प्राचीन काल से ऋषियों-गुरुओं-विद्वानों के प्रति शिष्यों और समाज द्वारा अपने ढंग से कृतज्ञता ज्ञापित करने की परंपरा रही है। शिष्यों में अपने गुरुओं जैसा बनने की कामना, गुरु-शिष्य परंपरा का केंद्रीय भाव रहा है। मगर जैसे-जैसे समाज बदला, उसकी परछाईं शिक्षण संस्थाओं में दिखने लगी। देश में उच्च शिक्षा का विस्तार हुआ है, नामांकन बढ़ा है, निजी और सरकारी नए संस्थान खुले हैं, नए पाठ्यक्रम बन रहे हैं और विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों में नियमित शिक्षक, संविदा शिक्षक, अतिथि शिक्षक, आवश्यकता आधारित शिक्षक, स्ववित्त पोषित योजना वाले शिक्षक आदि कार्यरत हैं।

अलग-अलग तरह के शिक्षक, अलग-अलग तरह के संस्थान, इक्कीसवीं शताब्दी के लिए छात्रों को तैयार कर रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का लक्ष्य है कि 2035 तक देश की उच्च शिक्षा में वर्तमान नामांकन दर लगभग दोगुनी हो जाए। मगर उच्च शिक्षा में नामांकन बढ़ाने के साथ, यह याद रखना जरूरी होगा कि समय के प्रवाह में उच्च शिक्षण संस्थानों की भूमिका क्या होगी?

वैसे तो जब भी कोई विश्वविद्यालय बनता है, तो उसका उद्देश्य, ज्ञान का सृजन, संरक्षण और विद्यार्थियों द्वारा ज्ञान का प्रसार करना बताया जाता है। शिक्षण संस्थाओं की स्थापना के पीछे समाज की मंशा होती है कि विश्वविद्यालयों से निकले बौद्धिक और दक्ष लोग समाज के हित में कार्य करें। मगर बड़ी संख्या में उच्च शिक्षण संस्थान अपने शिक्षण की गुणवत्ता और पाठ्यक्रमों की प्रासंगिकता को लेकर जूझ रहे हैं। कई राज्यों के उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों का अभाव है और मौजूदा शिक्षक कार्य की अधिकता के चलते, छात्रों को पर्याप्त समय, मार्गदर्शन नहीं दे पाते हैं।

छात्रों-शोधकर्ताओं-शिक्षकों को शिक्षण संस्थानों के बीच भाषाई और गुणवत्ता की असमानता का बोध होता रहता है। कई राज्यों में उच्च शिक्षण संस्थान बजट की कमी, अपर्याप्त संसाधन, शिक्षकों की कमी, खस्ताहाल पुस्तकालय, प्रयोगशाला जैसे मुद्दों से जूझ रहे हैं। विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के कुलपतियों-आचार्यों और छात्रों के बीच परस्पर संवाद का अभाव है। इस बढ़ते अविश्वास का क्या कारण है? क्यों धीरे-धीरे पिछले तीन-चार दशक में विश्वविद्यालय-महाविद्यालयों के परिसरों में पुलिस से लेकर सुरक्षाकर्मियों की उपस्थिति बढ़ती गई है? शिक्षण संस्थाओं का सुचारु संचालन किसी भी समाज में शांति व्यवस्था का सूचकांक होता है, लेकिन अगर शिक्षण समुदाय के बीच ही परस्पर अविश्वास बढ़ रहा हो, तो हम शिक्षा के किस उद्देश्य की प्राप्ति करेंगे? सवाल यह भी है कि क्या केवल छात्रों के नैतिक स्तर में गिरावट आई है या शिक्षक-कुलपति की छवि तक भी यह आंच पहुंची है?

रोजगार के लिए लेते हैं पाठ्यक्रमों में प्रवेश

आज विश्वविद्यालयों का समाज और उद्योगों के साथ निकट का संबंध होना संस्थानों को जीवंत बनाए रखने के लिए जरूरी है। छात्रों के लिए रोजगारपरक कौशल और विश्वविद्यालयों की कुछ डिग्रियों की उपयोगिता, उद्योगों के सहयोग से बढ़ाई जा सकती है। मगर इस मामले में अनेक विश्वविद्यालय पहल करने में संकोच करते हैं। अक्सर छात्र ‘स्ववित्त पोषित’ या किसी अन्य योजना के तहत चल रहे पाठ्यक्रम में इसलिए प्रवेश लेते हैं कि उनको विश्वविद्यालय या महाविद्यालय के दक्ष शिक्षक पढ़ाएंगे और उनको रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे।

मगर क्या विश्वविद्यालय या महाविद्यालय, प्रवेश से पूर्व छात्रों को यह भी सूचित करते हैं कि अमुक पाठ्यक्रम में पढ़ाने के लिए हमारे पास एक शिक्षक है या संविदा पर रखे गए शिक्षक हैं? दुनिया के प्रमुख शिक्षण संस्थान कोई कम या अधिक अवधि का पाठ्यक्रम शुरू करते हैं, तो वे विज्ञापन के साथ उस पाठ्यक्रम को पढ़ाने वाले मुख्य शिक्षकों का संक्षिप्त परिचय भी देते हैं, जिससे फीस देने वाले को अपने चुने हुए पाठ्यक्रम की महत्ता और पैसे की कीमत का भान हो सके। क्या यह परिपाटी अन्य संस्थानों की गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक नहीं होगी?

