स्वरांगी साने

लड़के भी गुड़ियों के खेल में गुड्डों के रूप में आ जाते थे और मासूम जीवन जी लिया जाता था। वे एक-दूसरे को उस रूप में रख कर बात कर लिया करते थे, जो अपने असल जीवन में वे होना चाहते थे। खेल-खेल में रिश्तों के सारे रूप वैसे होते थे, जैसे वे चाहते थे।

मतलब गुड्डे-गुड्डी के जीवन में कोई आक्रोश नहीं था। झगड़ा होता था, तो जो खेल रहे हैं, उनके बीच होता था, खिलौनों में नहीं। लेकिन जैसे-जैसे ये खिलौने लुप्त हुए, वैसे-वैसे खेलने वाले ही महत्त्वपूर्ण हो गए। फिर उनके आक्रोश, उनकी कुंठाएं, तिरस्कार, अपमान, झगड़ा-फसाद, भयावहता… कितने ही हादसे थे, जो टाले जा सकते थे। बल्कि वे होते ही नहीं।

अगर कोमलता, सुंदरता, रूप-रस-गंध के प्रति संवदेना जीवित रह पाती तो बदसूरती पसंद ही नहीं आती। इंसानी शक्ल या बाहरी रूप-रंग की बात ही नहीं है, जो भीतर तक उतर जाती है, बात उस सुंदरता की है।

हमें बच्चों को बहुत जल्दी बड़ा करना है। हमें लगता है उनके हर एक पल पर हमारा अधिकार है। इस अधिकार का उपयोग हम अपने तरीके से करते हैं और उन्हें उनके तरीके से बड़ा नहीं होने देते। अगर सबके लिए उतने ही घंटे पढ़ना, उतने ही प्रतिशत लाना, वैसी ही नौकरी करना इतना लाजिमी होता तो वे वैसे ही जन्म लेते… मशीनी रूप में एक सांचे में ढल कर आते।

पर वे अलग हैं। उनकी सोच, उनकी कल्पना शक्ति अलग है। तो उसे उसी तरह से विस्तार भी मिलना चाहिए। हमने उनके सामने ऐसे खिलौनों का अंबार लगा दिया है जिसमें बुद्धि कौशल हो, जिसमें तर्क हो, जो दिमागी खेल हो या उससे भी आगे बढ़ कर गैजेट्स की चमक उनके सामने रख दी है। छोटे-से दिल की भी कोई अहमियत होती है। हमने अनजाने ही उनकी दुनिया से इसे खारिज कर दिया।

अपने फायदे-नुकसान के गणित उनकी झोली में भी डाल दिए। हम मगरूर हुए कि हम अपना गुणवत्ता से लैस वक्त उन्हें दे रहे हैं, लेकिन उन पर उपकार कर रहे हैं… यह बात भी उनके जेहन में डाल दी। पिछली पीढ़ी तक यह भाव नहीं था कि माता-पिता उनका समय देकर कुछ उपकार करते हैं।

कल वे बच्चे इस उपकार और दया को पैसों से तौल कर लौटा सकते हैं। कह सकते हैं कि हमारे पास भी आपके लिए समय नहीं है। कल वे भी आपसे केवल हालचाल पूछने आ सकते हैं और फिर कह सकते हैं कि समय कितना कीमती होता है, उनके बचपन में आपने ही उन्हें बताया था।

आपने ही उनसे कहा था कि एक-एक मिनट कीमती है। ये सीखो, वो सीखो… खेल रहे हो तो खेलने में भी सीखो… फालतू समय न गंवाओ। लेकिन फालतू तो कुछ भी नहीं होता। बच्चा अगर उकता रहा है, तो उसे उकताने दीजिए। तुरंत उसके सामने मन बहलाने की कोई तरकीब लेकर खड़े मत हो जाइए। उसे सीखने दीजिए। जीवन में कभी-कभी उकताहट भी बहुत लाजिमी होती है।

दुनिया की हर चीज आपका मन बहलाने के लिए नहीं बनी है। आप इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं कि सारी दुनिया आपके आगे सजदा करती रहे। विध्वंस ऐसे ही नहीं होता है। कुछ बच्चों के मन में बैठता चला जाता है कि वे जब जो चाहें, उन्हें मिलना ही चाहिए… और जो नहीं मिलेगा, उसे पाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।

ऐसा नहीं होना चाहिए। बच्चों को सिखाइए कि कभी कुछ न मिले तो उसे भी चुप रह कर स्वीकार करने आना चाहिए। जैसे खेल में कभी आपके हिस्से दाम आता है, कभी आपको दौड़ना पड़ता है। जब आपको दौड़ना हो तो जी-जान से भागिए, लेकिन जब रुकने का समय हो, तो प्रतीक्षा करने का हुनर भी हो।

कई बार भागते रहने से अधिक कठिन होता है दौड़ती-भागती दुनिया में अकेले ठहरे रहना। उस ठहराव को तालाब में जमी काई की तरह देखना है या अपनी भीतर ठहर कर बुद्ध होना है, यह सोचने वाली बात है। बच्चों को दिशा दीजिए, उन्हें अनुशासन में रखिए, लेकिन उन्हें बांधिए नहीं। वे जो बनना चाहते हैं, उन्हें बनने दीजिए। अगर वे ड्राइवर भी होना चाहते हैं तो होने दीजिए।

कृत्रिम शक्ल देने के साथ बच्चों की थाली में कृत्रिम जीवन परोस कर नहीं दीजिए। उन्हें कड़ी धूप में खुद को निखरने दीजिए। उनके पैरों में भी थोड़े कंकड़-पत्थर चुभने दीजिए। कुछ कांटों से उन्हें भी उलझने दीजिए।

तभी उनके भीतर की संवेदना जीवित रहेगी। उन्हें पता चल पाएगा कि चोट लगने पर दर्द होता है और बचपन के मोहक संसार को ही वे जीवन में उतार पाएंगे, जिसमें गलाकाट प्रतिस्पर्धा न होकर सबको साथ लेकर एक लक्ष्य तक दौड़ पड़ने की लालसा होगी।

कई ऊंचे पहाड़ हैं, जिन पर चढ़ा जाना है। चोटी तक पहुंचने के लिए सब साथ दौड़ सकते हैं। केवल एक के हिस्से चोटी होगी, मगर यात्रा का आनंद तो सब साथ मिल कर ले सकते हैं। उन्हें महसूस करने दीजिए। उन्हें बड़े होकर गाने के लिए ऐसा बचपन दीजिए, जिसकी याद में वे गा सकें ‘एक था बचपन’!