हाल ही में राजस्थान के नागौर जिले में जमीन-जायदाद हड़पने के लिए बुजुर्ग माता-पिता को इतना परेशान किया गया कि तंग आकर उन्होंने आत्महत्या कर ली। उस वृद्ध दंपति को न केवल बेटे-बहू, बल्कि बेटियां भी प्रताड़ित करती थीं। अपने ही बच्चों का अमानवीय बर्ताव लंबे समय से लगातार झेलते आ रहे असहाय मां-बाप ने पानी के टैंक में कूद कर जान दे दी। बेटों और बेटियों के दुर्व्यवहार से मिली पीड़ा कितनी भयावह रही होगी कि पुलिस को घर की दीवार पर चिपकाया हुआ उनका लिखा नोट मिला, जिसे उन्होंने मरने से पहले लिखा था। उसमें उन्होंने पारिवारिक कलह, स्वार्थ की अति और संपत्ति को लेकर विवाद का जिक्र किया था।
व्यथित करने वाली परिस्थितियों में अपनी जान देने वाले सत्तर और अड़सठ वर्षीय बुजुर्ग मां-बाप ने दो पृष्ठ के पत्र में बेटों, बहुओं, पोते-पोतियों और दोनों बेटियों के साथ कुछ रिश्तेदारों को भी आत्महत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया था। कैसी विडंबना है कि धन के आधिपत्य से जुड़ी अनबन में अब बेटे ही नहीं, बेटियों और घर के बच्चों की भागीदारी का डरावना पहलू भी शामिल है। वहीं जमीन-जायदाद से जुड़ी दूसरी घटना नागौर के वाकये से ठीक विपरीत परिस्थितियों को सामने रखती है।
जयपुर के इस मामले में पति के साथ हांगकांग में रहने वाली युवती ने अपने पिता, भाई और भाभी के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई है। उसका आरोप है कि उसके पिता, भाई और भाभी ने उसके सोने के आभूषण और जमीन छीन ली है। पीड़ित युवती कैंसर की मरीज है और नौ महीने पहले इलाज के लिए हांगकांग से भारत आई थी। इलाज कराने के दौरान उसे अपनों द्वारा की गई ठगी का पता चला। पीड़िता का कहना है कि पिता ने सहूलियत के नाम पर आभूषण और दो प्लाट के कागजात उसके बैंक से निकाल कर घर में रखे और फिर देने से इनकार कर दिया। कैंसर के इलाज के लिए कई दोस्तों और परिजनों से उधार लिए रुपए उसने और उसके पति ने गहने बेच कर चुकाने की सोची, पर इस बीच आभूषण और जमीन के दस्तावेज पिता और भाई ने हड़प लिए।
लालच ने हर रिश्ते को बनाया शिकार
कैसी विडंबना है कि जानलेवा व्याधि से जूझती बेटी से लेकर जीवन संवारने वाले माता-पिता तक, धन-दौलत से जुड़े स्वार्थ में शामिल हो रहे हैं। हालांकि अधिकतर मामलों में बुजुर्ग ही प्रताड़ना का शिकार होते हैं, पर बदलती सोच और सामाजिक ढांचे में अब नई उलझनें भी दिख रही हैं। गृहक्लेश के ऐसे मामले कहीं अपनी जान देने, तो कहीं अपनों का जीवन छीनने के हालात तक ले जा रहे हैं। कई घरों में वर्षों की कानूनी लड़ाई में करीबी पर ही आरोप-प्रत्यारोप लग रहे हैं। बिखरते पारिवारिक संबंधों में ही नहीं, विखंडित होते सामाजिक परिवेश में भी इस आर्थिक भंवर जाल का दुष्प्रभाव स्पष्ट दिखता है। हाल के बरसों में गांवों से लेकर महानगरों तक चल-अचल संपत्ति हड़पने, धोखे से कब्जा करने या चुरा लेने की शिकायतें करीबी परिजनों के खिलाफ की गई हैं। इनमें अपने ही बच्चों और अभिभावकों से लेकर दूसरे परिजनों के बीच चल-अचल संपत्ति के लिए लड़ने-झगड़ने की घटनाएं आम हैं। यहां तक कि कुछ व्यावसायिक घरानों में भी ऐसे मामले देखने में आए हैं।
मौजूदा दौर में धन जीवन के आर्थिक पहलू से ही नहीं, मनोवैज्ञानिक रूप से भी जुड़ गया है। पैसे को सम्मान और दबदबे से जोड़ कर देखा जाने लगा है। सहज सुलभ जीवनशैली पाने के लिए ही नहीं, समाज और परिवार में रुतबा बनाने के लिए भी धन जुटाने की कोई सीमा नहीं रही। नतीजा, कहीं पर्याप्त धन का होना शोषण का कारण बनता है, तो कहीं आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों में जीवन जटिल स्थितियों का सामना करता है। दोनों ही स्थितियों का परिणाम आपराधिक घटना या आत्महत्या के रूप में भी सामने आता है। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो द्वारा हर साल जारी किए जाने वाले आंकड़े भी बताते हैं कि देशभर में होने वाले आपसी विवाद ही नहीं, हत्या तक से जुड़े बहुत से मामले संपत्ति या भूमि विवाद से संबंधित होते हैं। ऐसे मामलों में अधिकतर परिजन ही आपराधिक कृत्यों को अंजाम देते हैं। कुछ साल पहले रिसर्च थिंक टैंक ‘दक्ष’ के ‘एक्सेस टू जस्टिस’ सर्वे में भी सामने आया था कि भारत में सभी दीवानी मामलों में 66.2 फीसद मामले भूमि या संपत्ति विवादों से संबंधित थे।
