महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अनेक योजनाएं चलाती हैं। महिलाओं ने अपने प्रयास से स्वयं-सहायता समूह बना कर, अपने पारंपरिक हुनर- दस्तकारी, हस्तशिल्प आदि के जरिए उन योजनाओं से खुद को जोड़ा और स्वावलंबन का सशक्त माध्यम रचा है। देश के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय स्वयं-सहायता समूह किस तरह देश और समाज के विकास में योगदान कर रहे हैं, बता रही हैं स्वस्ति पचौरी
भारत में लगभग सत्तर लाख स्वयं-सहायता समूह हैं। इन समूहों ने महिला सशक्तिकरण और उनके आर्थिक सशक्तिकरण में अहम भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत स्व-सहायता समूह भारत के तमाम जिलों में महिलाओं को व्यवसाय करने का एक बहुमूल्य अवसर देते हैं। इसी के साथ-साथ कई ऐसी सरकारी योजनाएं और परियोजनाएं हैं, जो महिलाओं के स्वयं-सहायता समूहों को सक्षम बनाती हैं, जैसे मध्याह्न भोजन, वन विभाग, कृषि विभाग से जुड़ी आजीविका की योजनाएं।
महिला सशक्तिकरण में मनरेगा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसी के साथ दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना ने बहुत बड़ी संख्या में युवाओं और महिलाओं को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने में अपनी भूमिका निभाई है। भारत के विकास में स्वयं-सहायता समूह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गांधीजी के स्वायत्तशासी माडल को इन समूहों ने आज तक जिंदा रखा है। कोरोन काल में महिलाओं के इन्हीं स्व-सहायता समूहों ने आपातकालीन स्थितियों में मास्क, सैनिटाइजर और अन्य चिकित्सीय उपकरण रातों-रात उपलब्ध करा दिए। आत्मनिर्भर भारत अभियान और ‘वोकल फार लोकल’ योजनाएं इन स्व-सहायता समूहों को और प्रबल बनाती हैं।
राष्ट्रीय आजीविका मिशन से हस्तशिल्प कारीगरों, बुनकरों, दस्तकारों को बहुत मदद मिली है। तरह-तरह के हस्तशिल्प और हैंडलूम के काम भारत के विभिन्न राज्यों में किए जाते हैं। इनमें से कई ऐसे कार्य भी हैं, जिन्हें भौगोलिक संकेत यानी ‘जियोग्राफिकल इंडिकेशन’ का तमगा भी प्राप्त है, ताकि ये कलाएं विलुप्त न हों। कश्मीर का पश्मिना, बनारस की बनारसी साड़ी, कांचीपुरम की कांजीवरम, खुर्जा के मिट्टी के बर्तन, मध्यप्रदेश की चंदेरी, राजस्थान की ब्लू पाटरी और तरह-तरह के कृषि खाद्य, जंगल से संबंधित आजीविका उपलब्ध कराने वाले काम भौगोलिक संकेत की श्रेणी में आते हैं। इन कामों से लघु उद्योग, छोटे-छोटे व्यवसाय, आदिवासियों की आजीविका को आर्थिक सशक्तिकरण प्राप्त हुआ है।
आजीविका का बड़ा आधार
आंकड़ों के हिसाब से खेती के बाद हस्तशिल्प और हथकरघा भारत में सबसे बड़े पैमाने पर ग्रामीण आजीविका और रोजगार का अवसर देते हैं। भौगोलिक संकेत के अलावा भारत सरकार की ‘एक जिला एक उत्पाद’ योजना भी तमाम ऐसे खास हस्तशिल्प, हथकरघा और खाद्य पदार्थ या ऐसी किसी भी वस्तु के उत्पाद को बढ़ावा देती है, जिससे गरीबों का आर्थिक विकास और उद्धार हो सके।
हस्तशिल्प और हथकरघा उद्योग, बुनकरी और दस्तकारी, किसान, और महिलाएं जो प्रकृति के बीच रह कर अपनी आजीविका के माध्यम ढूंढ़ते हैं, वे ‘रीसाइकिलिंग’ या ‘पुनर्चक्रण’ की तकनीक और उनकी क्रियाओं को भी अच्छी तरह समझते हैं। इस कारण भी ‘ईको-फ्रेंडली’ या पर्यावरण के अनुकूल बनने वाले हस्तशिल्प और हथकरघा भी काफी बहुमूल्य हैं और यह भारत के सतत विकास लक्ष्यों तथा भारत के लोगों का आर्थिक रूप से सशक्तिकरण भी करते हैं।
