Christophe Jaffrelot, Vihang Jumle

नरेंद्र मोदी साल 2014 में जब पहली बार प्रधानमंत्री के रूप में नामित होने के बाद संसद भवन पहुंचे तब उन्होंने इसकी सीढ़ियों पर माथा टेक कर ‘लोकतंत्र के मंदिर’ के प्रति सम्मान जताया था। अब अगर बीते समय की पड़ताल करें तो ये किसी नाटक का एक हिस्सा भर नजर आता है। किसी भी प्रधानमंत्री ने संसद की लगातार उतनी उपेक्षा नहीं की जितने मोदी ने की है।

संसद में उन्होंने एक साल के भीतर औसतन 3.6 बार अपनी बात रखी यानी पीएम रहते छह साल के कार्यकाल में मोदी सिर्फ 22 बार बोले हैं। एचडी देवगौड़ा जो महज दो साल के लिए पीएम रहे, उन्होंने भी संसद में मोदी ज्यादा बार अपनी बात रखी। इससे अलावा दिवंगत भाजपा नेता अटल बिहार वाजयेपी ने देश का पीएम रहते छह साल में 77 बार अपनी बात रखी। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह भी अपने दस साल के कार्यकाल में 48 बार बोले थे। 2012 में तब गुजरात के सीएम मोदी ने उन्हें ‘मौन मोहन’ कहा था।

दरअसल नरेंद्र मोदी संसद के बजाय सीधे लोगों से संवाद करने में विश्वास रखते हैं। चाहे वो रेडियो (1970 के दशक में इंदिरा गांधी की तरह) के जरिए ‘मन की बात’ हो या फिर सोशल मीडिया (अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की तरह) के जरिए सीधे लोगों से जुड़ना हो। मोदी के संदेश देने के इन दोनों ही तरीकों में एक बात समान है। वो एकतरफा संदेश देने में यकीन रखते हैं जिसमें सुनने या पढ़ने वाला उनसे सवाल नहीं कर सकता।

परिभाषा से समझें तो संसद भवन आलोचना, विचार-विमर्श और सर्वसम्मति का स्थान है। मगर मोदी सरकार ने संसद को नजरअंदाज कर अध्यादेश का रास्ता अपनाया। आमतौर पर अल्पमत की सरकारों या गठबंधन की सरकारों में अध्यादेश का सहारा लिया जाता है मगर मोदी सरकार ने लोकसभा पूर्व बहुमत के बाद भी पिछली सरकारों की तुलना में अध्यादेश का ज्यादा इस्तेमाल किया है।

मनमोहन सिंह सरकार में जहां औसतन साल में छह अध्यादेश आते थे वहीं मोदी सरकार में एक साल में औसतन 11 अध्यादेश लाए गए हैं। स्पष्ट रूप से लोकसभा और राज्यसभा में बहस के लिए स्थान समाप्त हो रहे हैं। संसदीय समिति में भी बिल भेजने की रवायत कम हो गई है।