भारतीयों के खाने में प्रोटीन की मात्रा का लगभग आधा हिस्सा अब चावल, गेहूं, सूजी और मैदा जैसे अनाजों से आता है। भारत की सबसे अमीर 10 फीसद आबादी सबसे गरीब आबादी की तुलना में अपने घर पर 1.5 गुना अधिक प्रोटीन का सेवन करती है, और पशु-आधारित प्रोटीन के स्रोतों तक उसकी पहुंच भी अधिक है।
यह जानकारी ऊर्जा, पर्यावरण एवं जल परिषद (सीईईडब्लू) के एक नए स्वतंत्र अध्ययन से सामने आई है। इसमें 2023-24 एनएसएसओ घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण आंकड़ों के आधार पर खान-पान के रुझानों का विश्लेषण किया गया है। भारतीय औसतन 55.6 ग्राम प्रतिदिन प्रोटीन का सेवन करते हैं, लेकिन इस अध्ययन में पाया गया है कि इस प्रोटीन का लगभग 50 फीसद हिस्सा अनाजों से आता है, जिनमें कम गुणवत्ता वाला ‘अमीनो एसिड’ होता है। वे आसानी से पचते नहीं हैं। प्रोटीन में अनाजों की यह हिस्सेदारी राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआइएल) की ओर से सुझाई गई 32 फीसद की मात्रा से बहुत अधिक है।
दालें, डेयरी उत्पाद और अंडे/मछली/मांस जैसे उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन के स्रोत भोजन से बाहर जा रहे हैं। प्रोटीन शारीरिक विकास, सुधार और प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने में मदद करता है। सीईईडब्लू अध्ययन में यह भी पाया है कि भोजन में सब्जी, फल और दाल जैसे प्रमुख खाद्य समूहों का सेवन कम है, जबकि खाना पकाने के तेल, नमक और चीनी की अधिकता है।
सीईईडब्लू के फेलो अपूर्व खंडेलवाल ने कहा कि यह अध्ययन भारत की खाद्य प्रणाली में एक छिपे हुए संकट को सामने लाता है, जैसे कम गुणवत्ता के प्रोटीन पर बहुत अधिक निर्भरता, अनाजों व तेलों से अतिरिक्त कैलोरी का सेवन, विविधतापूर्ण व पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य सामग्री का बहुत कम उपयोग। सबसे गरीब 10 फीसद घरों का एक व्यक्ति एक सप्ताह में केवल दो-तीन गिलास दूध और दो केले के बराबर फल खाता है, जबकि सबसे अमीर 10 फीसद घरों का एक व्यक्ति आठ-नौ गिलास दूध और आठ-दस केले के बराबर फल खाता है। खान-पान का यह अंतर संतुलित आहार तक पहुंच में व्यापक असमानता दर्शाता है।
इसी के साथ पोषण और आय के लिए सिर्फ कुछ फसलों पर अत्यधिक निर्भरता इसका जलवायु अनुकूलन घटा देती है। इसलिए खाने की थाली से लेकर खेत तक विविधता लाना, एक राष्ट्रीय प्राथमिकता होनी चाहिए। एक दशक में भारत का प्रोटीन सेवन थोड़ा बढ़ा है, लेकिन यह पर्याप्त है। भारत के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत प्रोटीन सेवन 2011-12 और 2023-24 के बीच 60.7 ग्राम से बढ़कर 61.8 ग्राम और शहरी क्षेत्रों में 60.3 ग्राम से बढ़कर 63.4 ग्राम हो गया है।
सीईईडब्लू के विश्लेषण से पता चलता है कि इन औसत के पीछे गहरी असमानता मौजूद है। भारत की सबसे अमीर 10 फीसद आबादी सबसे गरीब आबादी की तुलना में अपने घर पर 1.5 गुना अधिक प्रोटीन का सेवन करती है और पशु-आधारित प्रोटीन के स्रोतों तक उसकी पहुंच भी अधिक है।
उदाहरण के लिए ग्रामीण आबादी के सबसे गरीब 10 फीसद लोगों में दूध का सेवन सुझाए गए स्तर (अनुशंसित स्तर) का सिर्फ एक तिहाई है, जबकि सबसे अमीर लोगों में यह सुझाए गए स्तर से 110 फीसद से अधिक है।
अंडे, मछली और मांस के लिए भी ऐसा ही रुझान दिखाई देता है। सबसे गरीब परिवार एनआइएन के सुझाए गए स्तर (अनुशंसित दैनिक भत्ते) का सिर्फ 38 फीसद हिस्सा पूरा कर पाते हैं, जबकि सबसे अमीर परिवारों में 123 फीसद से अधिक होता है। महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद, अरहर, मूंग और मसूर जैसी दालों की भारत के प्रोटीन सेवन में हिस्सेदारी अब सिर्फ 11 फीसद है, जो सुझाए गए 19 फीसद से काफी कम है – और सभी राज्यों में इनका सेवन भी कम है।
अभी भी भारत का खान-पान अनाज और खाना पकाने के तेलों की तरफ बहुत अधिक झुका हुआ है और ये दोनों ही पोषण संबंधित प्रमुख असंतुलन में भूमिका निभाते हैं। लगभग तीन-चौथाई कार्बोहाइड्रेट अनाज से आता है और प्रत्यक्ष अनाज का सेवन अनुशंसित दैनिक भत्ते से 1.5 गुना अधिक है, जिसे निम्न-आय वाले 10 फीसद हिस्से में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए रियायती चावल और गेहूं की व्यापक उपलब्धता से और बल मिलता है। मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा और रागी के घरेलू उपभोग में सबसे ज्यादा गिरावट आई है।
बीते एक दशक में प्रति व्यक्ति इसकी खपत लगभग 40 फीसद गिरी है। इसके चलते भारतीय मुश्किल से मोटे अनाज के लिए सुझाए गए स्तर का 15 फीसद हिस्सा ही पूरा कर पाते हैं। इसी के साथ-साथ, पिछले एक दशक में सुझाए गए स्तर से 1.5 गुना अधिक वसा और तेल का सेवन करने वाले परिवारों का अनुपात दोगुने से भी अधिक हो गया है। इतना ही नहीं, उच्च आय वाले परिवारों में वसा का सेवन निम्न आय वर्ग की तुलना में लगभग दोगुना पहुंच गया है।