इस तरह भारत के सांस्कृतिक संरक्षण में भी इन कलाओं का योगदान है। हस्तशिल्प और हथकरघा प्राकृतिक संरक्षण भी देते हैं, क्योंकि यह उद्योग प्राकृतिक संसाधनों जैसे जंगल की घास, बांस, कपास, रेशम, जंगली और प्राकृतिक रंग तथा अन्य ‘कुदरती’ चीजों पर निर्भर करते हैं। यही नहीं, इस तरह से बने हस्तशिल्प जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कम किया करते हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रकृति का रखरखाव तथा संरक्षण करने में योगदान देते हैं।
घास के हस्तशिल्प
बिहार की सिक्की घास, उत्तर प्रदेश की मूंज घास, मध्यप्रदेश की छींद घास या खजूर के पत्ते, जलकुंभी से बनी हुई टोकरी, टेबल मैट्स, पायदान, पेन स्टैंड, फर्नीचर हस्तशिल्प, दस्तकारी मेलों और ग्रामीण हाट-बाजार में देखने को मिलते हैं। सरस मेला या दिल्ली हाट में ये चीजें बहुत प्रसिद्ध हैं। इन पर अलग-अलग तरह के रंग और सजावट इन हस्तशिल्पों को और भी आकर्षक बनाती हैं।
बांस, बेंत के हस्तशिल्प तो वैसे भी प्रसिद्ध हैं, लेकिन खजूर घास से बनाए जाने वाले रंग-बिरंगे फूल, गले की माला, कानों के झुमके और आभूषण प्राकृतिक होने के साथ- साथ बेहद खूबसूरत भी लगते हैं। उज्जैन के ऐसे कई स्व-सहायता समूह वहां उगने वाली खजूर घास का इस्तेमाल खूबसूरत फूल और गुलदान बनाने में करते हैं। सरकार की आजीविका मिशन योजना से भी इस समूह को प्रोत्साहन मिला और आर्थिक तौर पर इसमें काम करने वाली महिलाओं का सशक्तिकरण भी हुआ।
उसी प्रकार ‘पानी-मेटेका’ या ‘जलकुंभी’ पत्तों और तनों से बनने वाले हैंड बैग, पायदान, जूते-चप्पल, और तो और, फर्नीचर भी एक खास किस्म की पहल है, जिससे न सिर्फ महिलाओं और पुरुषों को रोजगार मिला है, बल्कि ‘जलकुंभी’ जो बहुत भारी मात्रा में नदी और तालाबों में खिल जाती है, आजीविका के इस माध्यम से जलकुंभी से होने वाल पानी का प्रदूषण भी कम होता है।
पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय और पूर्वोत्तर विकास वित्त निगम लिमिटेड ने इन हस्तशिल्प और उनसे मिलने वाले रोजगारों को बहुत प्रोत्साहन दिया है। ‘अकुआ-वीव्ज’ नामक इस पहल ने इन हस्तशिल्पों को बढ़ावा दिया है। उसी प्रकार मध्यप्रदेश के ‘सीसल’ से बने हस्तशिल्प भी प्रसिद्ध हैं। मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के ‘प्रगति सशक्तिकरण संगठन’ ने बहुत सारी महिलाओं को इसके अंतर्गत रोजगार दिया है।
बांस-बेंत के शिल्प
इसी प्रकार बांस का काम हर जगह काफी लोकप्रिय है। बांस की टोकरी, लालटेन, पेन स्टैंड आदि काफी लोकप्रिय हैं। लकड़ी और बांस से बने हस्तशिल्प सिवनी जिले में बहुत देखने को मिलते हैं। यहां के समूह लकड़ियों के खिलौने बनाते हैं। मध्यप्रदेश में भोपाल के पास बुधनी में वैसे भी लकड़ी के रंग-बिरंगे खिलौने बनाए जाते हैं, जो दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं।
अन्य हस्तशिल्प
इंदौर के नजदीक महू में चमड़े के हस्तशिल्प या खिलौने भी बनते हैं। यहां बहुत-सी महिलाएं ‘कोन क्राफ्ट’ और चमड़े के खिलौने बनाती हैं। ये चमड़े के खिलौने पर्यावरण हितैषी भी होते हैं। इनमें मिट्टी, इमली के बीज, और पेड़ से मिली गोंद और पुराने अखबारों का उपयोग किया जाता है।
