वाकया मशहूर है। लाहौर के रेडियो स्टेशन पर प्रसिद्ध गायक कुमार गंधर्व का कार्यक्रम था। मगर संगत करने के लिए कोई तबलानवाज नहीं था। उन्होंने 13-14 साल के जसराज से संगत करने के लिए कहा, जो हैदराबाद में रहने के दौरान तबला बजाना लीखने लगे थे। कुमार गंधर्व हरफनमौला कलाकार थे। देश के कई घरानों की गायिकी उन्होंने सीखी थी और अपने दौर के बड़े से बड़े गायक की आवाज और गायिकी की हूबहू नकल करना उनके बाएं हाथ का खेल था।

उस कार्यक्रम में कुमार गंधर्व की गायिकी ने किशोर उम्र जसराज पर ऐसी मोहिनी डाली कि वह उसी में उलझ कर रह गए। अगले दिन बातचीत के दौरान किसी ने जब उस कार्यक्रम की आलोचना की और जसराज के प्रतिवाद करने पर कहा कि वह तो चमड़ा पीटते हैं सुर और गायन के बारे में क्या जानें, तो जसराज को बहुत बुरा लगा। उन्हें लगा कि सुरों को समझने, रागों की शुद्धता और गहराई में उतरने का वक्त आ गया है।

यह घटना बहुत छोटी-सी थी। मगर इसने पंडित जसराज की सोच में उलटफेर कर दिया। हैदराबाद में चार साल की उम्र में पिता पंडित मोतीराम को खो चुके जसराज ने उनसे कई राग- रागनियां सीखीं थीं। बाद में चाचा मणिराम उनके गुरु बने। पढ़ाई से मन उचटा तो उन्हें तबला सीखने पर लगा दिया गया था। देखते ही देखते जसराज बढ़िया तबला बजाने लगे और साल भर में तो अपने चाचा के साथ कार्यक्रमों में संगत करने लगे थे। लाहौर की घटना के बाद पंडित जसराज की तबले से दूरी और सुरों से नजदीकी बढ़ने लगी। 1945 तक यानी 15 साल की उम्र तक आते आते उन्होंने तबलावादन बंद ही कर दिया। 1946 में हैदराबाद भी छूट गया क्योंकि विभाजन से पहले तनाव बढ़ गया था।

गुजरात के सानंद में महाराज जसवंत सिंह वाघेला के सान्निध्य में संगीत में रम गए। 1951 में पहली बार रेडियो प्रस्तुति और 1952 में नेपाल नरेश त्रिभुवन बीर विक्रम शाह के दरबार में जब पंडितजी ने पहली बार अपने हुनर का प्रदर्शन किया तो महाराज ने पांच हजार सोने की अशर्फियों से उनकी हौसलाअफजाई की थी।

सानंद से कोलकाता और 13 साल कोलकाता में रहने के बाद पंडितजी 1963 में मुंबई आ गए। 1960 के दशक में उनके हंसध्वनि और नटभैरव राग के रेकॉर्ड्स को जबरदस्त सफलता मिली। इस दौरान संगीत में पंडित जसराज ने नित नई ऊंचाइयां छुई और मेवाती घराने की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाए।

अपने गायन में लगातर प्रयोग करने वाले पंडित जसराज ने 1970 के दशक में अनोखी जुगलबंदी जसरंगी शुरू की। इसमें महिला और पुरुष गायक दो रागों का साथ गायन करते थे। 1975 में उन्हें पद््मश्री से सम्मानित किया गया। विदेश में भी पंडित जी का गायन हो रहा था। 1990 में पद््मभूषण और 2000 में पद््मविभूषण के साथ पंडितजी की कीर्ति फैलने लगी।

2003 में अंतरराष्ट्रीय खगोलविदों की यूनियन ने उनके नाम पर एक छोटे से ग्रह का नाम रखा और पंडितजी संगीतकार बीथोवन और मोजार्ट की श्रेणी में शामिल हो गए, जिनके नाम पर छोटे ग्रहों के नाम रखे गए थे। गायन की गहराई नापते-नापते पंडितजी संगीत की दुनिया में ऐसे ऊपर उठे थे कि गगनमंडल के ग्रह को छू लिया था। ऐसी कीर्ति विरलों को ही मिलती है।