सामाजिक समस्या का ढूंढना होगा समाधान

एक विश्वविद्यालय के शिक्षक कहते हैं कि ‘विश्वविद्यालय के शिक्षकों को यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि किसी भी कौशल आधारित पाठ्यक्रम को संस्थान के लोग मिलकर तैयार तो कर सकते हैं, लेकिन वह सर्वश्रेष्ठ और प्रासंगिक पाठ्यक्रम तभी होगा, जब उस विशेष उद्योग के लोग उस पाठ्यक्रम को बनाने में मार्गदर्शन करेंगे। शिक्षकों को यह बात कह देनी चाहिए कि वे सभी विषयों के विशेषज्ञ नहीं हो सकते।’ आज शिक्षा जगत पर सामाजिक समस्यायों का समाधान ढूंढने और एक ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था बनाने का भी दबाव है और यह परिसर के बाहर, दूसरों के समन्वय से ही हो सकता है।

एक चिंता संस्थानों के बीच संसाधनों को लेकर बढ़ रही दूरी की भी है। अभी देश के जो संस्थान ‘रैंकिंग’ की दौड़ में आगे खड़े दिख रहे हैं, वे अगले वर्ष भी अगली कतार में ही रहेंगे। क्योंकि उनके पास संसाधन हैं, शिक्षक हैं, भवन हैं, बजट है, अधिकाधिक शोध कार्य और कार्यों का पेटेंट है। मगर क्या पांच साल के लिए ‘रैंकिंग’ की सूची में नीचे खड़े संस्थानों के लिए आर्थिक-अकादमिक सहयोग का प्रावधान नहीं किया जा सकता कि उनकी कमियों को दूर किया जा सके और उन्हें भी अग्रिम पंक्ति में जगह मिल जाए? अगर पिछली कतार के संस्थानों के लिए विशेष प्रबंध नहीं हो सकता तो ऐसे संस्थान को चलने देने से क्या लक्ष्य हासिल होगा? हम फिर ऐसे डिग्रीधारी तैयार करेंगे, जिनकी शैक्षिक योग्यता का बाजार कोई मूल्य देने को तैयार नहीं होगा।

क्या विश्वविद्यालय या महाविद्यालय प्रायोगिक तौर पर छात्रों को यह छूट दे सकते हैं कि एक-दो महीने में अगर किसी छात्र को कोई पाठ्यक्रम अप्रासंगिक और शिक्षण में गुणवत्ता की कमी लगे, तो वह अपनी फीस वापस ले सकता है? अगर आज उच्च शिक्षा में इस तरह के प्रयोग होने लगें तो कक्षा के भीतर अन्वेषण गुणवत्ता और रोजगारोन्मुखता को बढ़ावा मिलने लगेगा। शिक्षकों को विश्वविद्यालय की कार्यसंस्कृति को भी बदलना होगा, जहां छात्र सिर्फ डिग्री लेने नहीं आता, बल्कि ज्ञान के साथ निर्भीक होकर अज्ञानता से मुक्ति की राह पर चलना चाहता है। कोई शिक्षक छात्रों को, अपने व्यवहार, आचार-विचार से कैसे नैतिक बल और कौशल देता है, इसी पर शिक्षक की प्रासंगिकता टिकी होती है।

किसी शिक्षक का छात्रों के लिए आदर्श होना, इस बात पर भी निर्भर करता है कि शिक्षक का जीवन किन नैतिक मूल्यों से युक्त है और वह कितनी सादगी और सत्यता से परिपूर्ण है। इसी आदर्श चरित्र की खोज, शिक्षक भी, अपने वरिष्ठ सहकर्मियों और कुलपति के व्यक्तित्व में करते हैं। शिक्षक दिवस, उत्सव मनाने के साथ, शिक्षा में नैतिक मूल्यों और बौद्धिक साहस को प्रोत्साहित करने का भी अवसर है। हमारे शिक्षक, छात्रों के लिए और कुलपति-प्राचार्य शिक्षकों के लिए अपने व्यवहार और ज्ञानपुंज से जो आदर्श प्रस्तुत करते हैं, हमारे युवा उन्हीं पदचिह्नों के सहारे आगे का सफर तय करते हैं।

शिक्षकों को विश्वविद्यालय की कार्यसंस्कृति को भी बदलना होगा, जहां छात्र सिर्फ डिग्री लेने नहीं आता, बल्कि ज्ञान के साथ निर्भीक होकर अज्ञानता से मुक्ति की राह पर चलना चाहता है। कोई शिक्षक छात्रों को, अपने व्यवहार, आचार-विचार से कैसे नैतिक बल और कौशल देता है, इसी पर शिक्षक की प्रासंगिकता टिकी होती है। किसी शिक्षक का छात्रों के लिए आदर्श होना, इस बात पर भी निर्भर करता है कि शिक्षक का जीवन किन नैतिक मूल्यों से युक्त है और वह कितनी सादगी और सत्यता से परिपूर्ण है। इसी आदर्श चरित्र की खोज, शिक्षक भी, अपने वरिष्ठ सहकर्मियों और कुलपति के व्यक्तित्व में करते हैं।