनी आवाज और असर खो देगा।
– डॉ. अमेश अदलजा, सीनियर स्कॉलर, जॉन हॉपकिंस सेंटर फॉर हेल्थ सिक्युरिटी

डब्लूएचओ को ज्यादा से ज्यादा फंडिंग देने की जरूरत है। डब्ल्यूएचओ इस जरूरतमंद देशों को जरूरी सामान मुहैया कराएगा। ट्रंप के एलान से विषाणु पर काबू के प्रयासों पर प्रभाव पड़ सकता है जैसे कि कोरोना के लिए टीका बनाना।
– प्रोफेसर देवी श्रीधर, जनस्वास्थ्य, एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी