अग्निपथ योजना को लेकर देश में जारी विरोध प्रदर्शन के बीच रक्षा मंत्रालय ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की है। तीनों सेना प्रमुखों ने मीटिंग के बाद अग्निपथ योजना को लेकर अहम घोषणाएं की हैं। इस दौरान सैन्य विभाग के अतिरिक्त सचिव लेफ्टिनेंट जनरल अनिल पुरी ने कुछ ऐसा कहा कि अग्निपथ की चर्चा संवैधानिक अधिकारों की तरफ मुड़ गई है। दरअसल अनिल पुरी ने अनुशासन को सेना का आधार बताते हुए कहा, यहां आगजनी और तोड़फोड़ के लिए कोई जगह नहीं है।
अनिल पुरी के बयान से स्पष्ट होता है कि फिलहाल जितने भी युवा अग्निपथ योजना के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं, उन्हें इस योजना के तहत नौकरी नहीं दी जाएगी। जी हां, अनिल पुरी ने कहा है, ”हर व्यक्ति को यह प्रमाणपत्र लाना होगा कि वह विरोध प्रदर्शन या तोड़फोड़ में शामिल नहीं था। सौ फीसदी पुलिस वेरिफिकेशन जरूरी होगा। इसके बिना कोई ज्वाइन नहीं कर पाएगा।”
‘विरोध प्रदर्शन’ एक मौलिक अधिकार- साल 2021 में दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की पीठ ने सीएए प्रोटेस्ट और दिल्ला दंगा से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्रा देवांगना कालिता को जमानत देते हुए पीठ ने कहा था, विरोध का अधिकार, मौलिक अधिकार है और इसे ‘आतंकी गतिविधि’ करार नहीं दिया जा सकता।
फरवरी 2021 में ‘आवर राइट टू डिसेंट’ विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा था, असहमति का अधिकार लोकतंत्र की विशेषता है।
अदालतों ने कई दफा विरोध प्रदर्शन के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया है। संविधान के भाग III (अनुच्छेद 12-35 तक) में मौलिक अधिकारों का उल्लेख है। अनुच्छेद 19 के तहत वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हासिल है। विरोध प्रदर्शन और असहमति के अधिकार को इसी अनुच्छेद में समाहित माना जाता है। इसी अधिकार के तहत भारत के नागरिक सरकार के निर्णयों को चुनौती दे सकते हैं। लेकिन शर्त ये है कि विरोध प्रदर्शन शातिपूर्ण और बिना हथियारों के हो। विरोध के दौरान हिंसा का सहारा लेना एक प्रमुख मौलिक कर्तव्य का उल्लंघन है। अनुच्छेद 51A के तहत प्रत्येक नागरिक का ये कर्तव्य है कि वो सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करें और हिंसा से दूर रहें।