इस सप्ताह मैं उस छोटे, समुद्र तटीय गांव में हूं, जहां कोई बीस साल से आ रही हूं। यह वही महाराष्ट्र का गांव है, जहां मैंने कोविड दौर के सबसे डरावने महीने बिताए थे, इसलिए कि यहां थी जब प्रधानमंत्री ने चार घंटों की मोहलत देकर पूरे भारत में बंदी घोषित कर दी थी। आज इस गांव में पर्यटक लौट आए हैं और फिर से खुल गए हैं वे छोटे होटल और रेस्तरां, जो गांव की हर गली में हैं। जिस कमरे में बैठ कर लिख रही हूं, उससे समुद्र दिखता है। मौसम सुहाना है और आसमान में घने बादल दिख रहे हैं, जो याद दिलाते हैं कि उत्तर भारत के राज्यों में बरसात इस साल कितनी मुसीबतें लेकर आई है।
सबसे जरूरी सवाल कि हम नाले और नदियों को साफ करने में इतने विफल क्यों
मेरी पढ़ाई उत्तराखंड और हिमाचल में हुई थी, सो बहुत दुख होता है जब टीवी पर उन टूटे पुल, सड़कें और बस्तियों के दृश्य देखती हूं। मौसम विशेषज्ञ सारा दोष डाल रहे हैं ‘जलवायु परिवर्तन’ पर। यह भी स्वीकार कर रहे हैं कि हमने सुनियोजित तरीके से शहरीकरण किया होता तो इतने बेहाल न होते हमारे शहर। यह बात सच है, लेकिन हम क्यों नहीं पूछते हैं अगला और सबसे जरूरी सवाल कि हम क्यों नाले और नदियों को साफ करने में इतने विफल रहे हैं कि हर साल देश के किसी न किसी प्रांत में इस तरह के दृश्य देखने को मिलते हैं बरसात के मौसम में?
अब सुनिए, इन बातों से इस गांव का क्या वास्ता है। पिछले बीस सालों में इस गांव में पर्यटन काफी तरक्की लाया है और स्वच्छ भारत योजना ने समुद्र किनारे से उन लोगों को गायब कर दिया है, जो सुबह-शाम दिखते थे खुले में शौच करते हुए। यह अच्छी बात है, लेकिन बुरी खबर भी है कि इस गांव के लोगों को सरकार की तरफ से ‘रेवड़ियां’ हासिल करने की इतनी आदत पड़ गई है कि उनकी मानसिकता भिखारी जैसी हो गई है। मुफ्तखोरी पर अपना अधिकार इस हद तक समझने लगे हैं ये कि जब कुछ साल पहले एक सरकारी कंपनी ने घरों में पानी पहुंचाने की योजना पंचायत के सामने रखी थी, तो उसे ठुकरा दिया गया, इसलिए कि पानी के लिए थोड़ा-बहुत पैसा देने की पेशकश थी। नतीजा यह कि आज तक गांव के घरों में पानी नहीं है।
प्रधानमंत्री मान चुके हैं कई बार कि ‘रेवड़ियां’ बांट कर चुनाव जीतने की आदत गलत है, लेकिन उनके मुख्यमंत्री कांग्रेस की नकल करके रेवड़ियां बांटने का काम शुरू कर देते हैं, जब-जब चुनावों का मौसम करीब आने लगता है। कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक सोच में गरीबी हटाने का एक ही तरीका है, गरीबों को मुफ्त अनाज, बिजली, पानी, मकान देना। यही आदत अगर भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री डाल लेते हैं, तो हमको विकसित देश बनने का सपना भूल जाना चाहिए। इसलिए कि जो पैसा खैरात बांटने में लगेगा, वह इतना ज्यादा होगा कि विकसित देश बनने का पैसा कहां से आएगा?
कहां से आएगा पैसा सुनियोजित शहरीकरण का? कहां से आएगा पैसा गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों को साफ रखने का? मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में कहां से आएगा पैसा उन नालों की मरम्मत का, जो सौ साल से भी पुराने हो गए हैं? कहां से आएगा पैसा कचरे के उन पहाड़ों को हटाने का, जो दिल्ली में देखने को मिलते हैं जब पुरानी दिल्ली पूरी तरह डूबी नहीं होती है। दिल्लीवासी हूं, सो यकीन मानिए, जब कहती हूं कि दिल्ली में दशकों से इस महानगर की नगरपालिकाओं का काम इतना बेकार है कि न होने के बराबर। पिछले सप्ताह जो देश की राजधानी का हाल दिखा, उसका मुख्य कारण यही है और कोई नहीं।
चलिए, लौट कर आते हैं इस गांव में, जहां से यह लेख पहुंच रहा है आपके पास। यह इतना सुंदर गांव है कि यहां आते हैं हर मौसम में पर्यटक और जब भी मैं जाती हूं समुद्र किनारे टहलने, हैरान होती हूं आलीशान बंगले देख कर, जिनकी संख्या कोविड के बाद काफी बढ़ गई है, क्योंकि मुंबई के अमीर लोग यहां भाग कर आए थे यह सोच कर कि बीमार होने का खतरा यहां कम होगा। उनके आने के बाद गांव के आसपास खुल गई हैं आलीशान दुकानें और रेस्तरां, लेकिन अभी तक हर दूसरी गली में देखने को मिलते हैं सड़ते कूड़े के ढेर। उनको हटाने के लिए जब भी पंचायत के सामने कोई पेशकश लेकर जाता है तो जवाब यही मिलता है कि हम तो करेंगे नहीं, आपको सफाई करवानी है तो आप खुद करवा लीजिए।
जब गांव की कोई जरूरत होती है, तो सरपंच अमीर लोगों के दरवाजे पहुंच जाते हैं और धमकाने के अंदाज में अपनी मांग रखते हैं, जैसे कि उनको पूरा अधिकार है ऐसा करने का। ऐसा होता है जब राजनेता डालते हैं आम लोगों में मुफ्तखोरी की आदत। सो, एक तरफ तो हैं हमारे विकसित देश बनने के सपने, आर्थिक महाशक्ति बनने के सपने और दूसरी तरफ हैं ऐसी परंपराएं, जिसने इस देश के आम लोगों को भिखारी बना रखा है।
यह आदत तभी छूटेगी, जब हमारे राजनेता ईमानदारी से लोगों को समझाने लगेंगे कि खैरात से उनकी गरीबी कभी नहीं हटेगी। ईमानदारी से जब समझाएंगे कि जो पैसा उनको मुफ्त राशन, पानी, आवास देने में लगा है उसको अगर अच्छे स्कूलों, अस्पतालों और रोजगार पैदा करने में लगाया जाएगा तभी उनकी गरीबी कम होगी। ऐसा होगा जरूर एक दिन, लेकिन इस साल नहीं, क्योंकि इस साल कई बड़े राज्यों में चुनाव आ रहे हैं और उसके बाद आ रहा है लोकसभा चुनाव।