कुमकुम सिन्हा

शहरों से लोगों को कई बार ऐसी शिकायतें होती हैं, जिनका वे खुद भी हिस्सा होते हैं। सवाल है कि शहर जैसा होता है, वैसा उसे बनाता कौन है! यहां विचार की दुनिया में उपेक्षित शहर के एक चेहरे पर बात की जा सकती है। मसलन, शहरों में कूड़े का पहाड़ एक अप्रिय तस्वीर प्रस्तुत करता है। इससे गुजरते हुए हम देख सकते हैं कि कैसे सैकड़ों और हजारों की संख्या में बाज और अन्य शिकारी पक्षी इस पहाड़ पर मंडराते रहते हैं।

आवारा गाएं और कुत्ते भोजन की तलाश में इधर-उधर घूमते रहते हैं। अनवरत धुआं उठते हुए भी देखा जा सकता है। ये सभी पर्यावरण के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। दुर्गंध ने क्या समस्या पैदा की है, यह सभी जानते हैं। गाड़ी वाले यहां पहुंचते-पहुंचते खिड़की बंद कर लेते हैं और पैदल चलने वाले या आटो रिक्शा पर सवार लोग नाक पर हाथ रख लेते हैं। इस प्रकार शहर के हर आदमी को पता है कि कूड़े का पहाड़ क्या होता है, कैसा होता है और कितना ऊंचा होता है।

दरअसल, शहर जितना ही बड़ा होता है, कूड़े का पहाड़ उतना ही ऊंचा होता जाता है। गांवों में रहने वाले लोग शायद ही इसकी कल्पना कर पाएं। चूंकि शहरों में रोजगार से लेकर जीवन की छोटी-बड़ी सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं, इसलिए यहां रहने वाले लोग कूड़े के पहाड़ और उससे होने वाली दिक्कतों से अपने को सहज कर लेते हैं। वे कहते हैं कि दुधारू गाय की लात भी प्यारी लगती है।

काश कि ये शहरी लोग इससे सहज होने के बजाय इसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेते और कूड़े के उचित निस्तारण की दिशा में कुछ प्रयास करते तो उसका पहाड़ तैयार न होता। लेकिन कड़वा सच यही है कि लोग थोड़ा भी जद्दोजहद उठाना नहीं चाहते। सभी तरह के कचरे एक ही बिन में इकट्ठा कर सफाईकर्मी को दे देते हैं, जिसे बड़े आराम से कूड़ेवाला बोल दिया जाता है।

उनका कहना है कि इस भाग-दौड़ की जिंदगी में समय नहीं मिलता इस विषय पर सोचने और करने के लिए और इस तरह सारी जिम्मेदारी सरकार के सिर मढ़ कर अपना पल्ला झाड़ लिया जाता है। सरकार की जिम्मेदारी जरूर है, मगर हमें भी अपना नागरिक धर्म निभाना चाहिए। केवल परिवार के हित के लिए ही नहीं, बल्कि समाज और देश के हित के बारे में भी सोचना चाहिए और उसके लिए कुछ करना है एक जागरूक नागरिक की तरह।

अपने घरों को साफ रखने के साथ-साथ आसपास के वातावरण को भी साफ रखना जरूरी है। कूड़ा न तो इधर-उधर फेंकना चाहिए, न ही कूड़े का पहाड़ तैयार करने में योगदान करना चाहिए। यह तभी होगा जब हम सभी इस समस्या की गंभीरता को समझेंगे और अपनी-अपनी जवाबदेही तय करते हुए इस दिशा में कार्यरत होंगे।

यह अच्छी बात है कि कचरे केउचित निस्तारण में सरकार की ओर से चलाए जा रहे अभियानों में कई स्वयंसेवी संगठन, एजंसियां और सामाजिक या स्वैच्छिक कार्यकर्ता साथ हैं। ये सभी अपने अपने स्तर से इस पुनीत कार्य में लगे हैं, ताकि कूड़े का नया पहाड़ तैयार न हो और न ही जो बन चुके हैं, वे अब और ऊंचा उठें। इन्हें बस हर घर का साथ मिलना जरूरी है। हमें घर से ही गीला और सूखा कचरा अलग-अलग करने के इनके आह्वान को अपनी दिनचर्या में शामिल करना होगा।

एक बार जब हम इसकी आदत बना लेंगे तो यह काम बोझ नहीं लगेगा, बल्कि इसे करके हम सुकून महसूस करेंगे। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि जब हम गीले और सूखे कचरा को मिला देते हैं, तभी ये कचरे की श्रेणी में आते हैं। लेकिन अलग-अलग ये संसाधन होते हैं, क्योंकि तब इनका पुनर्चक्रण कर उपयोगी चीजें बनाई जा सकती हैं।

प्लास्टिक की वस्तुएं (पन्नियां, बोतलें आदि), रद्दी कागज (गत्ते, मिठाई के डिब्बे, पुराने अखबार, रसीदें आदि), इलेक्ट्रानिक अपशिष्ट (पुराने कंप्यूटर, लैपटाप, टीवी, मोबाइल, बैटरी, बिजली के तार, आदि जो मरम्मत योग्य नहीं होते हैं), उन्हें हम अलग-अलग इकट्ठा कर संबंधित कंपनियों या एजंसियों को दे सकते हैं पुनर्चक्रण के लिए। फिर बात आती है गीले कचरे की, जो हमारी रसोई से निकलने वाले सब्जी और फल के छिलके हैं। इन्हें हमें कचरे का हिस्सा नहीं बनने देना चाहिए, बल्कि इनका इस्तेमाल प्राकृतिक खाद बनाने में करना चाहिए। यह काम हम व्यक्तिगत और सामूहिक, दोनों स्तरों पर कर सकते हैं।

हर छोटी-बड़ी सोसाइटी के रिहाइशी कल्याण संघों यानी आरडब्लूए की जिम्मेदारी बनती है यह सुनिश्चित करने की कि उनकी सोसाइटी में गीले और सूखे कचरे अलग-अलग उठाए जाएं। सूखे-कचरे पुनर्चक्रण के दिए जाएं और गीले कचरे से प्राकृतिक खाद बनाई जाए। अगर यह काम व्यवस्थित ढंग से किया जाए तो यह आमदनी का जरिया भी बन सकता है।

अपशिष्ट प्रबंधन को प्रभावशाली ढंग से क्रियान्वित किया जा सके, इसके लिए कचरे को कम करना, पुन: उपयोग करना, पुनर्चक्रण करना और पुनर्प्राप्त करना आदि पर गौर कर सकते हैं। अगर अपनी नागरिक जिम्मेदारी के तहत थोड़ा जागरूक होकर अपना ही खयाल रखा जा सके तो धरती को सही मायने में रहने लायक बनाया जा सकता है।