रामानुज पाठक

भारतीय अर्थव्यवस्था में इस्पात प्रमुख क्षेत्रों में से एक है। वित्तवर्ष 2021-22 में देश के सकल घरेलू उत्पाद में इस्पात उद्योग की भागीदारी दो फीसद रही। भारत वर्तमान में कच्चे इस्पात का दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है, जहां मार्च, 2022 को समाप्त हुए वित्तवर्ष के दौरान बारह सौ लाख टन कच्चे इस्पात का उत्पादन हुआ था।

देश में इसका अस्सी फीसद से अधिक भंडार ओड़िशा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश के उत्तरी क्षेत्रों में है। वर्ष 2021 में भारत तैयार इस्पात का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता (106.23 मीट्रिक टन) रहा। विश्व इस्पात संगठन के अनुसार, चीन सबसे बड़ा इस्पात उपभोक्ता है।

इस्पात को पुनर्चक्रित किया जा सकता है। भूगर्भ में 5.6 फीसद लौह तत्त्व विद्यमान है, इसलिए इसके कच्चे माल का आधार भी मजबूत है। इस्पात का उत्पादन अन्य सभी अलौह पदार्थों के कुल उत्पादन से बीस गुना अधिक है। सब मिलाकर इस्पात की लगभग दो हजार किस्मों का विकास हुआ है, जिसमें डेढ़ हजार प्रकार के इस्पात उच्च श्रेणी के हैं।

अभी विभिन्न प्रकार के गुणधर्म वाले इस्पात की नई श्रेणियों के विकास की असीम संभावनाएं हैं। इस्पात एक महान सहयोगी है, जो वृद्धि और विकास को आगे बढ़ाने के लिए अन्य सभी चीजों के साथ मिलकर काम कर रहा है। एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था को एक स्वस्थ इस्पात उद्योग की आवश्यकता होती है, जो रोजगार प्रदान करे और विकास को आगे बढ़ाए। प्रति व्यक्ति औसत विश्व इस्पात उपयोग 2001 में 150 किलोग्राम से लगातार बढ़ कर 2020 में लगभग 230 किलोग्राम तक पहुंच चुका है, जिससे दुनिया अधिक समृद्ध हुई है।

इस्पात का उपयोग हर महत्त्वपूर्ण उद्योग में किया जाता है; ऊर्जा, निर्माण, वाहन निर्माण और परिवहन, बुनियादी ढांचा, पैकेजिंग और मशीनरी। 2050 तक हमारी बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्पात का उपयोग वर्तमान स्तर की तुलना में लगभग बीस फीसद बढ़ने का अनुमान है।

आवास और निर्माण क्षेत्र आज इस्पात का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, जो उत्पादित इस्पात का पचास फीसद से अधिक उपयोग करता है। विश्व स्तर पर, साठ लाख से अधिक लोग इस्पात उद्योग के लिए काम करते हैं। हमने इस्पात उत्पादन तकनीक में उस स्तर तक सुधार किया है, जहां विज्ञान की सीमाएं ही हमारी क्षमता को सीमित करती हैं। हमें इन सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

चूंकि दुनिया अपनी पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ रही है, यह इस्पात पर भी निर्भर है। इस्पात उद्योग में उपयोग होने वाले लगभग नब्बे फीसद पानी को साफ, ठंडा किया जाता और स्रोत में वापस कर दिया जाता है। पिछले पचास वर्षों में एक टन इस्पात का उत्पादन करने के लिए उपयोग की जाने वाली ऊर्जा में लगभग साठ फीसद की कमी आई है। इस्पात दुनिया में सबसे अधिक पुनर्नवीकृत सामग्री है, 2021 में लगभग 6800 लाख टन का पुनर्चक्रण किया गया।

बावजूद इन सबके कार्बन डाइआक्साइड के उत्पादन में इस्पात उद्योग तीन सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। इस्पात निर्माण किसी भी अन्य भारी उद्योग की तुलना में अधिक कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन करता है, जिसमें कुल वैश्विक उत्सर्जन का लगभग आठ फीसद शामिल है। नतीजतन, दुनिया भर में इस्पात उद्यमियों को पर्यावरण तथा आर्थिक दोनों दृष्टियों से अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

ऐसे में नए हरित इस्पात उत्पादन की अवधारणा ने जन्म लिया है। हरित इस्पात का आशय जीवाश्म ईंधन के उपयोग के बिना इस्पात के निर्माण से है। इसमें कोयले से चलने वाले संयंत्रों के पारंपरिक कार्बन-गहन निर्माण के बजाय नवीकरणीय या निम्न कार्बन ऊर्जा स्रोतों, जैसे हाइड्रोजन गैस या बिजली का उपयोग कर इस्पात का निर्माण करना है।

