योगेश कुमार गोयल

संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन स्थायी सदस्य हैं, जिन्हें ‘वीटो’ शक्ति हासिल है। इसके जरिए ये किसी भी मामले को रोक सकते हैं। मगर संयुक्त राष्ट्र अधिकांश अवसरों पर सुरक्षा और शांति स्थापित करने में विफल रहता है, इसीलिए ‘वीटो’ को खत्म करने की मांग उठती रही है। यूएन के महासचिव रहे बुतरस घाली के मुताबिक ‘वीटो’ शक्ति प्राप्त देश संयुक्त राष्ट्र को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विजेता देश नहीं चाहते थे कि विश्व में फिर कभी महायुद्ध जैसे हालात उत्पन्न हों। इसी सोच के चलते 1945 में ‘संयुक्त राष्ट्र’ अस्तित्व में आया, जिसे अंतरराष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था। विश्व शांति स्थापित करने में संयुक्त राष्ट्र को इसलिए ज्यादा उपयोगी माना गया था, क्योंकि इसे शक्तियां प्रदान की गई कि वह अपने सदस्य देशों की सेनाओं को विश्व शांति के लिए कहीं भी तैनात कर सकता है। पचास सदस्यों के साथ शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों की संख्या अब 193 हो चुकी है और यह विश्व का सबसे बड़ा अंतरसरकारी संगठन है। संयुक्त राष्ट्र की अपनी कोई स्वतंत्र सेना नहीं होती, बल्कि सुरक्षा परिषद को सदस्य देशों की सेनाओं को विश्व शांति के लिए दूसरे देशों में तैनात करने का अधिकार प्राप्त है।

संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद-1 में कहा गया है कि इस संगठन का मुख्य काम दुनिया में शांति स्थापित करना है और अगर कहीं दो देशों के बीच विवाद है, तो अंतरराष्ट्रीय कानून की सहायता से उसे शांतिपूर्वक हल करने को संयुक्त राष्ट्र प्रतिबद्ध है। हालांकि युद्ध रोकना, मानवाधिकारों की रक्षा करना, सभी देशों के बीच मित्रवत संबंध कायम करना, अंतरराष्ट्रीय कानूनों को निभाने की प्रक्रिया जुटाना, सामाजिक एवं आर्थिक विकास, निर्धन तथा भूखे लोगों की सहायता करना, उनका जीवन स्तर सुधारना तथा बीमारियों से लड़ना आदि ही 1945 में स्थापित किए गए संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्य उद्देश्य थे, लेकिन बीते कुछ वर्षों से पूरी दुनिया देख रही है कि संयुक्त राष्ट्र किस प्रकार अपने निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने में लगातार विफल हो रहा है।

दरअसल, संयुक्त राष्ट्र का ढांचा अब पुराना हो चुका है और इसकी स्थापना के समय जो परिस्थितियां थीं, वे भी अब पूरी तरह बदल चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र की कार्य-संस्कृति पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए दुनिया के कई देश अब कहने लगे हैं कि अगर इस वैश्विक संस्था में समयानुकूल सुधार लाने के दृढ़ प्रयास नहीं किए जाते, तो कालांतर में यह संस्था महत्त्वहीन हो जाएगी। पौने दो साल से चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध हो या ताजा इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध, संयुक्त राष्ट्र विभिन्न देशों के बीच शांति स्थापित करने में बार-बार ‘दंतविहीन शेर’ साबित हो रहा है।

संयुक्त राष्ट्र की स्थापना को अठहत्तर वर्ष बीत चुके हैं। विडंबना है कि इस दौरान दुनिया ने कई भीषण जंगें देखी हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद इन जंगों और इनमें हुए लाखों लोगों के संहार को रोक पाने में सदा विफल रही। इस वैश्विक संगठन के गठन के दस वर्ष बाद ही अमेरिका और विएतनाम के बीच युद्ध की शुरुआत हुई थी, जो करीब एक दशक तक चला और उसमें विएतनाम के करीब बीस लाख लोग और पचपन हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक मारे गए थे, जबकि तीस लाख से ज्यादा लोग घायल हुए थे। मगर संयुक्त राष्ट्र उसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर सका।

पश्चिमी ईरान की सीमा पर घुसपैठ करते हुए 22 सितंबर, 1980 को इराकी सेना ने उस पर हमला कर दिया था, जिसके बाद इराक और ईरान के बीच करीब आठ वर्षों तक भीषण जंग चली। इराक ने उस युद्ध में रासायनिक बम का भी प्रयोग किया और जंग में दोनों देशों के करीब दस लाख लोग मारे गए थे, लेकिन तब भी जंग रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र कुछ नहीं कर सका था।

