ऐसा क्यों है कि हमारे राजनेताओं को हमारी रद्दी स्वास्थ्य सेवाएं तब ही याद आती हैं जब कोई अति-गंभीर समस्या खड़ी हो जाती है? ऐसा क्यों है कि तब ही आला अधिकारी और बड़े-बड़े मंत्री दौड़ कर उस गंभीर घटना की जानकारी खुद लेने जाते हैं साथ में टीवी पत्रकारों की फौज लेकर? ऐसा ही कुछ हुआ पिछले सप्ताह जब खबर आई कि नांदेड़ के एक सरकारी अस्पताल में गांधी जयंती के दिन 24 घंटों में 24 मरीजों की मौत हुई, जिनमें 11 नवजात थे। ये घटना इतनी शर्मनाक थी कि बांबे उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करना अपना कर्तव्य समझा। महाराष्ट्र सरकार से जवाब मांगे।

तब तक मुख्यमंत्री नांदेड़ पहुंच चुके थे टीवी पत्रकारों की फौज के साथ और अस्पताल में घूमते हुए उनकी ढेर सारी तस्वीरें अखबारों और समाचार चैनलों पर देखने को मिलीं। क्या उनका चेहरा देख कर उन्हें शांति मिली होगी जिनके नवजात की मौत हुई थी? क्या उनके जाने से कोई बदलाव आने वाला है? सबसे अहम सवाल ये है कि महाराष्ट्र जैसे विकसित, समृद्ध राज्य का अगर ये हाल है तो बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों के अस्पतालों का क्या हाल होगा?

क्या हमारी निकम्मी स्वास्थ्य सेवाओं के पीछे ये भी एक कारण है कि हम मीडिया वाले इनके बारे में लिखना पसंद नहीं करते हैं ये समझ कर कि राजनीतिक मसाला ज्यादा बिकता है? इन सवालों के जवाब आप पर छोड़ती हूं। इसलिए कि मीडिया का हिस्सा मैं भी हूं और मैंने भी इन बेकार स्वास्थ्य सेवाओं पर इतना नहीं लिखा है जितना लिखना चाहिए था मुझे।

इस विषय पर इस हफ्ते लिखने का फैसला तब लिया मैंने जब लक्ष्मीबाई नाम की एक मां की तस्वीर अखबारों में देखी। उस मां का चेहरा कभी नहीं भूल पाऊंगी। उसमें वो दर्द दिखा मुझे जो कभी कम नहीं होने वाला है। लक्ष्मीबाई की नवजात बच्ची उन ग्यारह बच्चों में थी जो उन 24 घंटों में मरे थे इस सरकारी अस्पताल में। यहां ये भी कहना जरूरी है कि अगले हफ्ते तक इस घटना को हम सब भूल गए होंगे क्योंकि ऐसा अक्सर होता है अपने इस भारत महान में।

क्या आपको बिहार के उस शहर का नाम भी याद है जहां पांच साल पहले 93 बच्चे एक सरकारी अस्पताल में मरे थे कुछ ही दिनों के अंदर? क्या याद है आपको कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री खुद गए थे लोगों को आश्वासन देने कि ऐसा कभी दोबारा ना होने देंगे? उस अस्पताल का हाल इतना बुरा था कि उसके गंदे, कूड़े से भरे आंगन में इंसानों की हड्डियां भी मिलीं। सब भुला दिया गया है और यकीन मानिए कि मुजफ्फरपुर के उस अस्पताल में आज तक कोई बदलाव नहीं आया होगा।

दोष इन चीजों का जब हम देने लगेंगे तो मालूम ये होगा कि हम सबका दोष है। राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों का तो है ही लेकिन काफी हद तक दोष हमारा और आपका है। अच्छी सार्वजनक सेवाएं जब दिखती हैं किसी देश में तो पाया ये जाता है कि इनको उपलब्ध किया गया है तब ही जब आम लोग इनका मांग करते हैं। इनको अहमियत देते हैं।

भारत देश में जब अमीर लोग मांगने लगे अच्छे अस्पताल तब इतने अच्छे अस्पताल बने हमारे महानगरों में कि आजकल हमारे राजनेता ‘मेडिकल टूरिज्म’ की बातें करते हैं। विदेशों से लोग आते भी हैं हमारे प्राइवेट अस्पतालों में इसलिए कि उनके अपने देशों में यही सेवाएं कोई तीन गुना महंगी होती हैं भारत से।

तो भारत में आज दुनिया के सबसे बेहतरीन अस्पताल हैं, दिल्ली और मुंबई में, लेकिन इन शहरों में ही गरीबों के लिए दुनिया की सबसे रद्दी स्वास्थ्य सेवाएं भी हैं। एक मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने परिवर्तन लाने की कोशिश की है और वो हैं अरविंद केजरीवाल। मैंने दिल्ली में उनके मोहल्ला क्लिनिक देखे हैं। यकीन मानिए जब कहती हूं कि इनमें मैंने अच्छे से अच्छे डाक्टर देखे हैं और वो सफाई देखी है जो ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में नहीं दिखती है। दिल्ली में अगर एम्स जैसे सरकारी अस्पताल दिखते हैं जहां आधुनिक और बेहतरीन इलाज होता है तो इसलिए कि इस अस्पताल में राजनेता भी जाते हैं और आला अधिकारी भी।

तो आइए हम अपनी रद्दी स्वास्थ्य सेवाओं की जड़ों तक चलते हैं। ये रद्दी इसलिए हैं क्योंकि जब इनका निर्माण हुआ था स्वतंत्र भारत में तो जिन आला अधिकारियों ने इनका निर्माण किया उनको इजाजत थी विदेशों में अपना इलाज करवाने की। जब किसी बड़े अफसर या मंत्री को दिल का दौरा पड़ता था या डायलिसिस जैसी सेवा की जरूरत पड़ती थी वो सीधा जाता था लंदन या न्यूयार्क और जनता के पैसों से अपना इलाज करवाने के बाद वापस वतन लौटता था।

एक प्रधानमंत्री थे इस देश के जिन्होंने जब लंदन में छह महीने गुजारे डायलिसिस करवाने के वास्ते और ये खबर आम हुई तो उन्होंने कहा कि लंदन में इलाज इसलिए उनको करवाना पड़ा क्योंकि वहां का पानी ज्यादा साफ है। ऐसा कह दिया ये सोचे बिना कि हमारे देश का पानी अगर साफ नहीं है तो क्या दोष उन जैसों का नहीं है? कट्टर समाजवादी सोच के थे ये प्रधानमंत्री और दशकों से ऊंचे ओहदों में रहे थे।

लेकिन न उन्होंने पूछा कि समाजवादी देश होने के बावजूद भारत में इन बुनियादी चीजों पर हमने निवेश क्यों नहीं किया और न हम-आप पूछते हैं। यही मुख्य कारण है कि हमारे सरकारी अस्पताल इतने बेकार हैं कि सिर्फ मजबूर, गरीब लोग ही इनमें इलाज करवाने जाते हैं। रही बात हम मीडिया वालों की तो हमारी भूमिका इस शर्मनाक कहानी में यही है कि हम हल्ला तब ही मचाते हैं जब नांदेड़ जैसी घटना सामने आती है।