अधिक स्वच्छ विकल्पों के साथ प्राथमिक उत्पादन प्रक्रियाओं को प्रतिस्थापित करना कम कार्बन हाइड्रोजन के साथ ऊर्जा के पारंपरिक स्रोतों का प्रयोग, लौह अयस्क के विद्युत अपघटन के माध्यम से प्रत्यक्ष विद्युतीकरण हरित इस्पात उत्पादन के अंग हैं। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सीओपी-26 में की गई प्रतिबद्धताओं के तहत भारतीय इस्पात उद्योग को वर्ष 2030 तक अपने उत्सर्जन को काफी हद तक कम करने और वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन तक पहुंचाने की आवश्यकता है।

वैसे भी यूरोपीय संघ एक जनवरी, 2026 से इस्पात, एल्यूमीनियम, सीमेंट, उर्वरक, हाइड्रोजन और विद्युत की प्रत्येक खेप पर कार्बन कर (कार्बन सीमा समायोजन तंत्र) एकत्र करना शुरू कर देगा। यह भारत द्वारा यूरोपीय संघ को लौह, इस्पात तथा एल्यूमीनियम उत्पादों, जैसे धातुओं के निर्यात को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा, क्योंकि इन्हें इन उत्पादों को यूरोपीय संघ के ‘सीबीएएम’ तंत्र के तहत अतिरिक्त जांच प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ेगा। सीबीएएम, ‘फिट फार 55 इन 2030 पैकेज’ का हिस्सा है। यह यूरोपीय संघ की एक योजना है, जिसका उद्देश्य यूरोपीय जलवायु कानून के अनुरूप वर्ष 1990 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को लगभग 55 फीसद तक कम करना है।

हरित इस्पात उद्योग के लिए कई सरकारी पहलें की गई हैं जैसे, राष्ट्रीय इस्पात नीति (एनएसपी) 2017, इस्पात कबाड़ पुनर्चक्रण नीति, चौथी औद्योगिक क्रांति को अपनाना (उद्योग 4.0), भारत का इस्पात अनुसंधान और प्रौद्योगिकी मिशन, ड्राफ्ट फ्रेमवर्क नीति, विशेष इस्पात के लिए पीएलआइ योजना, सम्मलित हैं।

मगर भारत ऐतिहासिक रूप से इस्पात क्षेत्र के लिए प्रौद्योगिकी, अनुसंधान और विकास में निवेश करने में पीछे रहा है। इससे अंतरराष्ट्रीय अनुसंधान और प्रौद्योगिकी पर निर्भरता बढ़ती है, जिससे अतिरिक्त लागत में वृद्धि होती है। पुरानी तथा प्रदूषणकारी प्रौद्योगिकियां इस क्षेत्र को कम आकर्षक बनाती हैं। आधुनिक इस्पात निर्माण संयंत्रों की स्थापना के लिए निवेश एक बड़ी बाधा है।

कम मांग की अवधि के दौरान इस्पात संयंत्रों की आय और लाभ न्यूनतम हो जाते हैं, जिससे वित्तीय दबाव बढ़ता है। कई मामलों में विनिर्माण कार्य बंद और स्थगित भी करना पड़ता है। इन सब अवरोधों के बाद भी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाए रखने हेतु अधोसंरचना का विकास अति-आवश्यक है। इसलिए इस्पात उद्योग का विकास अपरिहार्य है।

इस्पात बनाने में पचास फीसद कबाड़ उपयोग का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसका कारण है कि कबाड़ और अन्य अपशिष्ट उत्पादों के माध्यम से धातु के विनिर्माण से प्रदूषण कम फैलता है। यह हरित इस्पात पहल की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा। विशेषज्ञों के अनुसार कबाड़ का उपयोग न केवल प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को कम, बल्कि इस्पात विनिर्माण में कार्बन उत्सर्जन में पच्चीस फीसद की कटौती करता है।

कार्बन उत्सर्जन को कम करने और हरित इस्पात का उत्पादन करने के लिए भविष्य में अधिक कबाड़ की आवश्यकता होगी। इसके लिए पर्यावरण अनुकूल औपचारिक कबाड़ केंद्रों की जरूरत होगी। आज देश में लगभग 2.5 करोड़ टन कबाड़ का उत्पादन होता है और लगभग पचास लाख टन का आयात किया जाता है। आगे हरित इस्पात उत्पादन में देशी कबाड़ का सौ फीसद उपयोग किए जाने की संभावना है।