ओमप्रकाश ठाकुर

पिछले सप्ताह 48 घंटों की भारी बारिश की वजह से ल्हासों व बाढ की जद में कई घरों के आने से 32 लोगों के मौत ने हिमाचल के लोगों को हिला कर रखा दिया । इस बार मानसून में अब तक पौने दो महीनों में 250 लोगों की जानें प्राकृतिक आपदाओं में जा चुकी हैं। पहाडों से अब तक हुई छेड़छाड़ के नतीजे अब सामने आने लगे हैं व पिछले साल ही भूस्खलन में 60 से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी। पिछले साल सबसे ज्यादा जानें जिला किन्नौर में हुए अलग-अलग हादसों में गई थी। इस बार अब तक मंडी में भूस्खलन की चपेट में आने से सबसे ज्यादा मानवीय नुकसान हुआ हैं।

लेकिन पहाड़ों से छेड़छाड़ का सिलसिला रुक नहीं रहा और न ही सरकार के स्तर पर कोई कारगर नीति व अध्ययन हो रहा हैं। प्रदेश भर में सड़कों का जाल बिछ गया हैं। उससे निकला मलबा नदी नालों में फेंक दिया गया है। शहरों में ही नहीं गांवों में भी बेतरतीब निर्माण ने तस्वीर धुंधली कर दी है। राजधानी शिमला में ऐतिहासिक रिज मैदान व माल रोड से लेकर शहर की तमाम सड़कें धंस रही हैं और वे ज्यादा भार सहने के काबिल नहीं बची हैं। काफी संख्या में देदार के पेड उखड़ गए है या ऐसी स्थितियों में ला दिए गए है कि वे उखड़ जाएं। लेकिन स्मार्ट सिटी के नाम पर सड़कें चौड़ी करने की मंशा से पूरे शहर में करोड़ों रुपए के कंक्रीट के डंगे लगा दिए हैं। पिछले साल नैनीताल की तरह बारिश हुई तो शिमला कब तबाही के कगार पर पहुंच जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।

पर्यावरण विशेषज्ञों की माने तो बेतरतीब निर्माण और कई दशकों से पेड़ों का कटान इस तबाही के लिए जिम्मेदार हैं। पनबिजली परियोजनाओं के लिए खोदी गई सुरंगों ने पहाड़ों को खोखला कर दिया है। इस खुदाई से निकले मलबे का वैज्ञानिक निपटान तो हुआ ही नहीं है। नदी-नालों को अवैध खनन माफियाओं ने तबाह कर दिया। गोविंद बल्लभ पंत हिमालयन पर्यावरण राष्ट्रीय संस्थान के विज्ञानियों की ओर से पूर्व के एक अध्ययन में सामने आया था कि जहां अब कुल्लू व मनाली शहर बस गए हैं, वहां घना जंगल होता था। लेकिन अब होटलों की भरमार हैं।

ऐसे में जलवायु परिवर्तन तो होगा ही। इन अध्ययनों में जंगलों को खत्म करने के परिणामस्वरूप होने वाली तबाही को लेकर चेतावनियां भी दी गई हैं। इसके अलावा प्रदेश में इतनी पनबिजली परियोजनांए बन गई हैं कि 70 फीसद से ज्यादा सतलुज नदी सुरंगों व बांधों में ही सिमट कर रह गई है। गोविंद बल्लभ पंत हिमालयन पर्यावरण राष्ट्रीय संस्थान के पर्यावरण विज्ञानियों की माने तो हर नदी पर बनी पनबिजली परियोजना के आस पर नदी का एक पारिस्थिकीय तंत्र होता हैं। इसके दायरे में नदी पर दूसरी परियोजना नहीं बननी चाहिए लेकिन चंबा से लेकर किन्नौर तक हर नदी पर एक के बाद एक करके पनबिजली परियोजनाएं खडी कर दी गई हैं। इन परियोजनाओं का जलवायु परिवर्तन पर क्या असर पड रहा है, इस बावत कोई सरकार अध्ययन भी नहीं करवा रही हैं। इन विज्ञानियों के माने तो अगर सरकार अध्ययन करवाएगी तो परियोजनाओं के लटक जाने का अंदेशा रहेगा।

प्रदेश भर में बेरतीब निर्माण ने अलग से मुश्किलें खडी कर रखी हैं। पिछले सप्ताह मंडी के गोहर में हुआ हादसा हो या पिछले साल जिला कांगड़ा के बोह में हुआ हादसा, दोनों ही जगहों पर लोगों ने खड्डों के करीब मकान व गऊशालाएं बना दी थीं। मूसलाधार बारिश और बादल फटने से ऊपर भूस्खलन हुआ और सब कुछ अपने साथ बहा कर ले गया। हालांकि पिछले साल चंबा में जरूर 52 परिवारों को ऐसी जगहों से स्थानांतरित किया गया थे जो भूस्खलन व बाढ की चपेट में आ सकते थे। प्रदेश राज्य आपदा प्रबंध प्राधिकरण के निदेशक सुदेश कुमार मोकटा कहते हैं कि ऐसे खतरों की जद में हुए निर्माण को लेकर जिला उपायुक्त स्तर पर काम किया जाता है। लेकिन पूरे प्रदेश में प्राकृतिक आपदाओें की संभावित जद में आने वाले निर्माण को लेकर कोई ज्यादा अध्ययन या रपट तैयार नहीं की गई हैं। यह आसान काम भी नहीं हैं।