अप्रैल 1994 में अफ्रीकी देश रवांडा में बहुसंख्यक समुदाय हूतू ने अल्पसंख्यक समुदाय तुत्सी के लोगों पर हमला कर दिया था, जिसके बाद वहां शुरू हुआ जातीय संघर्ष सौ दिनों तक चला। अब तक के सबसे भयानक माने जाने वाले रवांडा के उस जनसंहार में देश के करीब दस लाख लोगों की मौत हुई थी, लेकिन संयुक्त राष्ट्र उसे रोकने में भी नाकाम रहा।

1992 में यूगोस्लाविया के विभाजन के बाद सर्ब समुदाय और मुसलिम समुदाय के बीच नए राष्ट्र को लेकर विवाद शुरू हुआ, उस विवाद में मध्यस्थता करने में भी संयुक्त राष्ट्र विफल रहा, जिसका परिणाम यह हुआ कि 1995 में सर्ब सेना ने करीब आठ हजार मुसलिमों को मौत के घाट उतार दिया था। बोस्निया के उस गृहयुद्ध को रोकने और स्थिति नियंत्रित करने के लिए आखिरकार नाटो को अपनी सेना उतारनी पड़ी थी।

रूस-यूक्रेन और इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध में भी अभी तक हजारों बेगुनाह लोग मारे जा चुके हैं, लेकिन युद्ध रोकने और शांति बहाल करने में संयुक्त राष्ट्र की कहीं कोई भूमिका नजर नहीं आ रही। हाल ही में मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने तो इजराइल और फिलिस्तीन संकट के लिए संयुक्त राष्ट्र को ही जिम्मेदार ठहराया है। इससे पहले संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर सवाल उठाते हुए यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की तो संयुक्त राष्ट्र को अप्रभावी बताते हुए यह भी कह चुके हैं कि संयुक्त राष्ट्र में झूठे लोग बैठते हैं, जो कुछ देशों के गलत काम को सही ठहराने का काम करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में अमेरिका, चीन, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन स्थायी सदस्य हैं, जिन्हें ‘वीटो’ शक्ति हासिल है और इसके जरिए ये किसी भी मामले को रोक सकते हैं। मगर संयुक्त राष्ट्र अधिकांश अवसरों पर सुरक्षा और शांति स्थापित करने में विफल रहता है, इसीलिए ‘वीटो’ को खत्म करने की मांग उठती रही है। यूएन के महासचिव रहे बुतरस घाली के मुताबिक ‘वीटो’ शक्ति प्राप्त देश संयुक्त राष्ट्र को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं।

उनका स्पष्ट कहना है कि अगर ‘वीटो’ प्रणाली खत्म नहीं हुई तो संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद स्वतंत्र होकर काम नहीं कर सकेगी। भारतीय प्रधानमंत्री तो कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर खुलकर सवाल उठा चुके हैं। 2021 में तो उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के मंच से कहा था कि वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए अगर वीटो प्रणाली में बदलाव नहीं किया गया, तो इसकी प्रासंगिकता नहीं रह जाएगी।

कितने आश्चर्य की बात है कि जो संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों से हर साल करोड़ों का चंदा लेता है, जिसका वार्षिक बजट करीब 2321 करोड़ रुपए का है, वह विश्वभर में कहीं भी संघर्षों या युद्धों को रोकने में कुछ नहीं कर पाता। संयुक्त राष्ट्र के ही आंकड़ों के मुताबिक 2023 में उसे दुनिया भर के कुल 137 देशों ने चंदा दिया है और सबसे ज्यादा चंदा उसे अमेरिका से मिला है।

भारत ने संयुक्त राष्ट्र को करीब चौबीस करोड़ रुपए चंदा दिया है, जो यूएन के कुल बजट का एक फीसद से ज्यादा है। ब्रिटेन के विख्यात टिप्पणीकार नील गार्डेनर के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र एक ऐसा दिशाहीन संगठन बन चुका है, जो इक्कीसवीं सदी के हिसाब से काम नहीं कर रहा है और इसके हर कदम पर नाकाम होने के पीछे कई कारण हैं, जिसमें सबसे प्रमुख कारण है उसका कमजोर नेतृत्व, जो सही समय पर सही फैसला नहीं कर पाता। खराब प्रबंधन के कारण ही संयुक्त राष्ट्र पर निरंतर सवाल उठ रहे हैं और अगर आने वाले समय में भी इसका काम करने का तरीका नहीं बदलेगा, तो यह वैश्विक संस्था पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाएगी।

बहरहाल, आने वाले समय में अगर संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए सुरक्षा परिषद की सदस्यता के लिए भारत सहित मानदंडों पर खरा उतरने वाले अन्य देशों को भी इसमें पर्याप्त स्थान मिलता है, तभी इस वैश्विक संस्था की प्रासंगिकता बरकरार रह पाएगी अन्यथा यह धीरे-धीरे अपना महत्त्व पूरी तरह खो देगी।