‘पेपर मैशे’ के हस्तशिल्प बिहार और मध्यप्रदेश में प्रसिद्ध हैं। पेपर मैशे और मधुबनी कला को मिला कर महिलाएं बहुत से छोटे-मोटे हस्तशिल्प बनाती हैं। ट्रे, कप, पेन स्टैंड, टोकरी, गुलदान, आदि।
मधुबनी के चटक लाल, पीले, हरे रंगों से पेपर मैशे की कला और भी निखर कर सामने आती है। मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में गुड़िया हस्तशिल्प बहुत प्रसिद्ध है। यहां आदिवासियों के रीति-रिवाज, उनके परिवार, ग्रामीण जीवन को दर्शाते हुए बेहद खूबसूरत ‘डाल्स’ या गुड़िया बनाई जाती हैं, जो ग्रामीण जीवन को दर्शाती हैं। यहां भी महिलाएं काम करती हैं और कृषि के अलावा यह डाल क्राफ्ट उनकी आय का बड़ा साधन है।
इसी तरह राजस्थान की कठपुतली कला भी खूब प्रसिद्ध है। अलीराजपुर जिले में मोतियों के गहनों का काम, जो कि ‘बीड क्राफ्ट’ के नाम से प्रसिद्ध है, वह देखने को मिलता है। यहां महिलाएं अपनी काल्पनिकता और रचनात्मक ढंग से छोटे-छोटे मोती बुनती हैं, नीले, हरे, लाल मोतियों या ‘बीड्स’ से मालाएं, झुमके, बंदनवार, अंगूठी, कमरबंद आदि बनाती हैं, जो न सिर्फ हाट-बाजार, बल्कि छोटे-बड़े सभी बाजारों में खूब बिकते हैं।
यहां अलीराजपुर में कई समूह हैं, जो इस प्रकार के गहनों का काम किया करते हैं, जो फुरसत के समय अपने कृषि के काम निपटाने के बाद करते हैं। भारत के स्व-सहायता समूहों की यही ताकत है कि उन्होंने घर बैठे महिलाओं को कृषि और घर के काम के बाद व्यवसाय करने का मौका उपलब्ध करवाया, जिससे महिलाओं का आत्मविश्वास भी बढ़ा है।
हथकरघा, साड़ी, शाल
भारतीय हथकरघा से बनाई साड़ियां, शाल, स्टाल्स आदि हर जगह प्रसिद्ध हैं। महात्मा गांधी का चरखा तो इसी बात का प्रतीक है। चाहे खादी की बात हो या सूती साड़ियों की। दरियों या कालीनों की। यहां की ऊन, कपास, रेशम, बांस से बनने वाला रेशम सभी का अपना महत्त्व है। महाराष्ट्र की पैठनी साड़ी, आंध्र प्रदेश की कलमकारी, असम की मूंगा सिल्क और मेखला चादर, असम के ‘जापी’ डिजाइन के गमछे, ओडिशा की इक्कत, राजस्थान की सांगानेरी साड़ियां, चादर, दुपट्टे, गुजरात की पटोला, हिमाचल की कुल्लू शाल और नगालैंड की नगा शाल, कश्मीर की कनी शाल, मध्यप्रदेश के बाघ प्रिंट्स, ये कुछ ऐसे हथकरघा और वस्त्रों, कपड़ों के उदाहरण हैं, जिनसे भारत को विश्व स्तर पर प्रसिद्धि हासिल है।
हथकरघा कलाओं में महिलाएं ने अपनी कड़ी मेहनत और उनकी अनूठी रचनात्मकता का उदहारण पेश करती हैं। इतना ही नहीं, अपने दिन भर के काम-काज, खेती, घर के काम के साथ-साथ महिलाएं इस प्रकार अपनी आमदनी और बचत करती हैं। भुवनेश्वर का संस्कृति हथकरघा समूह इस बात का एक अच्छा उदाहरण है। कोरोना में तो इक्कत, मधुबनी, संभलपुरी और अन्य प्रकार के लोकचित्र वाले ‘मास्क’ बहुत प्रसिद्ध हो गए हैं।
विश्व बैंक की 1 अप्रैल, 2020 की रिपोर्ट के हिसाब से 1.9 लाख मास्क तकरीबन सत्ताईस राज्यों के बीस हजार स्वयं-सहायता समूहों ने तैयार किए थे। रायपुर के सेरिखेरा ग्राम पंचायत में स्थापित ‘मास्क सिलाई यूनिट’ एक बेहतरीन उदाहरण है। इतना ही नहीं, इस प्रकार के कई और स्व-सहायता समूह बच्चों के स्कूल यूनिफार्म, रूमाल, बैग, मास्क, आदि और भी तरह-तरह की चीजें बनाते हैं। महिलाएं इस सिलाई यूनिट में तकरीबन छह हजार रुपए प्रति माह कमा लेती हैं। मध्यप्रदेश के धार जिले में ‘बाघ और बाटिक प्रिंट्स’ की कला प्रसिद्ध है। वहां बाघ और बाटिक प्रिंट्स के कपड़े बेचने में महिलाओं के समूह अधिक सक्रिय हैं।