संपत्ति की चाह में हो रही हत्याएं
ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं कि धन-संपत्ति की लालसा में अपने ही अपनों के अधिकार छीनने की नकारात्मक और स्वार्थी सोच रखने लगे हैं। चिंताजनक है कि अकेले उत्तर प्रदेश में भूमि और संपत्ति विवाद हत्याओं का प्रमुख कारण रहा है। 2017 से लेकर 2021 के बीच हत्या के उन्नीस हजार छह सौ चौवालीस मामले दर्ज हुए। अधिकतर मामलों में अपनों की आपसी उलझनें ही जिंदगी छीनने का कारण बन रही हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि धन-संपत्ति से जुड़ी रंजिश की घटनाएं चिंताजनक रूप बढ़ भी रही हैं।
असल में, संपत्ति से जुड़ी अनबन का एक पक्ष यह भी है कि सगे-संबंधियों में बरसों बरस यह मनमुटाव चलता रहता है। ‘सेंटर फार पालिसी रिसर्च’ के अनुसार उच्चत्तम न्यायालय द्वारा तय किए गए सभी मामलों में से 25 फीसद भूमि विवाद से जुड़े हैं। निचली अदालतों में ऐसे मामले वर्षों तक चलते रहते हैं। एक ओर कानूनी पेचीदगियां, तो दूसरी ओर अपनों के ही आरोप-प्रत्यारोप। इन स्थितियों में लंबी न्यायिक प्रक्रिया भी निराशा पैदा करती है। इन्हीं हालात में कई बार लोग या तो किसी का जीवन छीनने का अपराध कर बैठते हैं या अपने जीवन से हार जाते हैं। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2022 में देश में हुई सभी आत्महत्याओं में से 54.9 फीसद के पीछे पारिवारिक समस्याएं रही हैं। इन पारिवारिक समस्याओं में विवाह संबंधी समस्याएं शामिल नहीं हैं। पारिवारिक विवाद हत्याओं की भी तीसरी बड़ी वजह है। जमीन या संपत्ति विवाद को लेकर दो हजार तीन सौ छब्बीस, पैसों के विवाद को लेकर ग्यारह सौ चौवालीस और स्वार्थ साधने के मकसद से अठारह सौ चौरासी हत्याएं हुईं।
पीड़ादायी है संबंधों का लोभी हो जाना
आक्रोश, अहंकार और स्वार्थ के मेल से उपजी सोच से पूरा पारिवारिक ढांचा डगमगा रहा है। बुजुर्गों और उम्रदराज लोगों का परिवार की मौजूदा पीढ़ी के प्रति विश्वास खत्म हो रहा है। हालांकि इस तरह की घटनाओं में वरिष्ठजनों के शोषण और प्रताड़ना के मामले अधिक हैं, पर रीत रहे भरोसे की बानगी हर उम्र के लोगों में दिखती है। जबकि पारिवारिक संबंधों में एक-दूसरे पर आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक, हर पहलू से जुड़ी निर्भरता होनी चाहिए। जरूरी है कि धन-दौलत से जुड़े मामलों को लेकर भी आपसी संवाद और सहजता का मार्ग चुना जाए। स्थितियां इतनी तो न उलझें कि अपनों की जान लेने या अपनी जान देने की पीड़ादायी परिस्थिति बन जाएं। आपधापी भरे आज के जीवन में कम से कम अपनों से तो जुड़ाव बना रहे।
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आक्रोश, अहंकार और स्वार्थ के मेल से उपजी सोच से पूरा पारिवारिक ढांचा डगमगा रहा है। बुजुर्गों और उम्रदराज लोगों का परिवार की मौजूदा पीढ़ी के प्रति विश्वास खत्म हो रहा है। हालांकि इस तरह की घटनाओं में वरिष्ठजनों के शोषण और प्रताड़ना के मामले अधिक हैं, पर रीत रहे भरोसे की बानगी हर उम्र के लोगों में दिखती है। जबकि पारिवारिक संबंधों में एक-दूसरे पर आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक, हर पहलू से जुड़ी निर्भरता होनी चाहिए। जरूरी है कि धन-दौलत से जुड़े मामलों को लेकर भी आपसी संवाद और सहजता का मार्ग चुना जाए। स्थितियां इतनी तो न उलझें कि अपनों की जान लेने या अपनी जान देने की पीड़ादायी परिस्थिति बन जाए।